महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-024
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युधिष्ठिरेण वनस्थकुन्तीधृतराष्ट्रादिदिदृक्षया द्रौपद्यादिभिः पौरैर्भ्रातृभिश्च सह वनंप्रति प्रस्थानम्।। 1 ।।
युधिष्ठिरेण वनस्थकुन्तीधृतराष्ट्रादिदिदृक्ष्या द्रौपद्यादिभिः पौरैर्भ्रातृभिश्च सह वनंप्रति प्रस्थानम्।। 1 ।। | 15-24-1x |
वैशम्पायन उवाच। | 15-24-1x |
एवं ते पुरुषव्याघ्राः पाण्डवा मातृनन्दनाः। स्मरन्तो मातरं वीरा बभूवुर्भशदुःखिताः।। | 15-24-1a 15-24-1b |
ये राजकार्येषु पुरा व्यासक्ता नित्यशोऽभवन्। ते राजकार्याणि तदा नाकार्षुः सर्वतः पुरे।। | 15-24-2a 15-24-2b |
प्रविष्टा इव शोकेन नाभ्यनन्दन्त किञ्चन। सम्भाष्यमाणा अपि ते न किञ्चित्प्रत्यपूजयन्।। | 15-24-3a 15-24-3b |
ते स्म वीरा दुराधर्षा गांभीर्ये सागरोपमाः। शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन्।। | 15-24-4a 15-24-4b |
अचिन्तयंश्च जननीं ततस्ते पाण्डुनन्दनाः। कथं नु वृद्धमिथुनं वहत्यतिकृशा पृथा।। | 15-24-5a 15-24-5b |
कथं च स महीपालो हतपुत्रो निराश्रयः। पत्न्या सह वसत्येको वने श्वापदसेविते।। | 15-24-6a 15-24-6b |
सा च देवी महाभागा गान्धारी हतबान्धवा। पतिमन्धं कथं वृद्धमन्वेति विजने वने।। | 15-24-7a 15-24-7b |
एवं तेषां कथयतामौत्सुक्यमभवत्तदा। गमने चाभवद्बुद्धिर्धृतराष्ट्रदिदृक्षया।। | 15-24-8a 15-24-8b |
सहदेवस्तु राजानं प्रणिपत्येदमब्रवीत्। अहो मे भवतो दृष्टं हृदयं गमनं प्रति। | 15-24-9a 15-24-9b |
न हि त्वां गौरवेणाहमशकं वक्तुमञ्जसा। गमनं प्रति राजेन्द्र तदिदं समुपस्थितम्।। | 15-24-10a 15-24-10b |
दिष्ट्या द्रक्ष्यामि तां कुन्तीं वर्तयन्तीं तपस्विनीम्। जटिलां तापसीं वृद्धां कुशकाशपरिक्षताम्।। | 15-24-11a 15-24-11b |
प्रासादहर्म्यसंवृद्धामत्यन्तसुखभागिनीम्। कदानुजननीं श्रान्तां द्रक्ष्यामि भृशदुःखिताम्।। | 15-24-12a 15-24-12b |
अनित्याः खलु मर्त्यानां गतयो भरतर्षभ। कुन्ती राजसुता यत्र वसत्यसुखिता वने।। | 15-24-13a 15-24-13b |
सहदेववचः श्रुत्वा द्रौपदी योषितां वरा। उवाच देवी राजानमभिपूज्याभिनन्द्य च। | 15-24-14a 15-24-14b |
कदा द्रक्ष्यामि तां देवीं यदि जीवति सा पृथा। जीवन्त्या ह्यद्य मे प्रीतिर्भविष्यति जनाधिप।। | 15-24-15a 15-24-15b |
एषा तेऽस्तु मतिर्नित्यं धर्मे ते रमतां मनः। योऽद्य त्वमस्मान्राजेन्द्र श्रेयसा योजयिष्यसि।। | 15-24-16a 15-24-16b |
अग्रपादस्थितं चेमं विद्धि राजन्वधूजनम्। काङ्क्षन्तं दर्शनं कुन्त्या गान्धार्याः श्वसुरस्च च।। | 15-24-17a 15-24-17b |
इत्युक्तः स नृपो देव्या द्रौपद्या भरतर्षभ। सेनाध्यक्षान्समानाय्य सर्वानिदमुवाच ह।। | 15-24-18a 15-24-18b |
निर्यातयत मे सेनां प्रभूतरथकुञ्जराम्। द्रक्ष्यामि वनसंस्थं च धृताष्ट्रं महीपतिम्।। | 15-24-19a 15-24-19b |
स्त्र्यध्यक्षांश्चाब्रवीद्राजा यानानि विविधानि मे। सज्जीक्रियन्तां सर्वाणि शिबिकाश्च सहस्रशः।। | 15-24-20a 15-24-20b |
शकटापणवेशाश्च कोशः शिल्पिन एव च। निर्यान्तु कोशपालाश्च कुरुक्षेत्राश्रमं प्रति।। | 15-24-21a 15-24-21b |
यश्च पौरजनः कश्चिद्द्रष्टुमिच्छति पार्थिवम्। अनावृतः सुविहितः स च यातु सुरक्षितः।। | 15-24-22a 15-24-22b |
सूदाः पौरोगवाश्चैव सर्वं चैव महानसम्। विविधं भक्ष्यभोज्यं च शकटैरुह्यतां मम।। | 15-24-23a 15-24-23b |
प्रयाणं घुष्यतां चैव श्वोभूत इति माचिरम्। क्रियतां पथि चाप्यद्य वेश्मानि विविधानि च। | 15-24-24a 15-24-24b |
एवमाज्ञाप्य राजा स भ्रातृभिः सह पाण्डवः। श्वोभूते निर्ययौ राजन्सस्त्रीवृद्धपुरःसरः।। | 15-24-25a 15-24-25b |
स बहिर्दिवसानेव जनौघं परिपालयन्। न्यवसन्नृपतिः पञ्च ततोऽगच्छद्वनं प्रति।। | 15-24-26a 15-24-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः।। 24 ।। |
15-24-17 अप्रपादस्थितं प्रयाणार्थं पुरस्कृतेनैव पादेन स्थितम्। अत्यन्तमुत्सुकमित्यर्थः।।
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