1. अध्यायः १
  2. अध्यायः २
  3. अध्यायः ३
  4. अध्यायः ४
  5. अध्यायः ५
  6. अध्यायः ६
  7. अध्यायः ७
  8. अध्यायः ८
  9. अध्यायः ९
  10. अध्यायः १०
  11. अध्यायः ११
  12. अध्यायः १२
  13. अध्यायः १३
  14. अध्यायः १४
  15. अध्यायः १५
  16. अध्यायः १६
  17. अध्यायः १७
  18. अध्यायः १८
  19. अध्यायः १९
  20. अध्यायः २०
  21. अध्यायः २१
  22. अध्यायः २२
  23. अध्यायः २३
  24. अध्यायः २४
  25. अध्यायः २५
  26. अध्यायः २६
  27. अध्यायः २७
  28. अध्यायः २८
  29. अध्यायः २९
  30. अध्यायः ३०
  31. अध्यायः ३१
  32. अध्यायः ३२
  33. अध्यायः ३३
  34. अध्यायः ३४
  35. अध्यायः ३५
  36. अध्यायः ३६
  37. अध्यायः ३७
  38. अध्यायः ३८
  39. अध्यायः ३९
  40. अध्यायः ४०
  41. अध्यायः ४१
  42. अध्यायः ४२
  43. अध्यायः ४३
  44. अध्यायः ४४
  45. अध्यायः ४५
  46. अध्यायः ४६
  47. अध्यायः ४७
  48. अध्यायः ४८
  49. अध्यायः ४९
  50. अध्यायः ५०
  51. अध्यायः ५१
  52. अध्यायः ५२
  53. अध्यायः ५३
  54. अध्यायः ५४
  55. अध्यायः ५५
  56. अध्यायः ५६
  57. अध्यायः ५७
  58. अध्यायः ५८
  59. अध्यायः ५९
  60. अध्यायः ६०
  61. अध्यायः ६१
  62. अध्यायः ६२
  63. अध्यायः ६३
  64. अध्यायः ६४
  65. अध्यायः ६५
  66. अध्यायः ६६
  67. अध्यायः ६७
  68. अध्यायः ६८
  69. अध्यायः ६९
  70. अध्यायः ७०
  71. अध्यायः ७१
  72. अध्यायः ७२
  73. अध्यायः ७३
  74. अध्यायः ७४
  75. अध्यायः ७५
  76. अध्यायः ७६
  77. अध्यायः ७७
  78. अध्यायः ७८
  79. अध्यायः ७९
  80. अध्यायः ८०
  81. अध्यायः ८१
  82. अध्यायः ८२
  83. अध्यायः ८३
  84. अध्यायः ८४
  85. अध्यायः ८५
  86. अध्यायः ८६
  87. अध्यायः ८७
  88. अध्यायः ८८
  89. अध्यायः ८९
  90. अध्यायः ९०
  91. अध्यायः ९१
  92. अध्यायः ९२
  93. अध्यायः ९३
  94. अध्यायः ९४
  95. अध्यायः ९५
  96. अध्यायः ९६
  97. अध्यायः ९७
  98. अध्यायः ९८
  99. अध्यायः ९९
  100. अध्यायः १००
  101. अध्यायः १०१
  102. अध्यायः १०२
  103. अध्यायः १०३
  104. अध्यायः १०४
  105. अध्यायः १०५
  106. अध्यायः १०६
  107. अध्यायः १०७
  108. अध्यायः १०८

ऋषय ऊचुः।।
कथं देवो महादेवो विश्वसंहारकारकः।।
शरभाख्यं महाघोरं विकृतं रूपमास्थितः।। ९६.१ ।।

किंकिं धैर्यं कृतं तेन ब्रूहि सर्वलमशेषतः।।
सूत उवाच।।
एवमभ्यर्थितो देवैर्मतिं चक्रे कृपालयः।। ९६.२ ।।

यत्तेजस्तु नृसिंहाख्यं संहर्त्तु परमेश्वरः।।
तदर्थं स्मृतवान् रुद्रोवीरभद्रं महाबलम्।। ९६.३ ।।

आत्मनो भैरवं रूपं महाप्रलयकारकम्।।
आजगाम पुरा सद्यो गणानामग्रतो हसन्।। ९६.४ ।।

साट्टहासैर्गणवरैरुत्पतद्भिरितस्ततः।।
नृसिंहरूपैरत्युग्रैः कोटिभिः परिवारितः।। ९६.५ ।।

तावद्बिरभितो वीरैर्नृत्यद्भिश्च मुदान्वितैः।।
क्रीडद्भिश्च महाधीरैर्ब्रह्माद्यैः कुंदुकैरिव।। ९६.६ ।।

अदृष्टपूर्वैरन्यैश्च वेष्टितो वीरवंदितः।।
कल्पांतज्वलनज्वालो विलसल्लोचनत्रयः।। ९६.७ ।।

आत्तशस्त्रो जटाजूटे ज्वलद्बालेन्दुमंडितः।।
बालेंदुद्वितयाकारतीक्ष्णदंष्ट्रांकुरद्वयः।। ९६.८ ।।

आखंडलधनुःखंडसंनिभभ्रूलतायुतः।।
महाप्रचंडहुंकारबधिरीकृतदिङ्मुखः।। ९६.९ ।।

नीलमेघांजनाकारभीषणश्मश्रुरद्भुतः।।
वादखंडमखंडाभ्यां भ्रामयंस्त्रिशिखं मुहुः।। ९६.१० ।।

वीरभद्रोपि भगवान् वीरशक्तिविजृंभितः।।
स्वयं विज्ञापयामास किमत्र स्मृतिकारणम्।। ९६.११ ।।

आज्ञापय जगत्स्वामिन् प्रसादः क्रियतां मयि।।
श्रीभगवानुवाच।।
अकाले भयमुत्पन्नं देवानामपि भैरव।। ९६.१२ ।।

ज्वलितः स नृसिंहाग्निः शमयैनं दुरासदम्।।
सांत्वयन् बोधयादौ तं तेन किं नोपशाम्यति।। ९६.१३ ।।

ततो मत्परमं भावं भैरवं संप्रदर्शय।।
सूक्ष्मं सूक्ष्मेण संहृत्य स्थूलं स्थूलेन तेजसा।। ९६.१४ ।।

वक्त्रमानय कृत्तिं च वीरभद्र ममाज्ञया।।
इत्यादिष्टो गणाध्यक्षः प्रशांतवपुरास्थितः।। ९६.१५ ।।

जगाम रंहसा तत्र यत्रास्ते नरकेसरी।।
ततस्तं बोधयामास वीरभद्रो हरो हरिम्।। ९६.१६ ।।

उवाच वाक्यमीशानः पितापुत्रमिवौरसम्।।
श्रीवीरभद्र उवाच।।
जगत्सुखाय भगवन्नवतीर्णोसि माधव।। ९६.१७ ।।

स्थित्यर्थेन च युक्तेसिपरेण परमेष्ठिना।।
जंतुचक्रं भगवता रक्षितं मत्स्यरूपिणा।। ९६.१८ ।।

पुच्छेनैव समाबध्य भ्रमन्नेकार्णवे पुरा।।
बिभर्षि कूर्मरूपेण वाराहेणोद्धृता मही।। ९६.१९ ।।

अनेन हरिरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः।।
वामनेन बलिर्बद्धस्त्वया विक्रमता पुनः।। ९६.२० ।।

त्वमेव सर्वभूतानां प्रभावः प्रभुरव्ययः।।
यदायदा हि लोकस्य दुःखं किंचित्प्रजायते।। ९६.२१ ।।

तदातदावतीर्णस्त्वं करिष्यसि निरामयम्।।
नाधिकस्त्वत्समोप्यस्तिहरे शिवपरायण।। ९६.२२ ।।

त्वया धर्माश्च वेदाश्च शुभे मार्गे प्रतिष्ठिताः।।
यदर्थमवतारोयं निहतः सोपि केशव।। ९६.२३ ।।

अत्यंतघोरं भगवन्नरसिंह वपुस्तव।।
उपसंहर विश्वात्मंस्त्वमेव मम सन्निधौ।। ९६.२४ ।।

सूत उवाच।।
इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः शांतया गिरा।।
ततोधिकं महाघोरं कोपं प्रज्वालयद्धरिः।। ९६.२५ ।।

श्रीनृसिंह उवाच।।
आगतोसि यतस्तत्र गच्छ त्वं मा हितं वद।।
इदानीं संहरिष्यामि जगदेतच्चराचरम्।। ९६.२६ ।।

संहर्त्तुर्न हि संहारः स्वतो वा परतोपि वा।।
शासितं मम सर्वत्र शास्ता कोपि न विद्यते।। ९६.२७ ।।

मत्प्रसादेन सकलं समर्यादं प्रवर्तते।।
अहं हि सर्वशक्तीनां प्रवर्तकनिवर्त्तकः।। ९६.२८ ।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।।
तत्तद्विद्धि गणाध्यक्ष मम तेजोविजृंभितम्।। ९६.२९ ।।

देवतापरमार्थज्ञा ममैव परमं विदुः।।
मदंशाः शक्तिसंपन्ना ब्रह्मशक्रादयः सुराः।। ९६.३० ।।

मन्नाभिपंकजाज्जातः पुरा ब्रह्मा चतुर्मुखः।।
तल्ललाटसमुत्पन्नो भगवान्वृषभध्वजः।। ९६.३१ ।।

रजसाधिष्ठितः स्रष्टा रुद्रस्तामस उच्यते।।
अहं नियंता सर्वस्य मत्परं नास्ति दैवतम्।। ९६.३२ ।।

विश्वाधिकः स्वतंत्रश्च कर्ता हर्ताखिलेश्वरः।।
इदं तु मत्परं तेजः कः पुनः श्रोतुमिच्छति।। ९६.३३ ।।

अतो मां शरणं प्राप्य गच्छ त्वं विगतज्वरः।।
अवेहि परमं भावमिदं भूतमहेश्वरः।। ९६.३४ ।।

कालेस्म्यहं कालविनाशहेतुर्लोकान् समाहर्त्तुमहं प्रवृत्तः।।
मृत्योर्मृत्युं विद्धि मां वीरभद्र जीवंत्येते मत्प्रसादेन देवाः।। ९६.३५ ।।

सूत उवाच।।
साहंकारमिदं श्रुत्वा हरेरमितविक्रमः।।
विहस्योवाच सावज्ञं ततो विस्फुरिताधरः।। ९६.३६ ।।

श्रीवीरभद्र उवाच।।
किं न जानासि विश्वेशं संहर्तारं पिनाकिनम्।।
असद्वादो विवादश्च विनाशस्त्वयि केवलः।। ९६.३७ ।।

तवान्योन्यावताराणि कानि शेषाणि सांप्रतम्।।
कृतानियेन केनापि कथाशेषो भविष्यति।। ९६.३८ ।।

दोषं त्वं पश्य एतत्त्वमवस्थामीदृशीं गतः।।
तेन संहारदक्षेण क्षणात्संक्षयमेष्यसि।। ९६.३९ ।।

प्रकृतिस्त्वं पुमान् रुद्रस्त्वयि वीर्यं समाहितम्।।
त्वन्नाभिपंकजाज्जातः पंचवक्त्रः पितामहः।। ९६.४० ।।

सृष्ट्यर्थेन जगत्पूर्वं शंकरं नीललोहितम्।।
ललाटे चिंतयामास तपस्युग्रे व्यवस्थितः।। ९६.४१ ।।

तल्ललाटादभूच्छंभोः सृष्ट्यर्थं तन्न दूषणम्।।
अंशोहं देवदेवस्य महाभैरवरूपिणः।। ९६.४२ ।।

त्वत्संहारे नियुक्तोस्मि विनयेन बलेन च।।
एवं रक्षो विदार्यैव त्वं शक्तिकलया युतः।। ९६.४३ ।।

अहंकारावलेपेन गर्जसि त्वमतंद्रितः।।
उपकारो ह्यसाधूनामपकाराय केवलम्।। ९६.४४ ।।

यदि सिंह महेशानं स्वपुनर्भूत मन्यसे।।
न त्वं स्रष्टा न संहर्ता न स्वतंत्रो हि कुत्रचित्।। ९६.४५ ।।

कुलालचक्रवच्छक्त्या प्रेरितोसि पिनाकिना।।
अद्यापि तव निक्षिप्तं कपालं कूर्मरूपिणः।। ९६.४६ ।।

हरहारलतामध्ये मुग्ध कस्मान्न बुध्यसे।।
विस्मृतं किं तदंशेन दंष्ट्रोत्पातनपीडितः।। ९६.४७ ।।

वाराहविग्रहस्तेऽद्य साक्रोशं तारकारिणा।।
दग्धोसि यस्य शूलाग्रे विष्वक्सेनच्छलाद्भवान्।। ९६.४८ ।।

दक्षयज्ञे शिरश्छिन्नं मया ते यज्ञरूपिणः।।
अद्यापि तव पुत्रस्य ब्रह्मणः पंचमंशिरः।। ९६.४९ ।।

छिन्नं तमेनाभिसंधं तदंशं तस्य तद्वलम्।।
निर्जितस्त्वं दधीचेन संग्रामे समरुद्गणः।। ९६.५० ।।

कंडूयमाने शिरसि कथं तद्विस्मृतं त्वया।।
चक्रं विक्रमतो यस्य चक्रपाणे तव प्रियम्।। ९६.५१ ।।

कुतः प्राप्तं कृतं केन त्वया तदपि विस्मृतम्।।
ते मया सकला लोका गृहीतास्त्वं पयोनिधौ।। ९६.५२ ।।

निद्रापरवशः शेषे स कथं सात्त्विको भवान्।।
त्वदादिस्तंबपर्यंतं रुद्रशक्तिविजृंभितम्।। ९६.५३ ।।

शक्तिमानभितस्त्वं च ह्यनलस्त्वं च मोहितः।।
तत्तेजसोपि महात्म्यं युवां द्रष्टुं न हि क्षमौ।। ९६.५४ ।।

स्थूला ये हि प्रपश्यंति तद्विष्णोः परमं पदम्।।
द्यावापृथिव्या इंद्राग्नियमस्य वरुणस्य च।। ९६.५५ ।।

ध्वांतोदरे शशांकस्य जनित्वा परमेश्वरः।।
कालोसि त्वं महाकालः कालकालो महेश्वरः।। ९६.५६ ।।

अतस्त्वमुग्रकलया मृत्योर्मृत्युर्भविष्यसि।।
स्थिरधन्वा क्षयो वीरो वीरो विश्वाधिकः प्रभुः।। ९६.५७ ।।

उपहस्ता ज्वरं भीमो मृगपक्षिहिरण्मयः।।
शास्ताशेषस्य जगतो न त्वं नैवचतुर्मुखः।। ९६.५८ ।।

इत्थं सर्वं समालोक्य संहारात्मानमात्मना।।
नो चेदिदानीं क्रोधस्य महाभैरवरूपिणः।। ९६.५९ ।।

वज्राशनिरिव स्थाणोस्त्वेवं मृत्युः पतिष्यति।।
सूत उवाच।।
इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः क्रोधविह्वलः।। ९६.६० ।।

ननाद तनुवेगेन तं गृहीतुं प्रचक्रमे।।
अत्रांतरे महाघोरं विपक्षभयकारणम्।। ९६.६१ ।।

गगनव्यापि दुर्धर्षशैववतेजः समुद्भवम्।।
वीरभद्रस्य तद्रूपं तत्क्षणादेव दृश्यते।। ९६.६२ ।।

न तद्धिरण्मयं सौम्यं न सौरं नाग्निसंभवम्।।
न तडिच्चंद्रसदृशमनौपम्यं महेश्वरम्।। ९६ ६३ ।।

तदा तेजांसि सर्वाणि तस्मिन् लीनानि शांकरे।।
ततोव्यक्तो महातेजा व्यक्ते संभवतस्ततः।। ९६.६४ ।।

रुद्रसाधारणं चैव चिह्नित विकृताकृति।।
ततः संहारूपेण सुव्यक्तः परमेश्वरः।। ९६.६५ ।।

पश्यतां सर्वदेवानां जयशब्दादिमंगलैः।।
सहस्रबाहुर्जटिलश्चंद्रार्धकृतशेखरः।। ९६.६६ ।।

स मृगार्धशरीरेण पक्षाभ्यां चंचुना द्विजाः।।
अतितीक्ष्णमहादंष्ट्रो वज्रतुल्यनखायुधः।। ९६.६७ ।।

कंठे कालो महाबाहुश्चतुष्पाद्वह्निसंभवः।।
युगांतोद्यतजीमूतभीमगंभीरनिःस्वनः।। ९६.६८ ।।

समं कुपितवृत्ताग्निव्यावृत्तनयनत्रयः।।
स्पष्टदंष्ट्रोधरोष्ठश्च हुंकारेण युतो हरः।। ९६.६९ ।।

हरिस्तद्दर्शनादेव विनष्टबलविक्रमः।।
बिभ्रदौर्म्यं सहस्रांशोरधः खद्योतविभ्रमम्।। ९६.७० ।।

अथ विभ्रम्य पक्षाभ्यां नाभिपादेभ्युदारयन्।।
पादावाबध्य पुच्छेन बाहुभ्यां बाहुमंडलम्।। ९६.७१ ।।

भिन्दन्नुरसि बाहुभ्यां निजग्राह हरो हरिम्।।
ततो जगाम गगनं देवैः सह महर्षिभिः।। ९६.७२ ।।

सहसैव भयाद्विष्णुं विहगश्च यथोरगम्।।
उत्क्षिप्योत्क्षिप्य संगृह्य निपात्य च निपात्य च।। ९६.७३ ।।

उड्डीयोड्डीय भगवान् पक्षाघातविमोहितम्।।
हरिं हरन्तं वृषभं विश्वेशानं तमीश्वरम्।। ९६.७४ ।।

अनुयांति सुराः सर्वे नमोवाक्येन तुष्टुवुः।।
नीयमानः परवशो दीनवक्त्रः कृतांजलिः।। ९६.७५ ।।

तुष्टाव परमेशानं हरिस्तं ललिताक्षरैः।।
श्रीनृसिंह उवाच।।
नमोरुद्राय शर्वाय महाग्रासाय विष्णवे।। ९६.७६ ।।

नम उग्राय भीमाय नमः क्रोधाय मन्यवे।।
नमो भवाय शर्वाय शंकराय शिवाय ते।। ९६.७७ ।।

कालकालाय कालाय महाकालाय मृत्यवे।।
वीराय वीरभद्राय क्षयद्वीराय शूलिने।। ९६.७८ ।।

महादेवाय महते पशूनां पतये नमः।।
एकाय नीलकंठाय श्रीकण्ठाय पिनाकिने।। ९६.७९ ।।

नमोनंताय सूक्ष्माय नमस्ते मृत्युमन्यवे।।
पराय परमेशाय परात्परतराय ते।। ९६.८० ।।

परात्पराय विश्वाय नमस्ते विश्वमूर्त्तये।।
नमो विष्णुकलत्राय विष्णुक्षेत्राय भानवे।। ९६.८१ ।।

कैवर्ताय किराताय महाव्याधाय शाश्वते।।
भैरवाय शरण्याय महाबैरवरूपिणे।। ९६.८२ ।।

नमो नृसिंहसंहर्त्रे कामकालपुरारये।।
महापाशौघसंहर्त्रे विष्णुमायांतकारिणे।। ९६.८३ ।।

त्र्यंबकाय त्र्यक्षराय शिपिविष्टाय मीढुषे।।
मृत्युंजयाय शर्वाय सर्वज्ञाय मखारये।। ९६.८४ ।।

मखेशाय वरेण्याय नमस्ते वह्निरूपिणे।।
महाघ्राणाय जिह्वाय प्राणापानप्रवर्त्तिने।। ९६.८५ ।।

त्रिगुणाय त्रिशूलाय गुणातीताय योगिने।।
संसाराय प्रवाहाय महायंत्रप्रवर्तिने।। ९६.८६ ।।

नमश्चंद्राग्निसूर्याय मुक्तिवैचित्र्यहेतवे।।
वरदायावताराय सर्वकारणहेतवे।। ९६.८७ ।।

कपालिने करालाय पतये पुण्यकीर्त्तये।।
अमोघायाग्निनेत्राय लकुलीशाय शंभवे।। ९६.८८ ।।

भिषक्तमाय मुंडाय दंडिने योगरूपिणे।।
मेघवाहाय देवाय पार्वतीपतये नमः।। ९६.८९ ।।

अव्यक्ताय विशोकाय स्थिराय स्थिरधन्विने।।
स्थाणवे कृत्तिवासाय नमः पंचार्थहेतवे।। ९६.९० ।।

वरदायैकपादाय नमश्चंद्रार्धमौलिने।।
नमस्तेऽध्वरराजाय वयसां पतये नमः।। ९६.९१ ।।

योगीश्वराय नित्याय सत्याय परमेष्ठिने।।
सर्वात्मने नमस्तुभ्यं नमः सर्वेश्वराय ते।। ९६.९२ ।।

एकद्वित्रिचतुः पंचकृत्वस्तेऽस्तु नमोनमः।।
दशकृत्वस्तु साहस्रकृत्वस्ते च नमोनमः।। ९६.९३ ।।

नमोपरिमितं कृत्वानंतकृत्वो नमोनमः।।
नमोनमो नमो भूयः पुनर्भूयो नमोनमः।। ९६.९४ ।।

सूत उवाच।।
नाम्नामष्टशतेनैवं स्तुत्वामृतमयेन तु।।
पुनस्तु पार्थयामास नृसिंहः शरभेश्वरम्।। ९६.९५ ।।

यदायदा ममाज्ञानमत्यहंकारदूषितम्।।
तदातदापनेतव्यं त्वयैव परमेश्वरः।। ९६.९६ ।।

एवं विज्ञापयन्प्रीतः शंकरं नरकेसरी।।
नन्वशक्तो भवान् विष्णो जीवितांतं पराजितः।। ९६.९७ ।।

तद्वक्त्रशेषमात्रांतं कृत्वा सर्वस्य विग्रहम्।।
शुक्तिशित्यं तदा मंगं वीरभद्रः क्षणात्ततः।। ९६.९८ ।।

देवा ऊचुः।।
अथ ब्रह्मादयः सर्वे वीरभद्रत्वया दृशा।।
जीविताः स्मो वयं देवाः पर्जन्येनेव पादपाः।। ९६.९९ ।।

यस्य भीषा दहत्याग्निरुदेति च रविः स्वयम्।।
वातो वाति च सोसित्वं मृत्युर्धावति पंचमः।। ९६.१०० ।।

यदव्यक्तं परं व्योम कलातीतं सदाशिवम्।।
भगवंस्त्वामेव भवं वदंति ब्रह्मवादिनः।। ९६.१०१ ।।

के वयमेव धातुक्ये वेदने परमेश्वरः।।
न विद्धि परमं धाम रूपलावण्यवर्णने।। ९६.१०२ ।।

उपसर्गेषु सर्वेषु त्रायस्वास्मान् गणाधिप।।
एकादशात्मन् भगवान्वर्तते रूपवान् हरः।। ९६.१०३ ।।

ईदृशान् तेऽवताराणि दृष्ट्वा शिव बहूंस्तमः।।
कदाचित्संदिहेन्नास्मांस्त्वच्चिन्तास्तमया तथा।। ९६.१०४ ।।

गुंजागिरिवरतटामितरूपाणि सर्वशः।।
अभ्यसंहर गम्यं ते न नीतव्यं परापरा।। ९६.१०५ ।।

द्वे तनू तव रुद्रस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।।
घोराप्यन्या शिवाप्यन्या ते प्रत्येकमनेकधा।। ९६.१०६ ।।

इहास्मान्पाहि भगवन्नित्याहतमहाबलः।।
भवता हि जगत्सर्वं व्याप्तं स्वेनैव तेजसा।। ९६.१०७ ।।

ब्रह्मविष्ण्वींद्रचंद्रादि वयं च प्रमुखाः सुराः।।
सुरासुराः संप्रसूतास्त्वत्तः सर्वे महेश्वर।। ९६.१०८ ।।

ब्रह्मा च इंद्रो विष्णुश्च यमाद्या न सुरासुरान्।।
ततो निगृह्य च हरिं सिंह इत्युपचेतसम्।। ९६.१०९ ।।

यतो बिभर्षि सकलं विभज्य तनुमष्टधा।।
अतोस्मान्पाहि भगवन्सुरादानैरभीप्सितैः।। ९६.११० ।।

उवाच तान् सुरान्देवो महर्षिश्च पुरातनान्।।
यथा जलं जलं क्षिप्तं क्षीरं क्षीरे घृतं घृते।। ९६.१११ ।।

एक एव तदा विष्णुः शिवलीनो न चान्यथा।।
एष एव नृसिंहात्मा सदर्पश्च महाबलः।। ९६.११२ ।।

जगत्संहारकारेण प्रवृत्तो नरकेसरी।।
याजनीयो नमस्तस्मै मद्भक्तिसिद्धिकांक्षिभिः।। ९६.११३ ।।

एतावदुक्त्वा भगवान्वीरभद्रो महाबलः।।
अपश्यन् सर्वभूतानां तत्रैवांतरधीयत।। ९६.११४ ।।

नृसिंहकृत्तिवसनस्तदाप्रभृति शंकरः।।
वक्त्रं तन्मुण्डमालायां नायकत्वेन कल्पितम्।। ९६.११५ ।।

ततो देवा निरातंकाः कीर्तयंतः कथामिमाम्।।
विस्मयोत्फुल्लनयना जम्मुः सर्वे यथागतम्।। ९६.११६ ।।

य इदं परमाख्यानं पुण्यं वेदैः समन्वितम्।।
पठित्वा श्रृणुते चैव सर्वदुःखविनाशनम्।। ९६.११७ ।।

धन्यं यशस्यमायुष्मारोग्यं पुष्टिवर्धनम्।।
सर्वविघ्नप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम्।। ९६.११८ ।।

अपमृत्युप्रशमनं महाशांतिकरं शुभम्।।
अरिचक्रप्रशमनं सर्वाधिप्रविनाशनम्।। ९६.११९ ।।

ततो दुःस्वप्नशमनं सर्वभूतनिवारणम्।।
विषग्रहक्षयकरं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्।। ९६.१२० ।।

योगसिद्धिप्रदं सम्यक्‌ शिवज्ञानप्रकाशकम्।।
शेषलोकस्य सोपानं वांछितार्थैकसाधनम्।। ९६.१२१ ।।

विष्णुमायानिरसनं देवतापरमार्थदम्।।
वांछसिद्धिप्रदं चैव ऋद्धिप्रज्ञादिसाधनम्।। ९६.१२२ ।।

इदं तु शरभाकारं परं रूपं पिनाकिनः।।
प्रकाशीतव्यं भक्तेषु चिरेषुद्यमितेषु च।। ९६.१२३ ।।

तैरेव पठितव्यं च श्रोतव्यं च शिवात्मभिः।।
शिवोत्सवेषु सर्वेषु चतुर्दश्यष्टमीषु च।। ९६.१२४ ।।

पठेत्प्रतिष्ठाकालेषु शिवसन्निधिकारणम्।।
चोरव्याघ्राहिसिंहांतकृतो राजभयेषु च।। ९६.१२५ ।।

अत्रान्योत्पातभूकंपदावाग्निपांसुवृष्टिषु।।
उल्कापाते महावाते विना वृष्ट्यातिवृष्टिषु।। ९६.१२६ ।।

अतस्तत्र पठेद्विद्वाञ्छिवभक्तो दृढव्रतः।।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स्तवं सर्वमनुत्तमम्।। ९६.१२७ ।।

स रुद्रत्वं समासाद्य रुद्रस्यानुचरो भवेत्।। ९६.१२८ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे शरभप्रादुर्भावो नाम षण्णवतितमोऽध्यायः।। ९६ ।।