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अथ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
गङ्गाया द्वैरूप्यकथनम्
नारद उवाच
कमण्डलुस्थिता देवी महेश्वरजटागता।
श्रुता देव यथा मर्त्यमागता तद्ब्रवीतु मे।। ७४.१ ।।

ब्रह्मोवाच
महेश्वरजटास्था या आपो देव्यो महामते।
तासां च द्विविधो भेद आहर्तुर्द्वयकारणात्।। ७४.२ ।।

एकांशो ब्राह्मणेनात्र व्रतदानसमाधिना।
गौतमेन शिवं पूज्य आहृतो लोकविश्रुतः।। ७४.३ ।।

अपरस्तु महाप्राज्ञ क्षत्रियेण बलीयसा।
आराध्य शंकरं देवं तपोभिर्नियमैस्तथा।। ७४.४ ।।

भगीरथेन भूपेन आहृतोंऽसोऽपरस्तथा।
एवं द्वैरूप्यमभवद्गङ्गाया मुनिसत्तम।। ७४.५ ।।

नारद उवाच
महेश्वरजटास्था या हेतुना केन गौतमः।
आहर्ता क्षत्रियेणापि आहृता केन तद्वदः।। ७४.६ ।।

ब्रहमोवाच
यथाऽऽनीता पुरा वत्स ब्राह्मणेनेतरेण वा।
तत्सर्वं विस्तरेणाहं वदिष्ये प्रीतये तव।। ७४.७ ।।

यस्मिन्काले सुरेशस्य उमा पत्न्यभवत्प्रिया।
तस्मिन्नेवाभवद्गङ्गा प्रिया शंभोर्महामते।। ७४.८ ।।

मम दोषापनोदाय चिन्तयानः शिवस्तदा।
उमया सहितः श्रीमान्देवीं प्रेक्ष्य विशेषतः।। ७४.९ ।।

रसवृत्तौ स्थितो यस्मान्निर्ममे रसमुत्तमम्।
रसिकत्वात्प्रियत्वाच्च स्त्रैणत्वात्पावनत्वतः।। ७४.१० ।।

सर्वाभ्यो ह्यधिकप्रीतिर्गङ्गाऽभूद्द्विजसत्तम।
तामेव चिन्तयानोऽसौ पर्वदाऽऽस्ते महेश्वरः।। ७४.११ ।।

सौवोद्भूता जटामार्गात्कस्मिश्चित्कारणान्तरे।
स तु संगोपयामास गङ्गां शंभुर्जटागताम्।। ७४.१२ ।।

शिरसा च धृतां ज्ञात्वा न शशाक उमा तदा।
सोढुं ब्रह्मञ्जटाजूटे स्थितां दृष्ट्वा पुनः पुनः।। ७४.१३ ।।

अमर्षेण भवं गौरी प्रेरयस्वेत्यभाषत।
नैवासौ प्रैरयच्छंभू रसिको रसमुत्तमम्।। ७४.१४ ।।

जटास्वेव तदा देवीं गोपायन्तं विमृश्य सा।
विनायकं जयां स्कन्दं रहो वचनमब्रवीत्।। ७४.१५ ।।

नैवायं त्रिदशेशानो गङ्गां त्यजति कामुकः।
साऽपि प्रिया शिवस्याद्य कथं त्यजति तां प्रियाम्।। ७४.१६ ।।

एवं विमृश्य बहुशो गौरी चाऽऽह विनायकम्।। ७४.१७ ।।

पार्वत्युवाच
न देवैर्नासुरैर्यक्षैर्न सिद्धैर्भवताऽपि च।
न राजभिरथान्यैर्वा न गङ्गां त्यजति प्रभुः।। ७४.१८ ।।

पुनस्तप्स्यामि वा गत्वा हिमवन्तं नगोत्तमम्।
अथवा ब्राह्मणैः पुण्यैस्तपोभिर्हतकल्मषैः।। ७४.१९ ।।

तैर्वा जटास्थिता गङ्गा प्रार्थिता भुवमाप्नुयात्।। ७४.२० ।।

ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा मातृवाक्यं मातरं विघ्नराट्।
भ्रात्रा स्कन्देन जयया संमन्त्र्येह च युज्यते।। ७४.२१ ।।

तत्कुर्मो मस्तकाद्गङ्गां यथा त्यजति मै पिता।
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्ननावृष्टिरजायत।। ७४.२२ ।।

द्विर्द्वादश समा मर्त्ये सर्वप्राणिभयावहा।
ततो विनष्टमभवज्जगत्स्थावरजङ्मम्।। ७४.२३ ।।

विना तु गौतमं पुण्यमाश्रमं सर्वकामदम्।
स्रष्टुकामः पुरा पुत्र स्थावरं जङ्गमं तथा।। ७४.२४ ।।

कृतो यज्ञो मया पूर्वं स देवयजनो गिरिः।
मन्नामा तत्र विख्यातस्ततो ब्रह्मगिरिः सदा।। ७४.२५ ।।

तमश्रित्य नगश्रेष्ठं सर्वदाऽऽस्ते स गौतमः।
तस्याऽऽश्रमे महापुण्ये श्रेष्ठे ब्रह्मगिरौ शुभे।। ७४.२६ ।।

आधयो व्याधयो वाऽपि दुर्भिक्षं वाऽप्यवर्षणम्।
भयशोकौ च दारिद्र्यं न श्रूयन्ते कदाचन।। ७४.२७ ।।

तदाश्रमं विनाऽन्यत्र हव्यं वा कव्यमेव वा।
नास्ति पुत्र तथा दाता होता यष्टा तथैव च।। ७४.२८ ।।

सदैव गौतमो विप्रो ददाति च जुहोति च।
तदैवाप्ययनं स्वर्गे सुराणामपि नान्यतः।। ७४.२९ ।।

देवलोकेऽपि मर्त्ये वा श्रूयते गौतमो मुनिः।
होता दाता च भोक्ता च स एवेति जना विदुः।। ७४.३० ।।

तच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे नानाश्रमनिवासिनः।
गौतमाश्रममापृच्छन्नागच्छन्तस्तपोधनाः।। ७४.३१ ।।

तेषां मुनीनां सर्वेषामागतानां स गौतमः।
शिष्वत्पुत्रवद्भक्त्या पितृवत्पोषकोऽभवत्।। ७४.३२ ।।

यस्य(तेषां)यतेप्सितं कामं यतायोग्यं यथाक्रमम्।
यतानुरूपं सर्वेषां शुश्रुषामकरोन्मुनिः।। ७४.३३ ।।

आज्ञया गौतमस्याऽऽसन्नोषध्यो लोकमातरः।
आराधिताः पुनस्तेन ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।। ७४.३४ ।।

जायनते च तदौषध्यो लूयन्ते च तदैव हि।
संपत्स्यन्ते तदोप्यन्ते गौतमस्य तपोबलात्।। ७४.३५ ।।

सर्वाः समृद्धयस्तस्य संसिध्यन्ते मनोगताः।
प्रत्यहं वक्ति विनयाद्गौतमस्त्वागतान्मुनीन्।। ७४.३६ ।।

पुत्रवच्छिष्यवच्चैव प्रेष्यवत्करवाणि किम्।
पितृवत्पोषयामास संवत्सरगणान्बहून्।। ७४.३७ ।।

एवं वसत्सु मुनिषु त्रैलोक्ये ख्यातिराश्रयात्।
ततो विनायकः प्राह मातरं भ्रातरं जयाम्।। ७४.३८ ।।

विनायक उवाच
देवानां सदने मातर्गीयते गौतमो द्विजः।
यन्न साध्यं सुरगणैर्गौतमः कृतवानिति।। ७४.३९ ।।

एवं श्रुतं मया देवि ब्राह्मणस्य तपोबलम्।
स विप्रश्चालयेदेनां मातर्गङ्गां जटागताम्।। ७४.४० ।।

तपसा वाऽन्यतो वाऽपि पूजयित्वा त्रिलोचनम्।
स एव च्यावयेदेनां जटास्थां मे पितृप्रियाम्।। ७४.४१ ।।

तत्र नीतिर्विधातव्या तां विप्रो याचयेद्यथा।
तत्प्रभावात्सरिच्छ्रेष्ठा शिरसोऽवतरत्यपि।। ७४.४२ ।।

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा मातरं भ्रात्रा जयया सह विघ्नराट्।
जगाम गौतम यत्र ब्रह्मसूत्रधरः कृशः।। ७४.४३ ।।

वसन्कतिपयाहःसु गौतमाश्रमममण्डले।
उवाच ब्राह्मणान्सर्वांस्तत्र तत्र च विघ्नराट्।। ७४.४४ ।।

गच्छामः स्वमधिष्ठानमाश्रमाणि शुचीनि च।
पुष्टाः स्म गौतमान्नेन पृच्छामो गौतमं मुनिम्।। ७४.४५ ।।

इति संमन्त्र्य पृच्छन्ति मुनयो मुनिसत्तमाः।
स तान्निवारयामास स्नेहबुद्ध्या मुनीन्पृथक्।। ७४.४६ ।।

गौतम उवाच
कृताञ्जलिः सविनयमासध्वमिह चैव हि।
युष्मच्चरणशुश्रूषां करोमि मुनिपुंगवाः।। ७४.४७ ।।

शुश्रुषौ पुत्रवन्नित्यं मयि तिष्ठति नोचितम्।
भवतां भूमिदेवानामाश्रमान्तरसेवनम्।। ७४.४८ ।।

इदमेवाऽऽश्रमं पुण्यं सर्वेषामिति मे मतिः।
अलमन्येन मुनय आश्रमेव गतेन वा।। ७४.४९ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं विघ्नकृत्यमनुस्मरन्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा ब्राह्मणान्स गणाधिपः।। ७४.५० ।।

गणाधिप उवाच
अन्नक्रीता वयं किं नो निवारयत गौतमः।
साम्नां नैव वयं शक्ता गन्तुं स्वं स्वं निवेशनम्।। ७४.५१ ।।

नायमर्हति दण्डं वा उपकारी द्विजोत्तमः।
तस्माद्बुद्ध्या व्यवस्यामि तत्सर्वैरनुमन्यताम्।। ७४.५२ ।।

ब्रह्मोवाच
ततः सर्वे द्विजश्रेष्ठाः क्रियतामित्यनुब्रुवन्।
एतस्य तूपकाराय लोकानां हितकाम्यया।। ७४.५३ ।।

ब्राह्मणानां च सर्वेषां श्रेयो यत्स्यात्तथाकुरु।
ब्राह्मणानां वचः श्रुत्वा मेने वाक्यं गणाधिपः।। ७४.५४ ।।

विनायक उवाच
क्रियते गुणरूपं यद्गौतमस्तु विशेषतः।। ७४.५५ ।।

ब्रह्मोवाच
अनुमान्य द्विजान्सर्वान्पुनः पुनरुदारधीः।
स्वयं च ब्राह्मणो भूत्वा प्रणम्य ब्राह्मणान्पुनः।।
मातुर्मते स्थितो विद्वाञ्जयां प्राह गणेश्वरः।। ७४.५६ ।।

विनायक उवाच
यथा नान्यो विजानीते तथा कुरु शुभानने।
गोरूपधारिणी गच्छ गौतमौ यत्र तिष्ठति ।। ७४.५७ ।।

शालीन्खाद विनाश्याथ विकारं कुरु भामिनि।
कृते प्रहारे हुंकारे प्रेक्षिते चापि किंचन।।
पत दीनं स्वनं कृत्वा न म्रियस्व न जीव च।। ७४.५८ ।।

तथा चकार विया विघ्नेश्वरमते स्थिता।
यत्राऽऽसीद्गौतमो विप्रो जया गोरूपधारिणी।। ७४.५९ ।।

जगाम शालीन्खादन्ती तां ददर्श स गौतमः।
गां दृष्ट्वा विकृतां विप्रस्तां तृणेन न्यवारयत्।। ७४.६० ।।

निवार्यमाणा सा तेन स्वनं कृत्वा पपात गौः।
तस्यां तु पतितायां च हाहाकारो महानभूत्।। ७४.६१ ।।

स्वनं श्रुत्वा च दृष्ट्वा च गौतमस्य विचेष्टितम्।
व्यथिता ब्राह्मणाः प्राहुर्विघ्नराजपुरस्कृताः।। ७४.६२ ।।

ब्राह्मणा ऊचुः
इतो गच्छामहे सर्वे न स्थातव्यं तवाऽऽश्रमे।
पुत्रवत्पोषिताः सर्वे पृष्टोऽसि मुनिपुंगव।। ७४.६३ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा मुनिर्वाक्यं विप्राणां गच्छतां तदा।
वज्राहत इवाऽऽसीत्स विप्राणां पुरतोऽपतत्।। ७४.६४ ।।

तमूचुर्ब्राह्मणाः सर्वे पश्येमां पतितां भुवि।
रुद्राणां मातरं देवीं जगतां पावनीं प्रियाम्।। ७४.६५ ।।

तीर्थदेवस्वरूपिण्यामस्यां गवि विधेर्बलात्।
पतिततायां मुनिश्रेष्ठ गन्तव्यमवशिष्यते।। ७४.६६ ।।

चोर्णं व्रतं क्षयं याति यथा वासस्त्वदाश्रमे।
वयं नान्यधना ब्रह्मन्केवलं तु तपोधनाः।। ७४.६७ ।।

ब्रह्मोवाच
विप्राणां पुरतः स्थित्वा विनीतः प्राह गौतमः।। ७४.६८ ।।

गौतम उवाच
भवन्त एव शरणं पूतं मां कर्तुमर्हथ।। ७४.६९ ।।

ब्रह्मोवाच
ततः प्रोवाच भगवान्विघ्नराड्ब्राह्मणैर्वृतः।। ७४.७० ।।

विघ्नराज उवाच
नैवेयं म्रियते तत्र नैव जीवति तत्र किम्।
वदामोऽस्मिन्सुसंदिग्धे निष्कृतिं गतिमेव वा।। ७४.७१ ।।

गौतम उवाच
कथमुत्थास्यतीयं गौरथ चास्मिंश्च निष्कृतिम्।
वक्तुमर्हथ तत्सर्वं करिष्येऽहमसंशयम्।। ७४.७२ ।।

ब्राह्मणा ऊचुः
सर्वेषां च मतेनायं वदिष्यति च बुद्धिमान्।
एतद्वाक्यमथास्माकं प्रमाणं तव गौतम।। ७४.७३ ।।

ब्रह्मोवाच
ब्राह्मणैः प्रेर्यमाणोऽसौ गौतमेन बलीयसा।
विघ्नकृद्ब्रह्मवपुषा प्राह सर्वानिदं वचः।। ७४.७४ ।।

विघ्नराज उवाच
सर्वेषां च मतेनाहं वदिष्यामि यथार्थवत्।
अनुमन्यन्तु मुनयो मद्वाक्यं गौतमोऽपि च।। ७४.७५ ।।

महेश्वरजटाजूटे ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
कम्ण्डलुस्थितं वारि तिष्ठतीति हि शुश्रुम।। ७४.७६ ।।

तदानयस्व तरसा तपसा नियमेन च।
तेनाभिषिञ्च गामेतां भगवन्भुवमाश्रिताम्।।
ततो वत्स्यामहे सर्वे पूर्ववत्तव वेश्मनि।। ७४.७७ ।।

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तवति विप्रेन्द्रे ब्राह्मणानां च संसदि।
तत्रापतत्पुष्पवृष्टिर्जयशब्दो व्यवर्धत।।
ततः कृताञ्जलिर्नम्रो गौतमो वाक्यमब्रवीत्।। ७४.७८ ।।

गौतम उवाच
तपसाऽग्निप्रसादेव देवब्रह्मप्रसादतः।
भवतां च प्रसादेन सत्संकल्पोऽनुसिध्यताम्।। ७४.७९ ।।

ब्रह्मोवाच
एवमस्त्विति तं विप्रा आपृच्छन्मुनिपुंगवम्।
स्वानि स्थानानि ते जग्मुः समृद्धान्यन्नवारिभिः।। ७४.८० ।।

यातेषु तेषु विप्रेषु भ्रात्रा सह गणेश्वरः।
जयया सह सुप्रीतः कृतकृत्यो न्यवर्तत।। ७४.८१ ।।

गतेषु ब्रह्मवृन्देषु गणेशे च गते तथा।
गौतमोऽपि मुनिश्रेष्ठस्तपसा हतकल्मषः।। ७४.८२ ।।

ध्यायंस्तदर्थं स मुनिः किमिदं मम संस्थितम्।
इत्येवं बहुशो ध्यायञ्ज्ञानेन ज्ञानवान्द्विज।। ७४.८३ ।।

निश्चित्य देवकार्यार्थमात्मनः किल्विषां गतिम्।
लोकानामुपकारं च शंभोः प्रीणनमेव च।। ७४.८४ ।।

उमायाः प्रीणनं चापि गङ्गानयनमेव च।
सर्वं श्रेयस्करं मनेये मयि नैव च किल्विषम्।। ७४.८५ ।।

इत्येवं मनसा ध्यायन्सुप्रीतोऽभूद्द्विजोत्तमः।
आराध्य जगतामीशं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम्।। ७४.८६ ।।

आनयिष्ये सरिच्छ्रेष्ठां प्रीताऽस्तु गिरिजा मम।
सपत्नी जगदम्बाया महेश्वरजटास्थिता।। ७४.८७ ।।

एवं हि संकल्प्य मुनिप्रवीरः, स गौतमो ब्रह्मगिरेर्जगाम।
कैलासमाधिष्ठितमुग्रधन्वना, सुरार्चितं प्रियया ब्रह्मवृन्दैः।। ७४.८८ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे स्वयंभ्वृषिसंवादे तीर्थमाहात्म्ये विनायकगौतमव्यापारनिरूपणं नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। ७४ ।।

गौतमीमाहात्म्ये पञ्चमोऽध्यायः।। ५ ।।