महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-004
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धुतराष्ट्रेण युधिष्ठिरंप्रति स्वस्य वनगमनाभ्यनुज्ञानप्रार्थना।। 1 ।।
युधिष्ठिरेण धृतराष्ट्रानुशोचनपूर्वकं तत्प्रतिषेधने व्यासेन युधिष्ठिरचोदनाय तत्रागमनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 15-4-1x |
न मां प्रीणयते राज्यं त्वय्येवं दुःखिते नृप। दिङ्मामस्तु सुदुर्बुद्धिं राज्यसक्तं प्रमादिनम्।। | 15-4-1a 15-4-1b |
गृहे वसन्तं दुःखार्तमुपवासकृशं भृशम्। यताहारं क्षितिशयं नाविदं भ्रातृभिः सह।। | 15-4-2a 15-4-2b |
अहोस्मि वञ्चितो मूढो भवता गूढबुद्धिना। विस्वासयित्वा पूर्वं मां यदिदं दुःखमश्नुथा।। | 15-4-3a 15-4-3b |
किं मे राज्येन भोगैर्वा किं यज्ञैः किं सुखेन वा। यस्य मे त्वं महीपाल दुखान्येतान्यवाप्तवान्।। | 15-4-4a 15-4-4b |
पीडितं चापि जानामि राज्यमात्मानमेव च। अनेन वचसा तेऽद्य दुःखितस्य जनेश्वरः।। | 15-4-5a 15-4-5b |
भवान्पिता भवान्माता भवान्नः परमो गुरुः। भवता विप्रहीणा वै क्वनु तिष्ठामहे वयम्।। | 15-4-6a 15-4-6b |
औरसो भवतः पुत्रो युयुत्सुर्नृपसत्तम। अस्तु राजा महाराज यमन्यं मन्यते भवान्।। | 15-4-7a 15-4-7b |
अहं वनं गमिष्यामि भवान्राजा प्रशास्त्विदम्। नमामयशसा दग्धं भूयस्त्वं दग्धुमर्हसि।। | 15-4-8a 15-4-8b |
नाहं राजा भवान्राजा भवता परवानहम्। कथं गुरुं त्वां धर्मज्ञमनुज्ञातुमिहोत्सहे।। | 15-4-9a 15-4-9b |
न मन्युर्हृदि नः कश्चित्सुयोधनकृतेऽनघ। भवितव्यं तथा तद्धि वयं चान्ये च मोहिताः।। | 15-4-10a 15-4-10b |
वयं पुत्रा हि भवोत यथा दुर्योधनादयः। गान्धारी चैव कुन्ती च निर्विशेषे मते मम।। | 15-4-11a 15-4-11b |
स मां त्वं यदि राजेन्द्र परित्यज्य गमिष्यसि। पृष्ठतस्त्वनुयास्यामि सत्यमात्मानमालभे।। | 15-4-12a 15-4-12b |
इयं हि वसुसंपूर्णा मही सागरमेखला। भवता विप्रहीणस्य न मे प्रीतिकरी भवेत्।। | 15-4-13a 15-4-13b |
भवदीयमिदं सर्वं शिरसा त्वां प्रसादये। त्वदधीनाः स्म राजेन्द्र व्येतु ते मानसो ज्वरः।। | 15-4-14a 15-4-14b |
भवितव्यमनुप्राप्तो मन्ये त्वं वसुधाधिप। दिष्ट्या शुश्रूषमाणस्त्वां मोक्षिष्ये मनसो ज्वरं।। | 15-4-15a 15-4-15b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 15-4-16x |
तापस्ये मे मनस्तात वर्तते कुरुनन्दन। उचितं च कुलेऽस्माकमरण्यगमनं प्रभो।। | 15-4-16a 15-4-16b |
चिरमध्युषितः पुत्र चिरं शुश्रूषितस्त्वया। वृद्धं मामप्यनुज्ञातुमर्हसि त्वं नराधिप।। | 15-4-17a 15-4-17b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-4-18x |
इत्युक्त्वा धर्मराजानं वेपमानं कृताञ्जलिम्। उवाच विदुरं राजा धृतराष्ट्रोंऽबिकासुतः।। | 15-4-18a 15-4-18b |
संजयं च महात्मानं कृपं चापि महारथम्। अनुनेतुमिहेच्छामि भवद्भिर्वसुधाधिपम्।। | 15-4-19a 15-4-19b |
म्लायते मे मनो हीदं मुखं च परिशुष्यति। वयसा च प्रकृष्टेन वाग्व्यायामेन चैव ह।। | 15-4-20a 15-4-20b |
इत्युक्त्वा स तु धर्मात्मा वृद्धो राजा कुरूद्वहः। गान्धारीं शिश्रिये धीमान्सहसैव गतासुवत्।। | 15-4-21a 15-4-21b |
तं तु दृष्ट्वा समासीनं विसंज्ञमिव कौरवम्। आर्तिं राजाऽगमत्तीव्रां कौन्तेयः परवीरहा।। | 15-4-22a 15-4-22b |
युधिष्ठिर उवाच। | 15-4-23x |
यस्य नागसहस्रेण शतसङ्ख्येन वै बलम्। सोयं नारीं व्यपाश्रित्य शेते राजा गतासुवत्।। | 15-4-23a 15-4-23b |
आयसी प्रतिमा येन भीमसेनस्य सा पुरा। चूर्णीकृता बलवता सोबलामाश्रितः स्त्रियम्।। | 15-4-24a 15-4-24b |
धिगस्तु मामधर्मज्ञं धिग्बुद्धिं धिक्च मे श्रुतम्। यत्कृते पृथिवीपालः शेतेऽयमतथोचितः।। | 15-4-25a 15-4-25b |
अहमप्युपवत्स्यामि यथैवायं गुरुर्मम। यदि राजा न भुङ्क्तेऽयं गान्धारी च यशस्विनी।। | 15-4-26a 15-4-26b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-4-27x |
ततोस्य पाणिना राजञ्जलशीतेन पाण्डवः। उरो मुखं च शनकैः पर्यमार्जत धर्मवित्।। | 15-4-27a 15-4-27b |
तेन रत्नौषधिमता पुण्येन च सुगन्धिना। पाणिस्पर्शेन राज्ञः स राजा संज्ञामवाप ह।। | 15-4-28a 15-4-28b |
स्पृशन्तं पाणिना भूयः परिष्यज्य च पाण्डवम्। `उवाच राजा धर्मज्ञो धृतराष्ट्रः शुभं वचः।।' | 15-4-29a 15-4-29b |
जीवामीवातिसंस्पर्शात्तव राजीवलोचन। मूर्धानं च तवाघ्रातुमिच्छामि मनुजाधिप। पाणिभ्यां हि परिस्प्रष्टुं प्राणानां हितमात्मनि।। | 15-4-30a 15-4-30b 15-4-30c |
अष्टमो ह्यद्य कालोऽयमाहारस्य कृतस्य मे। येनाहं कुरुशार्दूल शक्नोमि न विचेष्टितुम्।। | 15-4-31a 15-4-31b |
व्यायामश्चायमत्यर्थं कृतस्त्वामभियाचता। ततो ग्लानमनास्तान नष्टसंज्ञ इवाभवम्।। | 15-4-32a 15-4-32b |
तवामृतसुखस्पर्शं हस्तस्पर्शमिमं प्रभो। लब्ध्वा संजीवितोस्मीति मन्ये कुरुकुलोद्वह।। | 15-4-33a 15-4-33b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-4-34x |
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पित्रा ज्येष्ठेन भारत। पस्पर्श सर्वगात्रेषु स्नेहार्द्रस्तं शनैस्तदा।। | 15-4-34a 15-4-34b |
उपलभ्य ततः प्राणान्धृतराष्ट्रो महीपतिः। बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य मूर्ध्न्याजिघ्रत पाण्डवम्।। | 15-4-35a 15-4-35b |
विदुरादयश्च ते सर्वे रुरुदुर्दुःखिता भृशम्। अतिदुःखात्तु राजानं नोचुः किञ्चन पाण्डवम्।। | 15-4-36a 15-4-36b |
गान्धारी त्वेव धर्मज्ञा मनसोद्वहती भृशम्। दुःखान्यधारयद्राजन्मैवमित्येव चाब्रवीत्।। | 15-4-37a 15-4-37b |
इतरास्तु स्त्रियः सर्वाः कुन्त्या सह सुदःखिताः। नेत्रैरागतविक्लेदैः परिवार्य स्थिताऽभवन्।। | 15-4-38a 15-4-38b |
अथाब्रवीत्पुनर्वाक्यं धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम्। अनुजानीहि मां राजंस्तापस्ये भरतर्षभ।। | 15-4-39a 15-4-39b |
ग्लायते मे मनस्तात भूयोभूयः प्रजल्पतः। न मामतः परं पुत्र परिक्लेष्टुमिहार्हसि।। | 15-4-40a 15-4-40b |
तस्मिंस्तु कौरवेन्द्रे तं तथा ब्रुवति पाण्डवम्। सर्वेषामवरोधानामार्तनादो महानभूत्।। | 15-4-41a 15-4-41b |
दृष्ट्वा कृशं विवर्णं च राजानमतथोचितम्।। उपवासपरिश्रान्तं त्वगस्थिपरिवारितम्।। | 15-4-42a 15-4-42b |
धर्मपुत्रः स्वपितरं परिष्वज्य महाप्रभुम्। शोकजं बाष्पमुत्सृज्यि पुनर्वचनमब्रवीत्।। | 15-4-43a 15-4-43b |
न कामये नरश्रेष्ठ जीवितं पृथिवीं तथा। यथा तव प्रियं राजंश्चिकीर्षामि परंतप।। | 15-4-44a 15-4-44b |
यदि चाहमनुग्राह्यो भवतो दयितोऽपि वा। क्रियतां तावदाहारस्ततो वेत्स्याम्यहं परम्।। | 15-4-45a 15-4-45b |
ततोऽब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम्। अनुज्ञातस्त्वया पुत्र भुञ्जीयामिति कामये।। | 15-4-46a 15-4-46b |
इति ब्रुवति राजेन्द्रे धृतराष्ट्रे युधिष्ठिरम्। ऋषिः सत्यवतीपुत्रो व्यासोऽभ्योत्य वचोऽब्रवीत्।। | 15-4-47a 15-4-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमिवासपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः।। 4 ।। |
आश्रमवासिकपर्व-003 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्रमवासिकपर्व-005 |