यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २/मन्त्रः ३४

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अध्यायः २
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २


ऊर्जमित्यस्यर्षिः स एव। आपो देवता। भुरिगुष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः॥

एते पितरः केन केन पदार्थेन सत्कर्त्तव्या इत्युपदिश्यते॥

उक्त पितर कौन-कौन पदार्थों से सत्कार करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

 

ऊर्जं॒ वह॑न्तीर॒मृतं॑ घृ॒तं पयः॑ की॒लालं॑ परि॒स्रु॑तम्। स्व॒धा स्थ॑ त॒र्पय॑त मे पि॒तॄन्॥३४॥

पदपाठः— ऊर्ज॑म्। वह॑न्तीः। अ॒मृत॑म्। घृ॒तम्। पयः॑। की॒लाल॑म्। प॒रि॒स्रुत॒मिति॑ परि॒ऽस्रुत॑म्। स्व॒धाः। स्थ॒। त॒र्पय॑त। मे॒। पि॒तॄन्॥३४॥

पदार्थः— (ऊर्जम्) इष्टं विविधं रसम्। ऊर्ग्रसः (शत॰१.५.४.२) (वहन्तीः) प्रापयन्तीः स्वादिष्ठा आपः (अमृतम्) सर्वरोगहरं सुरसं मिष्टादिकम् (घृतम्) आज्यम् (पयः) दुग्धम् (कीलालम्) सुंसंस्कृतमन्नम्। कीलालं इत्यन्ननामसु पठितम् (निघं॰२.७) (परिस्रुतम्) परितः सर्वतः स्रुतं सुरसयोगेन परिपक्वं फलादिकम् (स्वधाः) ये स्वमेव दधते ते (स्थ) सर्वे पितृसेविनो भवत (तर्पयत) सुखयत (मे) मम (पितॄन्) पूर्वोक्तान्॥३४॥

अन्वयः— हे पुत्रादयो! यूयं मे मम पितॄनूर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्रुतं दत्त्वा तर्पयतैवं तत्सेवनेन विद्याः प्राप्य स्वधाः स्थ परस्वत्यागेन सदा स्वसेविनो भवत॥३४॥

भावार्थः— ईश्वर आज्ञापयति। मनुष्याः सर्वान् पुत्रप्रभृतीन् प्रत्येवमादिशन्तु युष्माभिर्मम पितरो जनका विद्याप्रदाश्च प्रीत्या नित्यं सेवनीयाः। यथा तैर्बाल्यावस्थायां विद्याप्रदानसमये च वयं यूयं च पालितास्तथैवास्माभिरपि ते सर्वदा सर्वथा सत्कर्त्तव्याः। यतो नैवाऽस्माकं मध्ये कदाचिद्विद्यानाशकृतघ्नतादोषौ भवेतामिति॥३४॥

ईश्वरेण यद्यदस्मिन्नध्याये वेद्यादिरचनं, यज्ञस्य फलगमनसाधकानि सामग्रीधारणम्, अग्नेर्दूतत्वप्रकाशनम्, आत्मेन्द्रियादिशोधनं, सुखभोगो, वेदप्रकाशनं, पुरुषार्थसाधनं, युद्धे विजयकरणं, शत्रुनिवारणं, द्वेषत्यागोऽग्न्यादीनां यानेषु योजनं, पृथिव्यादिभ्य उपकारग्रहणम्, ईश्वरे प्रीतिर्दिव्यगुणविस्तरणं, सर्वरक्षणं, वेदशब्दार्थवर्णनं, वाय्वग्न्यादीनां परस्परमेलनं, पुरुषार्थग्रहणम्, उत्तमानां पदार्थानां स्वीकरणं, त्रिषु लोकेषु यज्ञाहुतद्रव्यस्य गमनं, पुनस्तस्मादागमनं, स्वयंभूशब्दार्थवर्णनं, गृहस्थकृत्यं, सत्याचरणम्, अग्नौ होमो, दुष्टानां निवारणं, पितणां सेवनं चोक्तं तत्तन्मनुष्यैः संप्रीत्या सेवनीयमिति प्रथमाध्यायार्थेन सहास्य द्वितीयाध्यायार्थस्य संगतिरस्तीति वेद्यम्॥३४॥

पदार्थः— हे पुत्रादिको! तुम (मे) मेरे (पितॄन्) पूर्वोक्त गुण वाले पितरों को (ऊर्जम्) अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रस (वहन्तीः) सुख प्राप्त करने वाले स्वादिष्ट जल (अमृतम्) सब रोगों को दूर करने वाले ओषधि मिष्टादि पदार्थ (पयः) दूध (घृतम्) घी (कीलालम्) उत्तम-उत्तम रीति से पकाया हुआ अन्न तथा (परिस्रुतम्) रस से चूते हुए पके फलों को देके (तर्पयत) तृप्त करो। इस प्रकार तुम उनके सेवन से विद्या को प्राप्त होकर (स्वधाः) परधन का त्याग करके अपने धन के सेवन करने वाले (स्थ) होओ॥३४॥

भावार्थः— ईश्वर आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को पुत्र और नौकर आदि को आज्ञा देके कहना चाहिये कि तुम को हमारे पितर अर्थात् पिता-माता आदि वा विद्या के देने वाले प्रीति से सेवा करने योग्य हैं। जैसे कि उन्होंने बाल्यावस्था वा विद्यादान के समय हम और तुम पाले हैं, वैसे हम लोगों को भी वे सब काल में सत्कार करने योग्य हैं, जिससे हम लोगों के बीच में विद्या का नाश और कृतघ्नता आदि दोष कभी न प्राप्त हों॥३४॥

ईश्वर ने इस दूसरे अध्याय में जो-जो वेदि आदि यज्ञ के साधनों का बनाना, यज्ञ का फल गमन वा साधन, सामग्री का धारण, अग्नि के दूतपन का प्रकाश, आत्मा और इन्द्रियादि पदार्थों की शुद्धि, सुखों का भोग, वेद का प्रकाश, पुरुषार्थ का सन्धान, युद्ध में शत्रुओं का जीतना, शत्रुओं का निवारण, द्वेष का त्याग, अग्नि आदि पदार्थों को सवारियों में युक्त करना, पृथिवी आदि पदार्थों से उपकार लेना, ईश्वर में प्रीति, अच्छे-अच्छे गुणों का विस्तार और सब की उन्नति करना, वेद शब्द के अर्थ का वर्णन, वायु और अग्नि आदि का परस्पर मिलाना, पुरुषार्थ का ग्रहण, उत्तम-उत्तम पदार्थों का स्वीकार करना, यज्ञ में होम किये हुए पदार्थों का तीनों लोक में जाना आना, स्वयंभू शब्द का वर्णन, गृहस्थों का कर्म, सत्य का आचरण, अग्नि में होम, दुष्टों का निवारण और जिन-जिन का सेवन करना कहा है, उन-उन का सेवन मनुष्यों को प्रीति के साथ करना अवश्य है। इस प्रकार से प्रथमाध्याय के अर्थ के साथ द्वितीयाध्याय के अर्थ की संगति जाननी चाहिए॥३४॥

इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्य श्रीयुतदयानन्दसरस्वतीस्वामिना सुविरचिते संस्कृतार्य्यभाषाविभूषिते यजुर्वेदभाष्ये द्वितीयोऽध्यायः सम्पूर्णः॥२॥