यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २/मन्त्रः ३३

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अध्यायः २
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २


आधत्त इत्यस्य ऋषिः स एव। पितरो देवताः। गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥

तैः किं किं कर्तव्यमित्युपदिश्यते॥

उक्त पितरों को क्या क्या करना चाहिये, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

 

आध॑त्त पितरो॒ गर्भं॑ कुमा॒रं पुष्क॑रस्रजम्। यथे॒ह पुरु॒षोऽस॑त्॥३३॥

पदपाठः— आ। ध॒त्त॒। पि॒त॒रः॒। गर्भ॑म्। कु॒मा॒रम्। पुष्क॑रस्रज॒मिति॒ पुष्क॑रऽस्रजम्। यथा॑। इ॒ह। पुरु॑षः। अस॑त्॥३३॥

पदार्थः— (आ) समन्तात् (धत्त) धारयत (पितरः) ये पान्ति विद्यान्नादिदानेन तत्संबुद्धौ (गर्भम्) गर्भमिव (कुमारम्) ब्रह्मचारिणम् (पुष्करस्रजम्) विद्याग्रहणार्था स्रग् धारिता येन तम् (यथा) येन प्रकारेण (इह) अस्मिन् संसारेऽस्मत्कुले वा (पुरुषः) विद्यापुरुषार्थयुक्तोऽयं मनुष्यः (असत्) भवेत्। लेटः प्रयोगोऽयम्॥३३॥

अन्वयः— हे पितरो! यूयं यथायं ब्रह्मचारीह शरीरात्मबलं प्राप्य पुरुषवद्भवति, तथैव गर्भमिव पुष्करस्रजं कुमारं विद्यार्थिनमाधत्त धारयत॥३३॥

भावार्थः— अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ईश्वर आज्ञापयति। विद्वद्भिर्विदुषीभिश्च विद्यार्थिनः कुमारा विद्यार्थिन्यः कुमार्य्यश्च विद्यादानाय गर्भवद्धार्य्याः। यथा गर्भे देहः क्रमेण वर्धते तथैव सुशिक्षयैव एताश्च सद्विद्यायां वर्धयितव्याः पालनीयाश्च। यतो विद्यायोगेन धार्मिकाः पुरुषार्थयुक्ता भूत्वा सदैव सुखयुक्ता भवेयुरित्येतत् सदैवानुष्ठेयमिति॥३३॥

पदार्थः— हे (पितरः) विद्यादान से रक्षा करने वाले विद्वान् पुरुषो! आप (यथा) जैसे यह ब्रह्मचारी (इह) इस संसार वा हमारे कुल में अपने शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होके विद्या और पुरुषार्थयुक्त मनुष्य (असत्) हो वैसे (गर्भम्) गर्भ के समान (पुष्करस्रजम्) विद्या ग्रहण के लिये फूलों की माला धारण किये हुए (कुमारम्) ब्रह्मचारी को (आधत्त) अच्छी प्रकार स्वीकार कीजिये॥३३॥

भावार्थः— इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् पुरुष और स्त्रियों को चाहिये कि विद्यार्थी, कुमार वा कुमारी को विद्या देने के लिये गर्भ के समान धारण करें। जैसे क्रम-क्रम से गर्भ के बीच देह बीच बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिये कि अच्छी-अच्छी शिक्षा से ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी को श्रेष्ठ विद्या में वृद्धियुक्त करें तथा (उनका) पालन करें। वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थयुक्त होकर सदा सुखी हों, यह अनुष्ठान सदैव करना चाहिये॥३३॥