महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-036
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त्यक्तदेहानामपि कुरुपाण्डवपक्षीयाणां कथं पुनरागमनमिति जनमेजयप्रश्नस्य सोपपत्तिकमुत्तरदानम्।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 15-36-1x |
एतच्छ्रुत्वा नृपो विद्वान्हृष्टोऽभूज्जनमेजयः। पितामहानां सर्वेषां गमनागमनं तदा।। | 15-36-1a 15-36-1b |
अब्रवीच्च मुदा युक्तः पुनरागमनं प्रति। कथं न त्यक्तदेहानां पुनस्तद्रूपदर्शनम्।। | 15-36-2a 15-36-2b |
इत्युक्तः स द्विजश्रेष्ठो व्यासशिष्यः प्रतापवान्। प्रोवाच वदतांश्रेष्ठस्तं नृपं जनमेजयम्।। | 15-36-3a 15-36-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-36-4x |
अविप्रणाशः सर्वेषां कर्मणामिति निश्चयः। कर्मजानि शरीराणि शरीराकृतयस्तथा।। | 15-36-4a 15-36-4b |
महाभूतानि नित्यानि भूताधिपतिसंश्रयात्। तेषां च नित्यसंवासो न विनाशो वियुज्यताम्।। | 15-36-5a 15-36-5b |
अनाशया कृतं कर्म तस्य चेष्टः फलागमः। आत्मा चैभिः समायुक्तः सुखदुःखमुपाश्नुते।। | 15-36-6a 15-36-6b |
अविनाश्यस्तथा नित्यं क्षेत्रज्ञ इति निश्चयः। भूतानामात्मभावो यो ध्रुवोसौ संविजानताम्।। | 15-36-7a 15-36-7b |
यावन्न क्षीयते कर्म तावत्तस्य स्वरूपता। क्षीणकर्मा नरो लोके रूपान्यत्वमुपाश्नुते।। | 15-36-8a 15-36-8b |
नानाभूतास्तथैकत्वं शरीरं प्राप्य संहताः। भवन्ति ते तथा नित्याः पृथग्भावं विजानताम्।। | 15-36-9a 15-36-9b |
अश्वमेधश्रुतिश्चेयमश्वसंज्ञपनं प्रति। लोकान्तरगता नित्यं प्राणा नित्या हि वाजिनः।। | 15-36-10a 15-36-10b |
अहं हितं वदाम्येतत्प्रियं चेत्तव पार्थिव। देवयाना हि पन्थानः श्रुतास्ते यज्ञसंस्तरे।। | 15-36-11a 15-36-11b |
सुकृतो यत्र यज्ञस्ते तत्र देवा हितास्तव। यदा समन्विता देवाः पशूनां गमनेश्वराः।। | 15-36-12a 15-36-12b |
गमिमन्तश्च तेनेष्ट्वा नान्ये नित्या भवन्त्युत। नित्येऽस्मिन्पञ्चके वर्गे नित्ये चात्मनि पूरुषः।। | 15-36-13a 15-36-13b |
अस्य नाशं समायोगं यः पश्यति वृथामतिः। वियोगे शोचतेऽत्यर्थं स बाल इति मे मतिः।। | 15-36-14a 15-36-14b |
वियोगे दोषदर्शी यः संयोगं स विसर्जयेत्। असङ्गे सङ्गमो नास्ति दुःखं भावि वियोगजम।। | 15-36-15a 15-36-15b |
परापरज्ञस्त्वपरो नाभिमानादुदीक्षितः। अपरज्ञः परां बुद्धिं स्पृष्ट्वा मोहाद्विमुच्यते।। | 15-36-16a 15-36-16b |
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नाहं तं वेद्मि नासौ मां न च मेऽस्ति विरागता।। | 15-36-17a 15-36-17b |
येनयेन शरीरेणि करोत्ययमनीश्वरः। तेनतेन शरीरेण तदवश्यमुपाश्नुते। मानसं मनसाऽऽप्नोति शरीरं च शरीरवान्।। | 15-36-18a 15-36-18b 15-36-18c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।। |
15-36-10 संज्ञपनं मारणम्।। 15-36-11 नासौ मानादहङ्कारान्न च वेति विरागतामिति क.पाठः।।
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