लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ६७
ययातिरुवाच।।
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णाः सर्वे श्रृण्वन्तु मे वचः।।
ज्येष्ठं प्रति यथा राज्यं न देयं मे कथंचन।। ६७.१ ।।
मम ज्येष्ठेन यदुना नियोगो नानुपालितः।।
प्रतिकूलमतिश्चैव न स पुत्रः सतां मतः।। ६७.२ ।।
मातापित्रोर्वचनकृत्सद्भिः पुत्रः प्रशस्यते।।
स पुत्रः पुत्रवद्यस्तु वर्तते मातृपितृषु।। ६७.३ ।।
यदुनाहमवज्ञातस्तथा तुर्वसुनापि च।।
द्रुह्येन चानुना चैव मय्यवज्ञा कृता भृशम्।। ६७.४ ।।
पुरुणा च कृतं वाक्यं मानितश्च विशेषतः।।
कनीयान्मम दायादो जरा येन धृता मम।। ६७.५ ।।
शुक्रेण मे समादिष्टा देवयान्याः कृते जरा।।
प्रार्थितेन पुनस्तेन जरा संचारिणी कृता।। ६७.६ ।।
शुक्रेण च वरो दत्तः काव्येनोशनसा क्वयम्।।
पुत्रो यस्त्वानुवर्तेत स ते राज्यधरस्त्विति।। ६७.७ ।।
भवंतोऽप्यनुजानंतु पूरू राज्येऽभिषिच्यते।।
प्रकृतय ऊचुः।।
यः पुत्रो गुणसंपन्नो मातापित्रोर्हितः सदा।। ६७.८ ।।
सर्वमर्हति कल्याणं कनीया नपि स प्रभुः।।
अर्हः पूरुरिदं राज्यं यः सुतो वाक्यकृत्तव।। ६७.९ ।।
वरदानेन शुक्रस्य न शक्यं कर्तुमन्यथा।।
सूत उवाच।।
एवं जानपदैस्तुष्टैरित्युक्तो नाहुषस्तदा।। ६७.१೦ ।।
अभिषिच्य ततो राज्यं पूरुं स सुतमात्मनः।।
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं पुत्रमादिशत्।। ६७.११ ।।
दक्षिणायामथो राजा यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयेत्।।
प्रतीच्यामुत्तरस्यां तु द्रुह्युं चानुं च तावुभौ।। ६७.१२ ।।
सप्तद्वीपां ययातिस्तु जित्वा पृथ्वीं ससागराम्।।
व्यभजच्च त्रिधा राज्यं पुत्रेभ्यो नाहुषस्तदा।। ६७.१३ ।।
पुत्रसंक्रामितश्रीस्तु हर्षनिर्भरमानसः।।
प्रीतिमानभवद्राजा भारमावेश्य बंधुषु।। ६७.१४ ।।
अत्र गाथा महाराज्ञा पुरा गीता ययातिना।।
याभिः प्रत्याहरेत्कामान्सर्वतोंगानि कूर्मवत्।। ६७.१५ ।।
ताभिरेव नरः श्रीमान्नान्यथा कर्मकोटिकृत्।।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।। ६७.१६ ।।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।। ६७.१७ ।।
नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्।।
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।। ६७.१८ ।।
कर्मण मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा।।
यदा परान्न बिभेति परे चास्मान्न बिभ्यति।। ६७.१९ ।।
यदा न निन्देन्न द्वोष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा।।
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।। ६७.२೦ ।।
योसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यांति जीर्यतः।। ६७.२१ ।।
चक्षुः श्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका निरुपद्रवा।।
जीर्यंति देहिनः सर्वे स्वभावादेव नान्यथा।। ६७.२२ ।।
जीविताशा धनाशा च जीयतोपि न जीर्यते।।
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।। ६७.२३ ।।
तृष्णाक्षयसुखस्यैतत्कलां नार्हति षोडशीम्।।
एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद्वनम्।। ६७.२४ ।।
भृगुतुंगे तपस्ते वा तत्रैव च महायशाः।।
साधयित्वा त्वनशनं सदारः स्वर्गमाप्तवान्।। ६७.२५ ।।
तस्य वंशास्तु पंचैते पुण्या देवर्षिसत्कृताः।।
यैर्व्याप्ता पृथिवी कृत्स्ना सूर्यस्येव मरीचिभिः।। ६७.२६ ।।
धनी प्रजावानायुष्मान्कीर्तिमांश्च भवेन्नरः।।
ययातिचरितं पुण्यं पठञ्छृण्वंश्च बुद्धिमान्।। ६७.२७ ।।
सर्वपाप विनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते।। ६७.२८ ।।
इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे सोमवंशे ययातिचरितं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। ६७ ।।