महाभारतम्-11-स्त्रीपर्व-007
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विदुरेण धृतराष्ट्रम्प्रति तत्त्वकथनम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 11-7-1x |
अहोऽभिहितमाख्यान भवता तत्त्वदर्शिना। भूय एव तु मे हर्षः श्रोतुं वागमृतं तव।। | 11-7-1a 11-7-1b |
विदुर उवाच। | 11-7-2x |
शृणु भूयः प्रवक्ष्यामि मार्गस्यैतस्य विस्तरम्। यच्छ्रुत्वा विप्रमुच्यन्ते संसाराद्वि विचक्षणाः।। | 11-7-2a 11-7-2b |
यथा तु पुरुषो राजन्दीर्घमध्वानमास्थितः। क्वचित्क्वचिच्छ्रमस्थानं कुरुते वासमेव वा।। | 11-7-3a 11-7-3b |
एवं संसारपर्याये गर्भवासेषु भारत। कुर्वन्ति दुर्बुधा वासं मुच्यन्ते तत्र पण्डिताः।। | 11-7-4a 11-7-4b |
तस्मादध्वानमेवैतमाहुः शास्त्रविदो जनाः। यत्तत्संसारगहनं वनमाहुर्मनीषिणः।। | 11-7-5a 11-7-5b |
सोयं लोकसमावर्तो मर्त्यानां भरतर्षभ। चराणां स्थावराणां च न गृध्येत्तत्र पाण्डितः।। | 11-7-6a 11-7-6b |
शारीरा मानसाश्चैव मर्त्यानां व्याधयश्च ये। प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च ते व्यालाः कथिता बुधैः।। | 11-7-7a 11-7-7b |
क्लिश्यमानाश्च तैर्नित्यं मार्यमाणाश्च भारत। स्वकर्मभिर्महाव्यालैर्नोद्विजन्त्यल्पबुद्धयः।। | 11-7-8a 11-7-8b |
अथापि तैर्विमुच्येत व्याधिभिः पुरुषो नृप। आवृणोत्येव तं पश्चाज्जरा रूपविनाशिनी।। | 11-7-9a 11-7-9b |
शब्दरूपरसस्पर्शगन्धैश्च विविधैरपि। मज्जमानं महापङ्के निरालम्बे समन्ततः।। | 11-7-10a 11-7-10b |
संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रसन्धयः। क्रमेणास्य प्रवृज्जन्ति रूपमायुस्तथैव च।। | 11-7-11a 11-7-11b |
एते कालस्य विधयो नैताञ्जानान्ति दुर्बुधाः। धात्राऽभिलिखितान्याहुः सर्वभूतानि कर्मणा।। | 11-7-12a 11-7-12b |
रथः शरीरं भूतानां सत्वमाहुस्तु सारथिम्। इन्द्रियाणि हयानाहुः कर्मबुद्विस्तु रश्मयः।। | 11-7-13a 11-7-13b |
तेषां हयानां यो वेगं धावतामनु धावति। सतु संसारचक्रेऽस्मिंश्चक्रवत्परिवर्तते।। | 11-7-14a 11-7-14b |
यस्तान्संयमते बुद्ध्या संयतो न निवर्तते। यस्तु संसारचक्रेऽस्मिंश्चक्रवत्परिवर्तते।। | 11-7-15a 11-7-15b |
[भ्रममाणा न मुह्यन्ति संसारे न भ्रमन्ति ते। संसारे भ्रमतां राजन्दुःखमेतद्धि जायते।। | 11-7-16a 11-7-16b |
तस्पादस्य निवृत्त्यर्थं यत्नमेवाचरेद्बुधः। उपेक्षा नात्र कर्तव्या शतशाखः प्रवर्धते।। | 11-7-17a 11-7-17b |
यतेन्द्रियो नरो राजन्क्रोधलोभनिराकृतः। सन्तुष्टः सत्यवादी यः स शान्तिमधिगच्छति।।] | 11-7-18a 11-7-18b |
याम्यमाहू रथं ह्येनं मुह्यन्ते येन दुर्बुधाः। स चैतत्प्राप्नुयाद्राजन्यत्त्वं प्राप्तो नराधिप।। | 11-7-19a 11-7-19b |
अनुतर्षुलमेवैतद्दुःखं भवति मारिष। राज्यनाशः सुहृन्नाशः सुतनाशश्च भारत। साधुः परमदुःखानां दुःखभैषज्यमारभेत्।। | 11-7-20a 11-7-20b 11-7-20c |
ज्ञानौषधमवाप्येह दूरपारं महौषधम्। छिन्द्याद्दुःखमहाव्याधिं नरः संयतमानसः।। | 11-7-21a 11-7-21b |
न विक्रमो न चाप्यर्थो न मित्रं न सुहृज्जनः। तस्मान्मोचयते दुःखाद्यथात्मा स्थिरनिश्चयः।। | 11-7-22a 11-7-22b |
तस्मान्मैत्रं समास्थाय शीलमापदि भारत। दमस्त्यागोऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः।। | 11-7-23a 11-7-23b |
शीलरश्मिसमायुक्ते स्थितो यो मानसे रथे। त्यक्त्वा मृत्युभयं राजन्ब्रह्मलोकं स गच्छति।। | 11-7-24a 11-7-24b |
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति महीपते। स गच्छति परं स्थानं विष्णोः पदमनामयम्।। | 11-7-25a 11-7-25b |
न तत्क्रतुसहस्रेण नोपवासैश्च नित्यशः। अभयस्य च दानेन यत्फलं प्राप्नुयान्नरः।। | 11-7-26a 11-7-26b |
न ह्यात्मनः प्रियतरं किञ्चिद्भूतेषु निश्चितम्। अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत।। | 11-7-27a 11-7-27b |
तस्मात्सर्वेषु भूतेषु दया कार्या विपश्चिता।। | 11-7-28a |
नानायोगसमायुक्ता बुद्धिजालेन संवृताः। असूक्ष्मदृष्टयो मन्दा भ्राम्यन्ते तत्रतत्र ह। सुसूक्ष्मदृष्टयो राजन्व्रजन्ति ब्रह्मसाम्यताम्।। | 11-7-29a 11-7-29b 11-7-29c |
एवं ज्ञात्वा महाप्राज्ञ स तेषामौर्ध्वदैहिकम्। कर्तुमर्हति तेनैव फल प्राप्स्यति वै भवान्।। | 11-7-30a 11-7-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।। |
11-7-3 श्रमाच्छ्रान्त इति झ.पाठः।। 11-7-8 वार्यमाणाश्च भारतेति झ.पाठः।। 11-7-9 अथापि तैर्न मुच्येतेति क.पाठः।। 11-7-10 मज्जमांसमहापङ्के इति झ.पाठः।। 11-7-17 ये तु संसारचक्रेऽस्मिन्निति झ.पाठः।। 11-7-15 शतशास्वः संसारवृक्षः।। 11-7-17 क्रोधलोभौ निराकृतौ येन सः।। 11-7-18 याम्यं योमलोकप्रापकं संसारगहनम्।। 11-7-19 अनुतर्षुलं तृष्णाशीलं लक्षीकृत्य। अनुकर्षणमेनैतद्दुःखं न भवति भारतेति क.छ.पाठः।। 11-7-20 दूरपारं ब्रह्मज्ञानम्।। 11-7-23 ब्रह्मणः ब्रह्मलोकस्य प्रापका इति शेषः।। 11-7-7 सप्तमोऽध्यायः।।
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