महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-003
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द्रौणिना कृपवचनमनादृत्य कृपकृतवर्मणोः पुरतः निशि प्रसुप्तपाण्डुपाञ्चालहननप्रतिज्ञानम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 10-3-1x |
कृपस्य वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं शुभम्। अश्वत्थामा महाराज दुःखशोकसमन्वितः।। | 10-3-1a 10-3-1b |
दह्यमानस्तु शोकेन प्रदीप्तेनाग्निना यथा। क्रूरं मनस्ततः कृत्वा तावभौ प्रत्यभाषत।। | 10-3-2a 10-3-2b |
पुरुषेपुरुषे बुद्धिर्याया भवति शोभना। तुष्यन्ति च पृथक्सर्वे प्रज्ञया ते स्वयास्वया।। | 10-3-3a 10-3-3b |
सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम्। सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वोत्मानं प्रशंसति।। | 10-3-4a 10-3-4b |
सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता। परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत्।। | 10-3-5a 10-3-5b |
कारणान्तरयोगेन येषां संवदते मतिः। तेऽन्योन्येन च तुष्यन्ति बहुमन्यन्ति चासकृत्।। | 10-3-6a 10-3-6b |
तस्यैव तु मनुष्यस्य सासा बुद्धिस्तदातदा। कालयोगे विपर्यासं प्राप्यान्योन्यं विपद्यते।। | 10-3-7a 10-3-7b |
अनित्यत्वात्तु चित्तानां मनुष्याणां विशेषतः। चित्तवैक्लब्यमासाद्य सासा बुद्धिः प्रजायते।। | 10-3-8a 10-3-8b |
यथा हि वैद्यः कुशलो ज्ञात्वा व्याधिं यथाविधि। भैषज्यं कुरुते योगात्प्रशमार्थमिति प्रभो।। | 10-3-9a 10-3-9b |
एवं कार्यस्य योगात्प्रशमार्थमिति प्रभो।। प्रज्ञया च स्वया युक्त्या तां च गृह्णन्ति वै बुधाः।। | 10-3-10a 10-3-10b |
अन्यया यौवने बाल्ये बुद्ध्या भवति मोहितः। मध्येऽन्यया जरायां तु सोन्यां रोचयते मतिम्।। | 10-3-11a 10-3-11b |
व्यसन वा महाघोरं समृद्धिं चापि तादृशीम्। अवाप्य पुरुषो भोज कुरुते बुद्धिवैकृतम्।। | 10-3-12a 10-3-12b |
एकस्मिन्नेव पुरुषे सासा बुद्धिस्तदातदा। भवत्यनित्या प्रज्ञा हि सा तस्यैव न रोचते।। | 10-3-13a 10-3-13b |
निश्चित्य तु यथाप्रज्ञं यां मतिं साधु पश्यति। तया प्रकुरुते भावं सा तस्योद्योगकारिका।। | 10-3-14a 10-3-14b |
सर्वो हि पुरुषो भोज साध्वेतदिति निश्चितः। कर्तुमारभते प्रीतिं मरणादिषु कर्मसु।। | 10-3-15a 10-3-15b |
सर्वे हि युक्तां विज्ञाय प्रज्ञां वापि स्वकां नराः। चेष्टन्ते विविधां चेष्टां हितमित्येव जानते।। | 10-3-16a 10-3-16b |
उपजाता व्यसनजा येयमद्य मतिर्मम। युवयोस्तां प्रवक्ष्यामि सर्वेषां शोकनाशिनीम्।। | 10-3-17a 10-3-17b |
प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा कर्म तासु विधाय च। वर्णेवर्णे समाधत्त ह्येकैकं गुणवत्तरम्।। | 10-3-18a 10-3-18b |
ब्राह्मणे वेदमग्र्यं तु क्षत्रिये तेज उत्तमम्। दाक्ष्यं वैश्ये च शूद्रे च सर्ववर्णानुकूलताम्।। | 10-3-19a 10-3-19b |
अदान्तो ब्राह्मणोऽसाधुर्निस्तेजाः क्षत्रियो मृतः। अदक्षो निन्द्यते वैश्यः शूद्रश्च प्रतिकूलवान्।। | 10-3-20a 10-3-20b |
सोऽस्मि जातः कुले श्रेष्ठे ब्राह्मणैरभिपूजिते। मन्दभाग्यतयाऽस्म्येतं क्षत्रधर्ममनुष्ठितः।। | 10-3-21a 10-3-21b |
क्षत्रधर्मं विदित्वाऽहं यदि ब्राह्मण्यमाश्रितः। प्रकरिष्ये महत्कर्म न मे तत्साधुसम्मतम्।। | 10-3-22a 10-3-22b |
धारयित्वा धनुर्दिव्यं दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे। पितरं निहतं दृष्ट्वा किन्नु वक्ष्यामि संसदि।। | 10-3-23a 10-3-23b |
सोऽहमद्य यथाकामं क्षत्रधर्ममवाप्य च। गन्ताऽस्मि पदवीं राज्ञः पितुश्चापि महात्मनः।। | 10-3-24a 10-3-24b |
अद्य स्वप्स्यन्ति पाञ्चाला विश्वस्ता जितकाशिनः। विमुक्तयुग्यकवचा हर्षेण च समन्विताः। वयं जिता मताश्चैषां श्रान्ता व्यायामकर्शिताः।। | 10-3-25a 10-3-25b 10-3-25c |
तेषां निशि प्रसुप्तानां सुस्थानां शिबिरे स्वके। अवस्कन्दं करिष्यामि शिबिरस्याद्य दुष्करम्।। | 10-3-26a 10-3-26b |
तानवस्कन्द्य शिबिरे प्रेतभूतानचेतसः। सूदयिष्यामि विक्रम्य मघवानिव दानवान्।। | 10-3-27a 10-3-27b |
अद्य तान्सहितान्सर्वान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्। सूदयिष्यामि विक्रम्य कक्षं दीप्त इवानलः।। | 10-3-28a 10-3-28b |
निहत्य चैव पाञ्चालाञ्शान्तिं लब्धाऽस्मि सत्तम।। | 10-3-29a |
पाञ्चालेषु चरिष्यामि सूदयन्नद्य संयुगे। पिनाकपाणिः सङ्क्रुद्धः स्वयं रुद्रः पशुष्विव।। | 10-3-30a 10-3-30b |
अद्याहं सर्वपाञ्चालान्निकृत्या च निकृष्य च। अर्दयिष्यामि संहृष्टो रणे पाण्डुसुतांस्तथा। `सूदयिष्यामि सङ्क्रुद्धः पशूनिव पिनाकधृत्'।। | 10-3-31a 10-3-31b 10-3-31c |
अद्याहं सर्वपाञ्चालैः कृत्वा भूमिं शरीरिणीम्। प्रहृत्यैकेन शस्त्रेण भविष्याम्यनृणः पितुः।। | 10-3-32a 10-3-32b |
दुर्योधनस्य कर्णस्य भीष्मसैन्धवयोरपि। गमिष्यामि निशावेलां पदवीमद्य दुर्गमाम्।। | 10-3-33a 10-3-33b |
अद्य पाञ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नस्य वै निशि। विरात्रे प्रमथिष्यामि पशोरिव शिरो बलात्।। | 10-3-34a 10-3-34b |
अद्य पाञ्चालपाण्डूनां शयितानां शिरो निशि। खङ्गेन निशितेनाजौ प्रमथिष्यामि गौतम।। | 10-3-35a 10-3-35b |
अद्य पाञ्चालसेनां तां निहत्य निशि सौप्तिके। कृतकृत्यः सुखी चैव भविष्यामि महामते।। | 10-3-36a 10-3-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
10-3-4 सर्वोत्मानमित्यत्र सर्व आत्मानमिति च्छेदः। सन्धिरार्षः।। 10-3-6 योगे येषां समा गतिरिति झ.पाठः। तत्र योगे समुदाये इत्यर्थः।। 10-3-10 तां च निन्दन्ति मानवा इति झ.पाठः।। 10-3-12 हे भोज हे कृतवर्मन्। एकमेव सम्बोधयन् कृपस्य वचसि अनादरं सूचयति।। 10-3-13 भवत्यकृतवुद्धित्वादिति झ.पाठः। तत्र अकृतधर्मत्वात् अवसरानुरोधात्। इदानीं मम शान्तिबुद्धिर्न रोचते इत्यर्थः।। 10-3-20 क्षत्रियोऽधम इति झ.पाठः।। 10-3-22 विदित्वा आश्रित्य।। 10-3-24 गन्तास्मि गमिष्यामि। पदवीं आनृण्यम्।। 10-3-33 गमयिष्यामि पाञ्चालान्पदवीमद्य दुर्गमामिति झ.पाठः।। 10-3-3 तृतीयोऽध्यायः।।
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