यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २/मन्त्रः २०

← मन्त्रः १९ यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)
अध्यायः २
दयानन्दसरस्वती
मन्त्रः २१ →
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २


अग्नेऽदब्धायो इत्यस्य ऋषिः स एव। अग्निसरस्वत्यौ देवते। भुरिग्ब्राह्मीत्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥

अथ सोऽग्निः कीदृशः किमर्थः प्रार्थनीयश्चेत्युपदिश्यते॥

उक्त अग्नि कैसा और क्यों प्रार्थना करने योग्य है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥

 

अग्ने॑ऽदब्धायोऽशीतम पा॒हि मा॑ दि॒द्योः पा॒हि प्रसि॑त्यै पा॒हि दुरि॑ष्ट्यै पा॒हि दुर॑द्म॒न्याऽअ॑वि॒षं नः॑ पि॒तुं कृ॑णु। सु॒षदा॒ योनौ॒ स्वाहा॒ वाड॒ग्नये॑ संवे॒शप॑तये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै यशोभ॒गिन्यै॒ स्वाहा॑॥२०॥

पदपाठः— अग्ने॑। अ॒द॒ब्धा॒यो॒ऽ इत्य॑दब्धऽआ॒यो। अ॒शी॒त॒म॒। अ॒शि॒त॒मेत्य॑शिऽतम। पा॒हि। मा॒। दि॒द्योः। पा॒हि। प्रसि॑त्या॒ इति॒ प्रऽसि॑त्यै। पा॒हि। दुरि॑ष्ट्या॒ इति॒ दुःऽइ॑ष्ट्यै। पा॒हि। दु॒र॒द्म॒न्या इति॑ दुःऽअद्म॒न्यै॑। अ॒वि॒षम्। नः॒। पि॒तुम्। कृ॒णु॒। सु॒षदा॑। सु॒सदेति॑ सु॒ऽसदा॑। योनौ॑। स्वाहा॑। वाट्। अ॒ग्नये॑। सं॒वे॒शप॑तय॒ इति॑ संवे॒शऽप॑तये। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। य॒शो॒भ॒गिन्या॒ इति॑ यशःऽभ॒गिन्यै॑। स्वाहा॑॥२०॥

पदार्थः— (अग्ने) जगदीश्वर! भौतिको वा (अदब्धायो) अदब्धमहिंसितमायुर्यस्मात् तत्संबुद्धौ, अदब्धायुर्वा। (अशीतम) अश्नुते व्याप्नोति चराचरं यज्ञं सोऽतिशयितस्तत्संबुद्धौ। स वा। अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः (पाहि) रक्ष पाति वा (मा) माम् (दिद्योः) अतिदुःखात्। दिवु धातोः कुर्भ्रश्च (उणा॰१.२२) इति चकारेण कुप्रत्ययो बाहुलकाद् वकारलोपश्च (पाहि) रक्ष रक्षति वा (प्रसित्यै) प्रकृष्टा चासौ सितिर्बन्धनं यस्या तस्याः। अत्र पञ्चम्यर्थे चतुर्थी (पाहि) पाति वा (दुरिष्ट्यै) दुष्टा इष्टिर्यजनं यस्यां तस्याः। अत्र पञ्चम्यर्थे चतुर्थी। (पाहि) पाति वा। (दुरद्मन्यै) दुष्टा अद्मनी अदनक्रिया यस्यां तस्याः। अत्रापि पञ्चम्यर्थे चतुर्थी (अविषम्) विषादिदोषरहितम् (नः) अस्माकम् (पितुम्) अन्नम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम् (निघं॰२.७) (कृणु) कुरु करोति वा। अत्र सर्वत्र पक्षे लडर्थे लोट् (सुषदा) सुखेन सीदन्ति यस्यां तस्याम्। अत्र सुपां सुलुक् [अष्टा॰७.१.३९] इति ङेः स्थान आकारादेशः (योनौ) युवन्ति यस्यां सा योनिर्गृहं जन्मान्तरं वा तस्याम्। योनिरिति गृहनामसु पठितम् (निघं॰३.४) (स्वाहा) सु आहानया सा (वाट्) क्रियार्थे। (अग्नये) परमेश्वराय भौतिकाय वा (संवेशपतये) सम्यक् विशन्ति ये ते पृथिव्यादयः पदार्थास्तेषां पतिः पालकस्तस्मै (स्वाहा) सुष्ठु आहुतं करोति यस्यां सा (सरस्वत्यै) सरन्ति जानन्ति येन तत् सरो ज्ञानं तत्प्रशस्तं विद्यते यस्यां वाचि तस्यै। सरस्वतीति वाङ्नामसु पठितम् (निघं॰१.११) (यशोभगिन्यै) यशांसि सत्यवचनादीनि कर्माणि भजितुं शीलं यस्यास्तस्यै (स्वाहा) स्वकीयं पदार्थं प्रत्याह यस्यां क्रियायां सा॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.७.३.१९-२०) व्याख्यातः॥२०॥

अन्वयः— हे अदब्धायोऽशीतमाग्ने जगदीश्वर! त्वं यज्ञं दुरिष्ट्यै पाहि। मां दिद्योः प्रमादाद् दुःखात् पाहि, प्रसित्यै पाहि, दुरद्मन्यै पाहि, नोऽस्माकमविषं पितुं कृणु नोऽस्मान् सुषदायां योनौ स्वाहा वाट् सत्क्रियायां च कृणु, वयं यशोभगिन्यै स्वाहा सरस्वत्यै संवेशपतयेऽग्नये तुभ्यं स्वाहा नमश्च नित्यं कुर्म इत्येकः॥

हे जगदीश्वर! योऽयं भवताऽदब्धायुरशीतमोग्निर्निर्मितः स यज्ञं दुरिष्ट्याः पाति। मां दिद्योः पाति। प्रसित्याः पाति। दुरद्मन्याः पाति। नोऽस्माकमविषं पितुं करोति, सुषदायां योनौ स्वाहा वाट् सत्क्रियायां च हेतुरस्ति वयं तस्मै संवेशपतयेऽग्नये स्वाहा, यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा कुर्म इति द्वितीयः॥२०॥

भावार्थः— अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वथा सर्वस्माद् दुःखाद् रक्षक उत्तमजन्मनिमित्तकर्माज्ञापक  उत्तमभोगप्रदाता जगदीश्वरोऽस्ति, स एव सदा सेवनीयः। तेन स्वसृष्टौ सूर्य्यविद्युत्प्रत्यक्षरूपेण योऽयमग्निः प्रकाशितः, सोऽपि सम्यक् विद्योपकारे संयोजितः सन् सर्वथा रक्षणोत्तमभोगहेतुर्भवति। यया कीर्तिहेतुभूतया सत्यलक्षणया वेदरूपया वाचोत्तमानि जन्मानि सर्वपदार्थेभ्य उत्कृष्टा विविधा विद्या च प्रकाशिता भवति, सा सदैव स्वीकर्त्तव्या स्वीकारयितव्या वेति। अत्र नमो यज्ञ इति च पदद्वयं पूर्वस्मान्मन्त्रादाकर्षितम्। पूर्वमन्त्रोक्तानां मनुष्यैरनुष्ठितानां कर्मणां फलमनेनोक्तमिति वेद्यम्॥२०॥

पदार्थः— हे (अदब्धायो) निर्विघ्न आयु देने वाले (अग्ने) जगदीश्वर! आप (अशीतम) चराचर संसार में व्यापक यज्ञ को (दुरिष्ट्यै) दुष्ट अर्थात् वेदविरुद्ध यज्ञ से (पाहि) रक्षा कीजिये (मा) मुझे (दिद्योः) अति दुःख से (पाहि) बचाइये तथा (प्रसित्यै) भारी-भारी बन्धनों से (पाहि) अलग रखिये (दुरद्मन्यै) जो दुष्ट भोजन करना है, उस विपत्ति से (पाहि) बचाइये और (नः) हमारे लिये (अविषम्) विष आदि दोषरहित (पितुम्) अन्नादि पदार्थ (कृणु) उत्पन्न कीजिये तथा (नः) हम लोगों को (सुषदा) सुख से स्थिरता को देने वाले (योनौ) घर में (स्वाहा) (वाट्) वेदोक्त वाक्यों से सिद्ध होने वाली उत्तम क्रियाओं में स्थिर (कृणु) कीजिये, जिससे हम लोग (यशोभगिन्यै) सत्यवचन आदि उत्तम कर्मों का सेवन करने वाली (सरस्वत्यै) पदार्थों के प्रकाशित कराने में उत्तम ज्ञानयुक्त वेदवाणी के लिये (स्वाहा) धन्यवाद वा (संवेशपतये) अच्छी प्रकार जिन पृथिव्यादि लोकों में प्रवेश करते हैं, उनके पति अर्थात् पालन करनेहारे जो (अग्नये) आप हैं, उनके लिये (स्वाहा) धन्यवाद और (नमः) नमस्कार करते हैं॥१॥

हे भगवन् जगदीश्वर! आपने जो यह (अदब्धायो) निर्विघ्न आयु का निमित्त (अग्ने) भौतिक अग्नि बनाया है, वह भी (अशीतम) सर्वत्र व्यापक यज्ञ को (दुरिष्ट्यै) दुष्ट यज्ञ से (पाहि) रक्षा करता है तथा (मा) मुझे (दिद्योः) अति दुःखों से (पाहि) बचाता है (प्रसित्यै) बड़े-बड़े दारिद्र्य के बन्धनों से (पाहि) बचाता है तथा (दुरद्मन्यै) दुष्ट भोजन कराने वाली क्रियाओं से (पाहि) बचाता है और (नः) हमारे (पितुम्) अन्न आदि पदार्थ (अविषम्) विष आदि दोषरहित (कृणु) कर देता है वह (सुषदा) सुख से स्थिति देने वाले (योनौ) घर अथवा दूसरे जन्मों में (स्वाहा) (वाट्) वेदोक्त वाक्यों से सिद्ध होने वाली क्रियाओं का हेतु है, हम लोग उस (संवेशपतये) पृथिव्यादि लोकों के पालने वाले (अग्नये) भौतिक अग्नि को ग्रहण करके (स्वाहा) होम तथा उसके साथ (यशोभगिन्यै) (सरस्वत्यै) उक्त गुण वाली वेदवाणी की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) परमात्मा का धन्यवाद करते हैं॥२०॥

भावार्थः— इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को जो सर्वव्यापक सब प्रकार से रक्षा करने, उत्तम जन्म देने, उत्तम कर्म कराने और उत्तम विद्या वा उत्तम भोग देने वाला जगदीश्वर है, उसी का सेवन सदा करना योग्य है तथा जो यह अपनी सृष्टि में परमेश्वर ने भौतिक अग्नि, प्रत्यक्ष सूर्य्यलोक और बिजुली रूप से प्रकाशित किया है वह भी अच्छी प्रकार विद्या से उपकार लेने में संयुक्त किया हुआ सब प्रकार से रक्षा और उत्तम भोग का हेतु होता है। जिसकी कीर्ति के निमित्त सत्यलक्षणयुक्त वेदवाणी से उत्तम जन्म अथवा सब पदार्थों से अच्छी-अच्छी विद्या प्रकाशित होती हैं। वे सब विद्वानों के स्वीकार करने योग्य हैं। इस मन्त्र में (नमः) और (यज्ञ) ये दोनों पद पूर्व मन्त्र से लिये हैं॥२०॥