महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-016
← सौप्तिकपर्व-015 | महाभारतम् दशमपर्व महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-016 वेदव्यासः |
सौप्तिकपर्व-017 → |
कृष्णेन स्ववचनोल्लङ्घनेनास्त्रप्रयोक्तुरश्वत्थाम्नः शापदानां व्यासेन तदनुमोदनं च।। 1 ।। भीमेन द्रौणिमस्तकमणिदा नेन द्रौपदीसमाश्वासनम्।। 2 ।। युधिष्ठिरेण द्रौपदीवचनात्स्वमस्तके तन्मणिधारणम्।। 3 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 10-16-1x |
तदाज्ञाय हृषीकेशो विकृष्टं पापकर्मणा। हृष्यमाण इदं वाक्यं द्रौणिं प्रत्यब्रवीत्तदा।। | 10-16-1a 10-16-1b |
विराटस्य सुतां पूर्वं स्नुषां गाण्डीवधन्वनः। उपप्लाव्यगतां दृष्ट्वा ऋतवाग्ब्रह्मणोऽब्रवीत्।। | 10-16-2a 10-16-2b |
परिक्षीणेषु कुरुषु पुत्रस्तव भविष्यति। एतदस्य परिक्षित्त्वं गर्भस्थस्य भविष्यति।। | 10-16-3a 10-16-3b |
तस्य तद्वचनं साधोः सत्यमेद्भविष्यति। परिक्षिद्भविता ह्येषां पुनर्वंशकरः सुतः।। | 10-16-4a 10-16-4b |
त्वां तु कापुरुषं पापं विंदुः सर्वे मनीषिणः। असकृत्पापकर्माणं बालजीवितघातकम्।। | 10-16-5a 10-16-5b |
तस्मात्त्वमस्य पापस्य कर्मणः फलमाप्नुहि। त्रीणि वर्षसहस्राणि चरिष्यसि महीमिमाम्।। | 10-16-6a 10-16-6b |
अप्राप्नुवन्क्वचित्काञ्चित्संविदं जातु केनचित्। निर्जनानसहायस्त्वं देशान्प्रविचरिष्यसि।। | 10-16-7a 10-16-7b |
भवित्री न हि ते क्षुद्र जनमध्येषु संस्थितिः। पूयशोणिगन्धी च दुर्गकान्तारसंश्रयः। | 10-16-8a 10-16-8b |
विचरिष्यसि पापात्मंश्चिरमेको वसुन्धराम्।। वयः प्राप्य परिक्षित्तुं देवव्रतमवाप्य च। | 10-16-9a 10-16-9b |
कृपाच्छारद्वताच्छूरः सर्वास्त्राण्युपपत्स्यते।। विदित्वा परमास्त्राणि क्षत्रधर्मव्रते स्थितः। | 10-16-10a 10-16-10b |
षष्टिं वर्षामि धर्मात्मा वसुधां पालयिष्यति।। इतश्चोर्ध्वं महाबाहुः कुरुराजो भविष्यति। | 10-16-11a 10-16-11b |
परिक्षिन्नाम नृपतिर्मिषतस्ते सुदुर्मते।। [अहं तं जीवयिष्यामि दग्धं शस्त्राग्नितेजसा]। | 10-16-12a 10-16-12b |
पश्य मे तपसो वीर्यं सत्यस्य च नराधम।। | 10-16-13a |
व्यास उवाच। | 10-16-13x |
यस्मादनादृत्य कृतं त्वयाऽस्मान्कर्म दारुणम्। ब्राह्मणस्य सतश्चेदं वृत्तमन्यायवर्तिनः।। | 10-16-13b 10-16-13c |
तस्माद्यद्देवकीपुत्र उक्वानुत्तमं वचः। आलोकात्तव तद्भावि क्षुद्रकर्मन्व्रजेति ह।। | 10-16-14a 10-16-14b |
अश्वत्थामोवाच। | 10-16-15x |
सहैव भवता ब्रह्मन्स्थास्यामि पुरुषेष्विह। सत्यवागस्तु भगवानयं च पुरुषोत्तमः।। | 10-16-15a 10-16-15b |
वैशम्पायन उवाच। | 10-16-16x |
प्रदायाथ मणिं द्रौणिः पाण्डवानां महात्मनाम्। जगाम विमनास्तेषां सर्वेषां पश्यतां वनम्।। | 10-16-16a 10-16-16b |
पाण्डवाश्च सदाशार्हास्तानृषीनभिवाद्य च। कृष्णद्वैपायनं चैव नारदं चैव पर्वतम्।। | 10-16-17a 10-16-17b |
द्रोणपुत्रस्य सहजं मणिमादाय सत्वराः। द्रौपदीमभ्यधावन्त प्रायोपेतां मनस्विनीम्।। | 10-16-18a 10-16-18b |
वैशम्पयन उवाच। | 10-16-19x |
ततस्ते पुरुषव्याघ्राः सदश्वैरनिलोपमैः। अभ्ययुः सहदाशार्हाः शिबिरं पुनरेव हि।। | 10-16-19a 10-16-19b |
अवतीर्य रथेभ्यस्तु त्वरमाणा महारथाः। ददृशुर्द्रौपदीं हृष्टामार्तामार्ततराः स्वयम्।। | 10-16-20a 10-16-20b |
तामुपेत्य निरानन्दां दुःखशोकसमन्विताम्। परिवार्य व्यतिष्ठन्त पाण्डवाः सहकेशवाः।। | 10-16-21a 10-16-21b |
ततो राज्ञाऽभ्यनुज्ञातो भीमसेनो महाबलः। प्रददौ तं मणिं दिव्यं वचनं चेदमब्रवीत्।। | 10-16-22a 10-16-22b |
अयं भद्रे तव मणिः पुत्रहन्ता जितश्च ते। उत्तिष्ठ शोकमुत्सृज्य क्षात्रधर्ममनुस्मर।। | 10-16-23a 10-16-23b |
प्रयाणे वासुदेवस्य शमार्थवसितेक्षणे। यान्युक्तानि त्वया भीरु वाक्यानि मधुघातिनि।। | 10-16-24a 10-16-24b |
नैव मे पतयः सन्ति न पुत्रा भ्रातरो न च। न वै त्वमिति गोविन्द शममिच्छति राजनि।। | 10-16-25a 10-16-25b |
उक्तवत्यसि तीव्राणि वाक्यानि पुरुषोत्तमम्। क्षत्रधर्मानुरूपाणि तानि संस्मर्तुमर्हसि।। | 10-16-26a 10-16-26b |
हतो दुर्योधनः पापो राज्यस्य परिपन्थिकः। दुःशासनस्य रुधिरं पीतं विस्फुरतो मया।। | 10-16-27a 10-16-27b |
वैरस्य गतमानृण्यं न स्म वाच्या विवक्षताम्। जित्वा मुक्तो द्रोणपुत्रो ब्राह्मण्याद्गौरवेण च।। | 10-16-28a 10-16-28b |
यशोऽस्य पतितं देवि शरीरं त्ववशेषितम्। वियोजितश्च मणिना भ्रंशितश्चायुधं भुवि।। | 10-16-29a 10-16-29b |
द्रौपद्युवाच। | 10-16-30x |
केवलानृण्यमाप्ताऽस्मि गुरुपुत्रो गुरुर्मम। शिरस्येतं मणिं राजा ग्रहीतुमनघोऽर्हति।। | 10-16-30a 10-16-30b |
तं गृहीत्वा ततो राजा शिरस्येवाकरोत्तदा। गुरोरुच्छेषमित्येव द्रौपद्या वचनादपि।। | 10-16-31a 10-16-31b |
ततो दिव्यं मणिवरं शिरसा धारयन्प्रभुः। शुशुभे स तदा राजा सचन्द्र इव पर्वतः।। | 10-16-32a 10-16-32b |
उत्तस्थौ पुत्रशोकार्ता ततः कृष्णा मनस्विनी। कृष्णं चापि महाबाहुः परिपप्रच्छ धर्मराट्।। | 10-16-33a 10-16-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि षोडशोऽध्यायः।। 16 ।। |
10-16-7 संविदं संलापम्।। 10-16-18 प्रायोपेतां मरणार्थं यो नियमस्तेनोपेताम्।। 10-16-20 हृष्टामश्वत्थाम्नः पराभवेन। आर्तां पुत्रादेः शोकेन।। 10-16-24 मधुघातिनि मधुदैत्यहन्तरी।। 10-16-28 विवक्षतां वक्तुमिच्छतां वाच्याः निन्द्याः नैव स्म।। 10-16-16 षोडशोऽध्यायः।।
सौप्तिकपर्व-015 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सौप्तिकपर्व-017 |