महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-006
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अश्वत्थाम्नः शिबिरद्वारस्थमहाभूतदर्शनम्।। 1 ।। भूतजिगीषया द्रौणिविसृष्टानामस्त्रशस्त्राणां भूतेन ग्रसनम्।। 2 ।। ततश्चिंतातान्तश्च द्रौणेर्महादेवोपासनाध्यवसायः।। 3 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 10-6-1x |
द्वारदेशे ततो द्रौणिमवस्थितमवेक्ष्य तौ। अकुर्वतां भोजकृपौ किं सञ्जय वदस्व मे।। | 10-6-1a 10-6-1b |
स़ञ्जय उवाच। | 10-6-2x |
कृतवर्माणमामन्त्र्य कृपं च स महारथः। द्रौणिर्मन्युपरीतात्मा शिबिरद्वारमासदत्।। | 10-6-2a 10-6-2b |
तत्र भूतं महाकायं चन्द्रार्कसदृशद्युतिम्। सोऽपश्यद्द्वारमावृत्य तिष्ठन्तं रोमहर्षणम्।। | 10-6-3a 10-6-3b |
वसानं चर्म वैयाघ्रं वसारुधिरविस्रवम्। कृष्णाजिनोत्तरासङ्गं नागयज्ञोपवीतिनम्।। | 10-6-4a 10-6-4b |
बाहुभिः स्वायतैर्भीमैर्नानाप्रहरणोद्यतैः। बद्धाङ्गदमहासर्पं ज्वालामालाकुलाननम्।। | 10-6-5a 10-6-5b |
दंष्ट्राकरालवदनं व्यादितास्यं भयानकम्। नयनानां सहस्रैश्च विचित्रैरभिभूषितम्।। | 10-6-6a 10-6-6b |
नैव तस्य वपुः शक्यं प्रवक्तुं वेष एव च। सर्वथा तु तदालक्ष्य स्फुटेयुरपि पर्वताः।। | 10-6-7a 10-6-7b |
तस्यास्यनासिकाभ्यां च श्रवणाभ्यां च सर्वशः। तेभ्यश्चाक्षिसहस्रेभ्यः प्रादुरासन्महार्चिषः।। | 10-6-8a 10-6-8b |
तथा तेजोमरीचिभ्यः शङ्खचक्रगदाधराः। प्रादुरासन्हृषीकेशाः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 10-6-9a 10-6-9b |
तदत्यद्भुतमालोक्य भूतं लोकभयङ्करम्। द्रौणिरव्यथितो दिव्यैरस्त्रवर्षैरवाकिरत्।। | 10-6-10a 10-6-10b |
द्रौणिमुक्ताञ्छरांस्तांस्तु तद्भूतं महदग्रसत्। उदधेरिव वार्योघान्पावको बडबामुखः।। | 10-6-11a 10-6-11b |
अश्वत्थामा तु सम्प्रेक्ष्य शरौघांस्तान्निरर्थकान्। रथशक्तिं मुमोचास्मै दीप्तामग्निशिखामिव।। | 10-6-12a 10-6-12b |
सा तमाहत्य दीप्ताग्रा रथशक्तिरदीर्यत। युगान्ते सूर्यमाहत्य महोल्केव दिवश्च्युता।। | 10-6-13a 10-6-13b |
अथ हेमत्सरुं दिव्यं खङ्गमाकाशवर्चसम्।। कोशात्समुद्बबर्हाशु बिलाद्दीप्तमिवोरगम्।। | 10-6-14a 10-6-14b |
ततः खङ्गवरं धीमान्भूताय प्राहिणोत्तदा। स तदासाद्य भूतं वै विलयं तूलवद्ययौ।। | 10-6-15a 10-6-15b |
ततः स कुपितो द्रौणिरिन्द्रकेतुनिभां गदाम्। ज्वलन्तीं प्राहिणोत्तस्मै भूतं तामपि चाग्रसत्।। | 10-6-16a 10-6-16b |
ततः सर्वायुधाभावे वीक्षमाणस्ततस्ततः। अपश्यत्कृतमाकाशमनाकाशं जनार्दनैः।। | 10-6-17a 10-6-17b |
तदद्भुततमं दृष्ट्वा द्रोणपुत्रो निरायुधः। अचिन्तयत्सुसन्त्रस्तः कृपभोजवचः स्मरन्।। | 10-6-18a 10-6-18b |
ब्रुवतामप्रियं पथ्यं सुहृदां न शृमोति यः। स शोचत्यापदं प्राप्य थाऽहमवमत्य तौ।। | 10-6-19a 10-6-19b |
शास्त्रदृष्टानविद्वान्यः समतीत्य जिघांसति। स पथः प्रच्युतो धर्म्यात्कुपथे प्रतिहन्यते।। | 10-6-20a 10-6-20b |
गोब्राह्मणनृपस्त्रीषु सख्युर्मातुर्गुरोस्तथा। वृद्धबालजडान्धेषु सुप्तभीतोत्थितेषु च।। | 10-6-21a 10-6-21b |
मत्तोन्मत्तप्रमत्तेषु न शस्त्राणि च मातयेत्। इत्येवं गुरुभिः पूर्वमुपदिष्टं नृणां सदा।। | 10-6-22a 10-6-22b |
सोऽहमुत्क्रम्य पन्थानं शास्त्रदृष्टं सनातनम्। अमार्गेणैवमारभ्य घोरामापदमागतः।। | 10-6-23a 10-6-23b |
तां चापदं घोरतरां प्रवदन्ति मनीषिणः। यदुद्यम्य महत्कृत्यं भयादपि निवर्तते।। | 10-6-24a 10-6-24b |
अशक्यं चैव कः कर्तुं शक्तः शक्तिबलादिह। न हि दैवाद्गरीयो वै मानुष्यं किञ्चिदिष्यते।। | 10-6-25a 10-6-25b |
मानुष्यं कुर्वतः कर्म यदि दैवान्न सिध्यति। स पथः प्रच्युतो धर्म्याद्विपदं प्रतिपद्यते।। | 10-6-26a 10-6-26b |
प्रतिज्ञानं ह्यविज्ञानं प्रवदन्ति मनीषिणः। यदारभ्य क्रियां काञ्चिद्भयादिह निवर्तते।। | 10-6-27a 10-6-27b |
तदिदं दुष्प्रणीतेन भयं मा समुपस्थितम्। न हि द्रोणसुतः सङ्ख्ये निवर्तेत कथञ्चन।। | 10-6-28a 10-6-28b |
इदं च सुमहद्भूतं दैवदण्डमिवोद्यतम्। न चैतदभिजानामि चिन्तयन्नपि सर्वथा।। | 10-6-29a 10-6-29b |
ध्रुवं येयमधर्मेण प्रहिता कलुषा मतिः। तस्याः फलमिदं घोरं प्रतिघाताय कल्पते।। | 10-6-30a 10-6-30b |
तदिदं दैवविहितं मम सङ्ख्ये निवर्तनम्। नान्यत्र दैवादुद्यन्तुमिह शक्यं कथञ्चन।। | 10-6-31a 10-6-31b |
सोऽहमद्य महादेवं प्रपद्ये शरणं विभुम्। दैवदण्डमिमं घोरं स हि मे नाशयिष्यति।। | 10-6-32a 10-6-32b |
कपर्दिनं प्रपद्येऽहं देवदेवमुमापतिम्। कपालमालिनं रुद्रं भगनेत्रहरं हरम्।। | 10-6-33a 10-6-33b |
स हि देवोऽत्यगाद्देवांस्तपसा विक्रमेण च। तस्माच्छरणमभ्येष्ये गिरिशं शूलपाणिनम्।। | 10-6-34a 10-6-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।। |
10-6-12 रथशक्तिं चक्रम्।। 10-6-13 युग्मान्ते सूर्यमिति झ.पाठः तत्र युग्मान्ते मिथुनराशेरन्ते अतिदीप्तं इत्यर्थः।। 10-6-15 विलं नकुलवद्ययौ इति झ.पाठः।। 10-6-17 अनाकाशं निरवकाशम्।। 10-6-6 षष्ठोऽध्यायः।।
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