1. अध्यायः १
  2. अध्यायः २
  3. अध्यायः ३
  4. अध्यायः ४
  5. अध्यायः ५
  6. अध्यायः ६
  7. अध्यायः ७
  8. अध्यायः ८
  9. अध्यायः ९
  10. अध्यायः १०
  11. अध्यायः ११
  12. अध्यायः १२
  13. अध्यायः १३
  14. अध्यायः १४
  15. अध्यायः १५
  16. अध्यायः १६
  17. अध्यायः १७
  18. अध्यायः १८
  19. अध्यायः १९
  20. अध्यायः २०
  21. अध्यायः २१
  22. अध्यायः २२
  23. अध्यायः २३
  24. अध्यायः २४
  25. अध्यायः २५
  26. अध्यायः २६
  27. अध्यायः २७
  28. अध्यायः २८
  29. अध्यायः २९
  30. अध्यायः ३०
  31. अध्यायः ३१
  32. अध्यायः ३२
  33. अध्यायः ३३
  34. अध्यायः ३४
  35. अध्यायः ३५
  36. अध्यायः ३६
  37. अध्यायः ३७
  38. अध्यायः ३८
  39. अध्यायः ३९
  40. अध्यायः ४०
  41. अध्यायः ४१
  42. अध्यायः ४२
  43. अध्यायः ४३
  44. अध्यायः ४४
  45. अध्यायः ४५
  46. अध्यायः ४६
  47. अध्यायः ४७
  48. अध्यायः ४८
  49. अध्यायः ४९
  50. अध्यायः ५०
  51. अध्यायः ५१
  52. अध्यायः ५२
  53. अध्यायः ५३
  54. अध्यायः ५४
  55. अध्यायः ५५
  56. अध्यायः ५६
  57. अध्यायः ५७
  58. अध्यायः ५८
  59. अध्यायः ५९
  60. अध्यायः ६०
  61. अध्यायः ६१
  62. अध्यायः ६२
  63. अध्यायः ६३
  64. अध्यायः ६४
  65. अध्यायः ६५
  66. अध्यायः ६६
  67. अध्यायः ६७
  68. अध्यायः ६८
  69. अध्यायः ६९
  70. अध्यायः ७०
  71. अध्यायः ७१
  72. अध्यायः ७२
  73. अध्यायः ७३
  74. अध्यायः ७४
  75. अध्यायः ७५
  76. अध्यायः ७६
  77. अध्यायः ७७
  78. अध्यायः ७८
  79. अध्यायः ७९
  80. अध्यायः ८०
  81. अध्यायः ८१
  82. अध्यायः ८२
  83. अध्यायः ८३
  84. अध्यायः ८४
  85. अध्यायः ८५
  86. अध्यायः ८६
  87. अध्यायः ८७
  88. अध्यायः ८८
  89. अध्यायः ८९
  90. अध्यायः ९०
  91. अध्यायः ९१
  92. अध्यायः ९२
  93. अध्यायः ९३
  94. अध्यायः ९४
  95. अध्यायः ९५
  96. अध्यायः ९६
  97. अध्यायः ९७
  98. अध्यायः ९८
  99. अध्यायः ९९
  100. अध्यायः १००
  101. अध्यायः १०१
  102. अध्यायः १०२
  103. अध्यायः १०३
  104. अध्यायः १०४
  105. अध्यायः १०५
  106. अध्यायः १०६
  107. अध्यायः १०७
  108. अध्यायः १०८

सूत उवाच।।
लिंगानि कल्पयित्वैवं स्वाधिकारानुरूपतः।।
विश्वकर्मा ददौ तेषां नियोगाद्ब्रह्मणः प्रभोः।। ७४.१ ।।

इन्द्रनीलमयं लिंगं विष्णुना पूजितं सदा।।
पद्मरागमयं शक्रो हैमं विश्रवसः सुतः।। ७४.२ ।।

विश्वेदेवास्तथा रौप्यं वसवः कांतिकं शुभम्।।
आरकूटमयं वायुरश्विनौ पार्थिवं सदा।। ७४.३ ।।

स्फाटिकं वरुणो राजा आदित्यास्ताम्रनिर्मितम्।।
मौक्तिकं सोमराड् धीमांस्तथा लिंगमनुत्तमम्।। ७४.४ ।।

अनंताद्या महानागाः प्रवालकमयं शुभम्।।
दैत्य ह्योयमयं लिगं राक्षसाश्च महात्मनः।। ७४.५ ।।

त्रैलोहिकं गुह्यकाश्च सर्वलोहमयं गणाः।।
चामुंडा सैकतं साक्षान्मातरश्च द्विजोत्तमाः।। ७४.६ ।।

दारुजं नैर्ऋतिर्भक्त्या यमो मारकतं शुभम्।।
नीलाद्याश्च तथा रुद्राः शुद्धं भस्ममयं शुभम्।। ७४.७ ।।

लक्ष्मीवृक्षमयं लक्ष्मीर्गुहो वै गोमयात्मकम्।।
मुनयो मुनिसार्दूलाः कुशाग्रमयमुत्तमम्।। ७४.८ ।।

वामाद्याः पुष्पलिंगं तु गंधलिंगं मनोन्मनी।।
सरस्वती च रत्नेन कृतं रुद्रस्य वाम्भसा।। ७४.९ ।।

दुर्गा हैमं महादेवं सवेदिकमनुत्तमम्।।
उग्रा पिष्टमयं सर्वे मंत्रा ह्याज्यमयं शुभम्।। ७४.१೦ ।।

वेदाः सर्वे दधिमयं पिशाचाः सीसनिर्मितम्।।
लेभिरे च यथायोग्यं प्रसादाद्ब्रह्मणः पदम्।। ७४.११ ।।

बहुनात्र किमुक्तेन चराचरमिदं जगत्।।
शिवलिंगं समभ्यर्च्य स्थितमत्र न संशयः।। ७४.१२ ।।

षड्विधं लिंगमित्याहुर्द्रव्याणां च प्रभेदतः।।
तेषां भेदाश्चतुर्युक्तचत्वारिंशदिति स्मृताः।। ७४.१३ ।।

शैलजं प्रथमं प्रोक्तं तद्धि साक्षाच्चतुर्विधम्।।
द्वितीयं रत्नजं तच्च सप्तधा मुनिसत्तमाः।। ७४.१४ ।।

तृतीयं धातुजं लिंगमष्टधा परमेष्ठिनः।।
तुरीयं दारुजं लिंगं तत्तु षोडशधोच्यते।। ७४.१५ ।।

मृन्मयं पंचमं लिंगं द्विधा भिन्नं द्विजोत्तमाः।।
षष्ठं तु क्षणिकं लिंगं सप्तधा परिकीर्तितम्।। ७४.१६ ।।

श्रीप्रद रत्नजं लिंगं शैलजं सर्वसिद्धिदम्।।
धातुजं धनदं साक्षाद्दारुजं भोगसिद्धिदम्।। ७४.१७ ।।

मृन्मयं चैव विप्रेंद्राः सर्वसिद्धिकरं शुभम्।।
शैलजं चोत्तमं प्रोक्तं मध्यमं चैव धातुजम्।। ७४.१८ ।।

बहुधा लिंगभेजाश्च नव चैव समासतः।।
मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः।। ७४.१९ ।।

रुद्रोपरि महादेवः प्रमवाख्यः सदाशिवः।।
लिंगवेदी महादेवी त्रिगुणा त्रिमयांबिका।। ७४.२೦ ।।

तया च पूजयेद्यस्तु देवी देवश्च पूजितौ।।
शैलजं रत्नजं वापि धातुजं वापि दारुजम्।। ७४.२१ ।।

मृन्मयं क्षणिकं वापि भक्त्या स्थाप्य फलं शुभम्।।
सुरेंद्रांभोजगर्भाग्नियमांबुपधनेश्वरैः।। ७४.२२ ।।

सिद्धविद्याधराहीन्द्रैर्यक्षदानवकिन्नरैः।।
स्तूयमानः सुपुण्यात्मा देवदुंदुभिनिःस्वनैः।। ७४.२३ ।।

भूर्भूवःस्वर्महर्लोकान्क्रमाद्वैजनतः परम्।।
तपः सत्यं पराक्रम्य भासयन् स्वेन तेजसा।। ७४.२४ ।।

लिंगस्थापनसन्मार्गनिहितस्वायतासिना।।
आशु ब्रह्मांडमुद्भिद्यनिर्गच्छन्निर्विशंकया।। ७४.२५ ।।

शैलजं रत्नजं वापि धातुजं वापि दारुजम्।।
मृन्मयं क्षणिकं त्यक्त्वा स्थापयेत्सकलं वपुः।। ७४.२६ ।।

विधिना चैव कृत्वा तु स्कंदोमासहितं शुभम्।।
कुंदगोक्षीरसंकाशं लिंगं यः स्थापयेन्नरः।। ७४.२७ ।।

नृणां तनुं समास्थाय स्थितो रुद्रो न संशयः।।
दर्शनात्स्पर्शनात्तस्य लभंते निर्वृतिं नराः।। ७४.२८ ।।

तस्य पुण्यं मया वक्तुं सम्यग्युगशतैरपि।।
शक्यते नैव विप्रेंदास्तस्माद्वै स्तापयेत्तथा।। ७४.२९ ।।

सर्वेषामेव मर्त्यानां विभोर्दिव्यं वपुः शुभम्।।
सकलं भावनायोग्यं योगिनामेव निष्कलम्।। ७४.३೦ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे शिवलिंगभेदसंस्थापनादिवर्णनंनाम चतुःसप्ततितमोध्यायः।। ७४ ।।