महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-004
← सौप्तिकपर्व-003 | महाभारतम् दशमपर्व महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-004 वेदव्यासः |
सौप्तिकपर्व-005 → |
द्रौणिकृपयोः संवादः।। 1 ।।
कृप उवाच। | 10-4-1x |
दिष्ट्या ते प्रतिकर्तव्ये मतिर्जातेयमच्युत। न त्वां वारयितुं शक्तो वज्रपाणिरपि स्वयम्।। | 10-4-1a 10-4-1b |
अनुयास्यावहे त्वां तु प्रभाते सहितावुभौ। अद्य रात्रौ विश्रमस्व विमुक्तकवचध्वजः।। | 10-4-2a 10-4-2b |
अहं त्वामनुयास्यामि कृतवर्मा च सात्वतः। परानभिमुखं यान्तं रथावास्थाय दंशितौ।। | 10-4-3a 10-4-3b |
आवाभ्यां सहितः शत्रूञ्श्वो निहन्ता समागमे। विक्रम्य रथिनां श्रेष्ठ पाञ्चालान्सपदानुगान्।। | 10-4-4a 10-4-4b |
शक्तस्त्वमसि विक्रम्य विश्रमस्व निशामिमाम्। चिरं ते जाग्रतस्तात स्वप तावन्निशामिमाम्।। | 10-4-5a 10-4-5b |
विश्रान्तश्च विनिद्रश्च स्वस्थचित्तश्च मानद। समेत्य समरे शत्रून्वधिष्यसि न संशयः।। | 10-4-6a 10-4-6b |
न हि त्वां रथिनां श्रेष्ठं प्रगृहीतवरायुधम्। जेतुमुत्सहते कश्चिदपि देवेषु पावकिः।। | 10-4-7a 10-4-7b |
कृपेण सहितं यान्तं गुप्तं च कृतवर्मणा। को द्रौणिं युधि संरब्धं योधयेदपि देवराट्।। | 10-4-8a 10-4-8b |
ते वयं निशि विश्रान्ता विनिद्रा विगतज्वराः। प्रभातायां रजन्यां वै निहनिष्याम शात्रवान्।। | 10-4-9a 10-4-9b |
तव ह्यस्त्राणि दिव्यानि मम चैव न संशयः। सात्वतोपि महेष्वासो नित्यं युद्धेषु कोविदः।। | 10-4-10a 10-4-10b |
ते वयं सहितास्तात सर्वाञ्शत्रून्समागतान्। प्रसह्य समरे हत्वा प्रीतिं प्राप्स्याम पुष्कलाम्।। | 10-4-11a 10-4-11b |
विश्रमस्व त्वमव्यग्रः स्वप चेमां निशां सुखम्। अहं च कृतवर्मा च प्रभाते त्वां नरोत्तमम्।। | 10-4-12a 10-4-12b |
अनुयास्याव सहितौ धन्विनौ परतापनौ। रथिनं त्वरया यान्तं रथमास्थाय दंशितौ।। | 10-4-13a 10-4-13b |
स गत्वा शिबिरं तेषां नाम विश्राव्य चाहवे। ततः कर्ताऽसि शत्रूणां युध्यतां कदनं महत्।। | 10-4-14a 10-4-14b |
कृत्वा च कदनं तेषां प्रभाते विमलेऽहनि। विहरस्व यथा शक्रः सूदयित्वा महासुरान्।। | 10-4-15a 10-4-15b |
त्वं हि शक्तो रणे जेतुं पाञ्चालानां वरूथिनीम्। दैत्यसेनामिव क्रुद्धः सर्वदानवसूदनः।। | 10-4-16a 10-4-16b |
मया त्वां सहितं सङ्ख्ये गुप्तं च कृतवर्मणा। न सहेत विभुः साक्षाद्वज्रपाणिरपि स्वयम्।। | 10-4-17a 10-4-17b |
न चाहं समरे तात कृतवर्मा न चैव हि। अनिर्जित्य रणे पाण्डूनपयास्यामि कर्हिचित्।। | 10-4-18a 10-4-18b |
हत्वा च समरे क्षुद्रान्पाञ्चालान्पाण्डुभिः सह। निवर्तिष्यामहे सर्वे हता वा स्वर्गगा वयम्।। | 10-4-19a 10-4-19b |
सर्वोपायैः सहायास्ते प्रभाते वयमाहवे। सत्यमेतन्महाबाहो प्रब्रवीमि तवानघ।। | 10-4-20a 10-4-20b |
एवमुक्तस्ततो द्रौणिक्रमातुलेन हितं वचः। अब्रवीन्मातुलं राजन्क्रोधादुद्वृत्य लोचने।। | 10-4-21a 10-4-21b |
आतुरस्य कुतो निद्रा नरस्यामर्षितस्य च। अर्थांश्चिन्तयतश्चापि कामयानस्य वा पुनः।। | 10-4-22a 10-4-22b |
तदिदं समनुप्राप्तं पश्य मेऽद्य चतुष्टयम्। यस्य भागश्चतुर्थो मे स्वप्नमह्नाय नाशयेत्।। | 10-4-23a 10-4-23b |
किं नाम दुःखं लोकेऽस्मिन्पितुर्वधमनुस्मरन्। हृदयं निर्दहन्मेऽद्य रात्र्यहानि न शाम्यति।। | 10-4-24a 10-4-24b |
यथा च निहतः पापैः पिता मम विशेषतः। प्रत्यक्षमपि ते सर्वं तन्मे मर्माणि कृन्तति।। | 10-4-25a 10-4-25b |
कथं हि मादृशो लोके मुहूर्तमपि जीवति। द्रोणहन्तेति यद्वाचः पाञ्चालानां शृणोम्यहम्।। | 10-4-26a 10-4-26b |
धृष्टद्युम्नमहत्वा तु नादं जीवितुमुत्सहे। स मे पितुर्वधाद्वध्यः पाञ्चाला ये च सङ्गताः।। | 10-4-27a 10-4-27b |
विलापो भग्नसक्थस्य यस्तु राज्ञो मया श्रुतः। स पुनर्हृदयं कस्य क्रूरस्यापि न निर्दहेत्।। | 10-4-28a 10-4-28b |
कस्य ह्यकरुणस्यापि नेत्राभ्यामश्रु नाव्रजेत्। नृपतेर्भग्नसक्थस्य श्रुत्वा तादृग्वचः पुनः।। | 10-4-29a 10-4-29b |
यश्चायं मित्रपक्षो मे मयि जीवति निर्जितः। शोकं मे वर्धयत्येष वारिवेग इवार्णवम्।। | 10-4-30a 10-4-30b |
एकाग्नमनसो मेऽद्य कुतो निद्रा कुतः सुखम्।। | 10-4-31a |
वासुदेवार्जुनाभ्यां च तानहं परिरक्षितान्। अविषह्यतमान्मन्ये महेन्द्रेणापि सत्तम।। | 10-4-32a 10-4-32b |
न चापि शक्तः संयन्तुमस्मात्कार्यात्कथञ्चन। तं न पश्यामि लोकेऽस्मिन्यो मां कोपान्निवर्तयेत्।। | 10-4-33a 10-4-33b |
इति मे निश्चिता बुद्धिरेषा साधुमता मम।। | 10-4-34a |
वादिकैः कथ्यमानस्तु मित्राणां मे पराभवः। पाण्डवानां च विजयटो हृदयं दहतीव मे।। | 10-4-35a 10-4-35b |
अहं तु कदनं कृत्वा शत्रूणामद्य सौप्तिके। ततो विश्रमिता चैव स्वप्ता च विगतज्वरः।। | 10-4-36a 10-4-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः।। 4 ।। |
10-4-4 निहन्ता निहनिष्यसि।। 10-4-23 चतुर्थ आतुरादीनां चतुर्णां मध्ये एको भागः अमर्षः। मे मम स्वप्नं अह्वाय झटिति नाशयेत्। तस्मात् स्वपेत्युक्तं तन्न युज्यते।। 23 ।। 10-4-24 अनुस्मरन् अनुस्मरतः। न शाम्यति अमर्ष इत्यर्थः।। 10-4-36 स्वप्ता स्वप्स्यामि।। 10-4-4 चतुर्थोऽध्यायः।।
सौप्तिकपर्व-003 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सौप्तिकपर्व-005 |