महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-012

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दशमपर्व
महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-012
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द्रौणिजिघांसया भीमे प्रतिगते कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रति द्रौणिदौश्शील्यादिकथनपूर्वकं भीमस्य ततो रक्षणीयत्वकथनम्।। 1 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 10-12-1x
तस्मिन्प्रयाते दुर्धर्षे यदूनामृषभस्ततः।
अब्रवीत्पुण्डरीकाक्षः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।।
10-12-1a
10-12-1b
एष पाण्‍डवे ते भ्राता पुत्रशोकपरायणः।
जिघांसुर्द्रौणिमाक्रन्दे एक एवाभिधावति।।
10-12-2a
10-12-2b
भीमः प्रियस्ते सर्वेभ्यो भ्रातृभ्यो भरतर्षभ।
तं कृच्छ्रगतमद्य त्वं कस्मान्नाभ्युपपद्यसे।।
10-12-3a
10-12-3b
यत्तदाचष्ट पुत्राय द्रोणः परपुरञ्जयः।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम दहेत पृथिवीमपि।।
10-12-4a
10-12-4b
तन्महात्मा महाभागः केतुः सर्वधनुष्मताम्।
प्रत्यपायदाचार्यः प्रीयमाणो धनञ्जयम्।।
10-12-5a
10-12-5b
तं पुत्रोऽप्येक एवैनमन्वयाचदमर्षणः।
ततः प्रोवाच पुत्राय नातिहृष्टमना इव।।
10-12-6a
10-12-6b
विदितं चापलं ह्यासीदात्मजस्य दुरात्मनः।
सर्वधर्मविदाचार्यः सोऽन्वशासत्सुतं ततः।।
10-12-7a
10-12-7b
परमापद्गतेनापि न स्म तात त्वया रणे।
इदमस्त्रं प्रयोक्तव्यं मानुषेषु विशेषतः।।
10-12-8a
10-12-8b
इत्युक्त्वान्गुरुः पुत्रं द्रोणः पश्चाथोक्तवान्।
न त्वं जातु सतां मार्गे स्थातेति पुरुषर्षभ।।
10-12-9a
10-12-9b
स तदाज्ञाय दुष्टात्मा पितुर्वचनमप्रियम्।
निराशः सर्वकल्याणैः शोकात्पर्यचरन्महीम्।।
10-12-10a
10-12-10b
ततस्तदा कुरुश्रेष्ठ वनस्थे त्वयि भारत।
अवसद्द्वारकामेत्य वृष्णिभिः परमार्चितः।।
10-12-11a
10-12-11b
स कदाचित्समुद्रान्ते वसन्द्वारवतीमनु।
एक एकं समागम्य मामुवाच हसन्निव।।
10-12-12a
10-12-12b
यत्तदुग्रं तपः कृष्ण चरन्नमितविक्रमः।
अगस्त्याद्भारताचार्यः प्रत्यपद्यत मे पिता।।
10-12-13a
10-12-13b
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम देवगन्धर्वपूजितम्।
तदद्य मयि दाशार्ह यथा पितरि मे तथा।।
10-12-14a
10-12-14b
अस्मत्तस्दुपादाय दिव्यमस्त्रं यदूत्तम।
ममाप्यस्‌रं प्रयच्छ त्वं चक्रं रिपुहणं रणे।।
10-12-15a
10-12-15b
स राजन्प्रीयमाणेन मयाप्युक्तः कृताञ्जलिः।
याचमानः प्रयत्नेन मत्तोऽस्त्रं भरतर्षभ।।
10-12-16a
10-12-16b
देवदानवगन्धर्वमनुष्यपतगोरगाः।
न समा मम वीर्यस्य शतांशेनापि पिण्डिताः।।
10-12-17a
10-12-17b
इदं धनुरियं शक्तिरिदं चक्रमियं गदा।
यद्यदिच्छसि चेदस्‌रं मत्तस्तत्तद्ददामि ते।।
10-12-18a
10-12-18b
यच्छक्नोषि समुद्यन्तुं प्रयोक्तुमपि वा रणे।
तद्गृहाण विनाऽस्त्रेण यन्मे दातुमभीप्ससि।।
10-12-19a
10-12-19b
स सुनाभं सहस्रारं वज्रनाभमयस्मयम्।
वव्रे चक्रं महाभागो मत्तः स्पर्धन्मया सह।।
10-12-20a
10-12-20b
गृहाण चक्रमित्युक्तो मया तु तदनन्तरम्।
जग्राहोत्पत्य सहसा चक्रं सव्येन पाणिना।।
10-12-21a
10-12-21b
न चैनमशकत्स्थानात्सञ्चालयितुमप्युत।
अथैनं दक्षिणेनापि ग्रहीतुमुपचक्रमे।।
10-12-22a
10-12-22b
सर्वयत्नेन तेनापि गृह्य नैनमकम्पयत्।। 10-12-23a
ततः सर्वबलेनापि यदैनं न शशाक ह।
उद्यन्तुं वा चालयितुं द्रौणिः परमदुर्मनाः।
कृत्वा यत्नं परिश्रान्तः स न्यवर्तत भारत।।
10-12-24a
10-12-24b
10-12-24c
निवृत्मनसं तस्मादभिप्रायाद्विचेतसम्।
अहमामन्त्र्य संविग्नमश्वत्थामानमब्रुवम्।।
10-12-25a
10-12-25b
यः स दैवमनुष्येषु प्रमाणं परमं गतः।
गाण्डीवधन्वा श्वेताश्चः कपिप्रवरकेतनः।।
10-12-26a
10-12-26b
यः साक्षाद्देवदेवेशं शितिकण्ठमुमापतिम्।
द्वन्द्वयुद्धे पुरा जिष्णुस्तोषयामास शङ्करम्।।
10-12-27a
10-12-27b
यस्मात्प्रियतरो नास्ति ममान्यः पुरुषो भुवि।
नादेयं यस्य मे किञ्चिदपि प्राणान्महात्मनः।।
10-12-28a
10-12-28b
तेनापि सुहृदा ब्रह्मन्पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा।
नोक्पूर्वमिदं वाक्यं यस्त्वं मामभिभाषसे।।
10-12-29a
10-12-29b
ब्रह्मचर्यं महद्धोरं तीर्‌वा द्वादशवार्षिकम्।
हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसाऽऽर्जितः।।
10-12-30a
10-12-30b
समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योऽन्वजायत।
सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम मे सुतः।।
10-12-31a
10-12-31b
तेनाप्येतन्महद्दिव्यं चक्रमप्रतिमं रणे।
न प्रार्थितमभून्मूढ तदितं प्रार्थितं त्वया।।
10-12-32a
10-12-32b
रामेणातिबलेनैतन्नोक्तपूर्वं कदाचन।
न गदेन साम्बेन यदिदं प्रार्थितं त्वया।।
10-12-33a
10-12-33b
द्वारकावासिभिश्चान्यैर्वृष्ण्यन्धकमहारथैः।
नोक्तपूर्वमिदं क्षुद्रं तदिदं प्रार्थितं त्वया।।
10-12-34a
10-12-34b
भारताचार्यपुत्रस्त्वं मानितः सर्वयादवैः।
चक्रेण रथिनां श्रेष्ठ कं नु तात युयुत्ससे।।
10-12-35a
10-12-35b
एवमुक्तो मया द्रौणिर्मामिदं प्रत्युवाच ह।
प्रयुज्य भवते पूजां योत्स्ये कृष्ण त्वया सह।।
10-12-36a
10-12-36b
प्रार्थितं ते मया चक्रं देवदानवपूजितम्।
अजेयः स्यामिति विभो सत्यमेद्ब्रवीमि ते।।
10-12-37a
10-12-37b
सोऽहं तद्दुर्लभं चक्रमनवाप्यैव केशव।
प्रतियास्यामि गोविन्द शिवेनाभिवदस्व माम्।।
10-12-38a
10-12-38b
एतत्सुनाभं भोजानामृषभेण त्वया धृतम्।
चक्रमप्रतिचक्रेण भुवि नान्योऽभिपद्यते।।
10-12-39a
10-12-39b
एतावदुक्त्वा द्रौणिर्मां युग्यानश्वान्धनानि च।
आदायोपययौ काले रत्नानि वविधानि च।।
10-12-40a
10-12-40b
स संरम्भी दुरात्मा च चपलः क्रूर एव च।
वेद चास्‌रं ब्रह्मशिरस्तस्माद्रक्ष्यो वृकोदरः।।
10-12-41a
10-12-41b
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि
ऐषीकपर्वणि द्वाशोऽध्यायः।। 12 ।।

10-12-11 मे मह्यं दातुमिच्छसि तेन विनापि गृहाण। त्वदीयेऽस्त्रे ममेच्छा नास्तीति भावः।। 10-12-12 द्वादशोऽध्यायः।।

सौप्तिकपर्व-011 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सौप्तिकपर्व-013