यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २/मन्त्रः १४

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अध्यायः २
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २



एषा ते इत्यस्य ऋषिः स एव। अग्निर्देवता सर्वस्य। पूर्वोऽनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः। अग्ने वाजजिदित्यत्र निचृद्गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥

अग्निना यज्ञे कथमुपकारो ग्राह्य इत्युपदिश्यते॥

यज्ञ में अग्नि से कैसे उपकार लेना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥

 

ए॒षा ते॑ऽअग्ने स॒मित्तया॒ वर्ध॑स्व॒ चा च प्यायस्व।

व॒र्धि॒षी॒महि॑ च व॒यमा च॑ प्यासिषीमहि।

अग्ने॑ वाजजि॒द् वाजं॑ त्वा संसृ॒वासं॑ वाज॒जित॒ꣳ सम्मा॑र्ज्मि॥१४॥

पदपाठः— ए॒षा। ते॒। अ॒ग्ने॒। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। तया॑। वर्ध॑स्व। च॒। आ॒। च॒। प्या॒य॒स्व॒। व॒र्धि॒षी॒महि॑। च॒। व॒यम्। आ। च॒। प्या॒सि॒षी॒म॒हि॒। अग्ने॑। वा॒ज॒जि॒दिति॑ वाजऽजित्। वाज॑म्। त्वा॒। स॒सृ॒वास॒मिति॑ स॒सृ॒वास॑म्। वा॒ज॒जित॒मिति॑ वाज॒ऽजित॑म्। सम्। मा॒र्ज्मि॒॥१४॥

पदार्थः— (एषा) प्रदीप्तिहेतुः (ते) तव तस्य वा (अग्ने) परमेश्वर! भौतिको वा (समित्) सम्यगिध्यते दीप्यतेऽनया सा विद्या काष्ठादिर्वा (तया) विद्यया समिधा वा (वर्धस्व) वर्धते वा। सर्वत्रान्त्यपक्षे व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (च) समुच्चये (आ) क्रियायोगे (च) पुनरर्थे (प्यायस्व) प्यायते वा (वर्धिषीमहि) स्पष्टार्थम् (च) समुच्चये (वयम्) विद्यावन्तो धार्म्मिकाः (आ) समन्तात् क्रियायोगे (च) अन्वाचये (प्यासिषीमहि) अत्र प्यैङ्धातोः सिबुत्सर्गश्छन्दसि (अष्टा॰३.१.३४) अनेन वार्त्तिकेन सिप् प्रत्ययः (अग्ने) ज्ञानस्वरूपविजयप्रदेश्वर! भौतिको वा। (वाजजित्) वाजं सर्वस्य वेगं जयति स ईश्वरः। वाजं जयति येन वा स भौतिकः। (वाजम्) ज्ञानवन्तं वेगवन्तं वा (त्वा) त्वां तं वा (ससृवांसम्) सर्वं ज्ञानवन्तं शिल्पविद्यागुणप्राप्तिमन्तं वा। (वाजजितम्) यो येन वा वाजं संग्रामं जयति तम (सम्) सम्यगर्थे (मार्ज्मि) शुद्धो भवामि शोधयामि वा॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.८.२.३-७) व्याख्यातः॥१४॥

अन्वयः— हे अग्ने जगदीश्वर! ते तव यैषा समित् वेदविद्यास्ति तयास्माभिः स्तुतः सँस्त्वं वर्धस्व चास्मान् नित्यं वर्धय। हे भगवन्नेवं भवद्विदितगुणैरस्माभिः प्रकाशितः संस्त्वं प्यायस्व चास्मान् नित्यं प्यायय। हे भगवन्नग्ने वाजजिद्वाजं ससृवांसं त्वां वयं वर्धिषीमहि। कृपया भवान् चास्मानपि वाजजितः सस्रुषो वाजान् करोतु, यथा वयं भवन्तमाप्यासिषीमहि, तथैव भवांश्चास्मान् सर्वैः शुभगुणैराप्यायताम्। अहं भवन्तमाश्रित्य संमार्ज्मि भवदाज्ञानुष्ठानेन शुद्धो भवामीत्येकः॥

यैषा तेऽस्याग्नेर्वर्धिका समिदस्ति तया चायं वर्धते आप्यायते च वयं तं वाजं ससृवांसं वाजजितमग्निं विद्यावृद्धये वर्धिषीमहि, आप्यासिषीमहि च। यतोऽयं शिल्पविद्यासिद्धैर्विमानादिभिर्यानैर्वाजान् सस्रुषो वाजजितोऽस्मान् विजयेन वर्धयति, तमहं संमार्ज्मीति द्वितीयः॥१४॥

भावार्थः— अत्र श्लेषालङ्कारः। क्रियाद्वयं चादरार्थं विज्ञेयम्। ये मनुष्याः परमेश्वराज्ञापालने क्रियाकौशले च वर्धन्ते, ते विद्यायां सर्वानानन्दयित्वा दुष्टान् शत्रून् जित्वा शुद्धा भूत्वा सुखयन्ति, नेतरेऽलसाः। चकारचतुष्टयेनेश्वराज्ञा धर्म्या सूक्ष्मस्थूलतयाऽनेकविधास्ति तथा क्रियाकाण्डे कर्त्तव्यानि कर्माण्यनेकानि सन्तीति विज्ञेयम्।

त्रयोदशमन्त्रेण या वेदविद्या प्रतिपादितास्ति, तया सुखार्थं यज्ञसंधानमुक्तमनेनैतयैवं पुरुषार्थः कार्य्य इति प्रकाशितम्॥१४॥

पदार्थः— हे (अग्ने) परमेश्वर! (ते) आपकी जो (एषा) यह (समित्) अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों की प्रकाश करने वाली वेदविद्या है, (तया) उससे हम लोगों की की हुई स्तुति को प्राप्त होकर आप नित्य (वर्धस्व) हमारे ज्ञान में वृद्धि को प्राप्त हूजिये, (च) और उस वेदविद्या से हम लोगों की भी नित्य वृद्धि कीजिये। इसी प्रकार हे भगवन्! आप के गुणों को जाननेहारे हम लोगों से (च) भी प्रकाशित होकर आप (प्यायस्व) हमारे आत्माओं में वृद्धि को प्राप्त हूजिये। इसी प्रकार हम को भी बढ़ाइये। हे भगवन्! (अग्ने) विज्ञानस्वरूप विजय देने और (वाजजित्) सब के वेग को जीतने वाले परमेश्वर हम लोग (वाजम्) जो कि ज्ञानस्वरूप (ससृवांसम्) अर्थात् सबको जानने वाले (त्वा) आपकी (वर्धिषीमहि) स्तुतियों से वृद्धि तथा प्राप्ति करें (च) और आप कृपा करके हम को भी सब के वेग के जीतने तथा ज्ञानवान् अर्थात् सब के मन के व्यवहारों को जानने वाले कीजिये और जैसे हम लोग आपकी (आप्यासिषीमहि) अधिक-अधिक स्तुति करें, वैसे ही आप भी हम लोगों को सब उत्तम-उत्तम गुण और सुखों से (आप्यायस्व) वृद्धियुक्त कीजिये। हम आपके आश्रय को प्राप्त होकर तथा आपकी आज्ञा के पालने से (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार शुद्ध होते हैं॥१॥

जो (एषा) यह (अग्ने) भौतिक अग्नि है (ते) उसकी (समित्) बढ़ाने अर्थात् अच्छी प्रकार प्रदीप्त करने वाली लकड़ियों का समूह है (तया) उससे यह अग्नि (वर्धस्व) बढ़ता और (आप्यायस्व) परिपूर्ण भी होता है। हम लोग (त्वा) उस (वाजम्) वेग और (ससृवांसम्) शिल्पविद्या के गुणों को देने तथा (वाजजितम्) संग्राम के जिताने के साधन अग्नि को विद्या की वृद्धि के लिये (वर्धिषीमहि) बढ़ाते हैं। (च) और (आप्यासिषीमहि) कलाओं में परिपूर्ण भी करते हैं, जिससे यह शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए विमान आदि यानों तथा वेग वाले शिल्पविद्या के गुणों की प्राप्ति से संग्राम को जिताने वाले हमको विजय के साथ बढ़ाता है, इससे (त्वा) उस अग्नि को हम (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार प्रयोग करते हैं॥२॥१४॥

भावार्थः— इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और एक-एक अर्थ के दो-दो क्रियापद आदर के लिये जानने चाहिये। जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा के पालने और क्रिया की कुशलता में उन्नति को प्राप्त होते हैं, वे विद्या और सुख में सब को आनन्दित कर और दुष्ट शत्रुओं को जीतकर शुद्ध होके सुखी होते हैं। जो आलस्य करने वाले हैं, वे ऐसे कभी नहीं हो सकते और चार चकारों से ईश्वर की धर्मयुक्त आज्ञा सूक्ष्म वा स्थूलता से अनेक प्रकार की और क्रियाकाण्ड में करने योग्य कार्य्य भी अनेक प्रकार के हैं, ऐसा समझना चाहिये।

जो तेरहवें मन्त्र में वेदविद्या कही है उस से सुख के लिये यज्ञ का सन्धान तथा पुरुषार्थ करना चाहिये ऐसा इस मन्त्र में प्रतिपादन किया है॥१४॥