महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-017
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युधिष्ठिरेण द्रौणेरेकस्य बहुमारणशक्तिप्रश्ने कृष्णेन रुद्रप्रसादादित्युक्त्वा रुद्रमहिमकथनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 10-17-1x |
हतेषु सर्वसैन्येषु सौप्तिकै तै रथैस्त्रिभिः। शोचन्युधिष्ठिरो राजा दाशार्हमिदमब्रवीत्।। | 10-17-1a 10-17-1b |
कथं नु कृष्ण पापेन क्षुद्रेण शठबुद्धिना। द्रौणिना निहताः सर्वे मम पुत्रा महारथाः।। | 10-17-2a 10-17-2b |
तथा कृतास्रविक्रान्ताः सङ्ग्रामेष्वपलायिनः। द्रुपदस्यात्मजाश्चैव द्रोणपुत्रेण पातिताः।। | 10-17-3a 10-17-3b |
यस्य द्रोणो महेष्वासो न प्रादादाहवे मुखम्। निजघ्ने रथिनां श्रेष्ठं धृष्टद्युम्नं कथं नु सः।। | 10-17-4a 10-17-4b |
किन्नु तेन कृतं कर्म तथायुक्तं नरर्षभ। यदेकः समरे सर्वानवधीन्नो गुरोः सुतः।। | 10-17-5a 10-17-5b |
श्रीभगवानुवाच। | 10-17-6x |
नूनं स देवदेवानामीश्वरेश्वरमव्ययम्। जगाम शरणं द्रौणिरेकस्तेनावधीद्बहून्।। | 10-17-6a 10-17-6b |
प्रसन्नो हि महादेवो दद्यादमरतामपि। वीर्यं च गिरिशो दद्याद्येनेन्द्रमपि शातयेत्।। | 10-17-7a 10-17-7b |
वेदाहं हि महादेवं तत्त्वेन भरतर्षभ। यानि चास्यपुराणानि कर्माणि विविधानि च।। | 10-17-8a 10-17-8b |
आदिरेष हि भूतानां मध्यमन्तश्च भारत। विचेष्टते जगच्चेदं सर्वमस्यैव कर्मणा।। | 10-17-9a 10-17-9b |
एवं सिसृक्षुर्भूतानि ददर्श प्रथमं विभुः। पितामहोऽब्रवीच्चैनं भूतानि सृज माचिरम्।। | 10-17-10a 10-17-10b |
हरिकेशस्तथेत्युक्वा दीर्घदर्शी तदा प्रभुः। दीर्घकालं तपस्तेपे मग्नोऽम्भसि महातपाः।। | 10-17-11a 10-17-11b |
सुमहान्तं ततः कालं प्रतीक्ष्यैनं पितामहः। स्रष्टारं सर्वभूतानां ससर्ज मनसाऽपरम्।। | 10-17-12a 10-17-12b |
सोऽब्रवीद्वातरं दृष्ट्वा गिरिशं सुप्तमम्भसि। यदि मे नाग्रजोऽस्त्यन्यस्ततः स्रक्ष्याम्यहं प्रजाः।। | 10-17-13a 10-17-13b |
तमब्रवीत्पिता नास्ति त्वदन्यः पुरुषोऽग्रजः। स्थाणुरेष जले मग्नो विस्रब्धः कुरु वै प्रजाः।। | 10-17-14a 10-17-14b |
भूतान्यन्वसृजत्सप्त दक्षः क्षिप्रं प्रजापतिः। यैरिमं व्यकरोत्सर्वं भूतग्रामं चतुर्विधम्।। | 10-17-15a 10-17-15b |
ताः सृष्टमात्राः क्षुधिताः प्रजाः सर्वाः प्रजापतिम्। बिभक्षयिवो राजन्सहसा प्राद्रवंस्तदा।। | 10-17-16a 10-17-16b |
स भक्ष्यमाणस्त्राणार्थी पितामहमुपाद्रवत्। आभ्यो मां भगवांस्त्रातु वृत्तिरासां विधीयताम्।। | 10-17-17a 10-17-17b |
ततस्ताभ्यो ददावन्नमोषधीः स्थावराणि च। जङ्गमानि च भूतानि दुर्बलानि बलीयसाम्।। | 10-17-18a 10-17-18b |
विहितान्नाः प्रजास्तास्तु जग्मुस्तुष्टा यथागतम्। ततो ववृधिरे राजन्प्रीतिमत्यः स्वयोनिषु।। | 10-17-19a 10-17-19b |
भूतग्रामे विवृद्वे तु सृष्टे देवासुरे तदा। उदतिष्ठज्जलाज्ज्येष्ठः प्रजाश्चेमा ददर्श सः।। | 10-17-20a 10-17-20b |
बहुरूपाः प्रजाः सृष्टा विवृद्धाश्च स्वतेजसा। चुक्रोध बलवद्दृष्ट्वा लिङ्गं स्वं चाप्यविध्यत।। | 10-17-21a 10-17-21b |
तत्प्रविद्धं तथा भूमौ तथैव प्रत्यतिष्ठत। तमुवाचाव्ययो ब्रह्मा वचोभिः शमयन्निव।। | 10-17-22a 10-17-22b |
किं कृतं सलिले शर्व चिरकालस्थितेन ते। किमर्थं चेदमुत्पाद्य लिङ्गं भूमौ प्रवेशितम्।। | 10-17-23a 10-17-23b |
सोऽब्रवीज्जातसंरम्भस्तथा लोकगुरुर्गुरुम्। प्रजाः सृष्टाः परेणेमाः किं करिष्याम्यनेन वै।। | 10-17-24a 10-17-24b |
प्रजाः सृष्टाः परेणेमाः प्रजार्थं मे पितामह। ओषध्यः परिवर्तेरन्यथैवं सततं प्रजाः।। | 10-17-25a 10-17-25b |
एवमुक्त्वा स सक्रोधो जगाम विमना भवः। गिरेर्मुञ्जवतः पादं तपस्तप्तुं महातपाः।। | 10-17-26a 10-17-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
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