महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-030
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व्यासन धृतराष्ट्रंप्रति कुशलादिप्रश्नपूर्वकं विदुरस्य निजस्वरूपादिप्रतिपादनम्।। 1 ।। तथा इतरमहर्षिदुष्करतदभीष्टाश्चर्यकर्मकरणप्रतिज्ञानम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 15-30-1x |
ततः समुपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु। व्यासः सत्यवतीपुत्रः प्रोवाचामन्त्र्य पार्थिवम्।। | 15-30-1a 15-30-1b |
धृतराष्ट्र महाबाहो कच्चित्ते वर्तते तपः। कच्चिन्मनस्ते प्रीणाति वनवासे नराधिप।। | 15-30-2a 15-30-2b |
कच्चिद्धृदि न ते शोको राजन्पुत्रविनाशजः। कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि सुप्रसन्नानि तेऽनघ।। | 15-30-3a 15-30-3b |
कच्चिद्बुद्धिं दृढां कृत्वा चरस्यारण्यकं विधिम्। कच्चिद्वधूश्च गान्धारी न शोकेनाभिभूयते।। | 15-30-4a 15-30-4b |
महाप्रज्ञा बुद्धिमती देवी धर्मार्थदर्शिनी। आगमापायतत्त्वज्ञा कच्चिदेषा न शोचति।। | 15-30-5a 15-30-5b |
कच्चित्कुन्ती च राजंस्त्वां शुश्रूषत्यनहङ्कृता। या परित्यज्य स्वं पुत्रं गुरुशुश्रूषणे रता।। | 15-30-6a 15-30-6b |
कच्चिद्धर्मसुतो राजा त्वया प्रत्यभिनन्दितः। भीमार्जुनयमाश्चैव कच्चिदेतेऽपि सान्तिताः।। | 15-30-7a 15-30-7b |
कच्चिन्नन्दसि दृष्ट्रैतान्कच्चिते निर्मलं मनः। कच्चिच्च शुद्धभावोसि जातज्ञानो नराधिप।। | 15-30-8a 15-30-8b |
एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत। निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च।। | 15-30-9a 15-30-9b |
कच्चित्ते न च मोहोस्ति वनवासेन भारत। स्वदत्ते वन्यमन्नं वा उपवासोपि वा भवेत्।। | 15-30-10a 15-30-10b |
विदितं चापि राजेन्द्र विदुरस्य महात्मनः। गमनं विधिनाऽनेन धर्मस्य सुमहात्मनः।। | 15-30-11a 15-30-11b |
माण्डव्यशापाद्धि स वै धर्मो विदुरतां गतः। महाबुद्धिर्महायोगी महात्मा सुमहामनाः।। | 15-30-12a 15-30-12b |
बृहस्पतिर्वा देवेषु शुक्रो वाऽप्यसुरेषु च। न तथा बुद्धिसम्पन्नो यथा स पुरुषर्षभः।। | 15-30-13a 15-30-13b |
तपोबलव्ययं कृत्वा सुचिरात्सम्भृतं तदा। माण्डव्येनर्षिणा धर्मो ह्यभिभूतः सनातनः।। | 15-30-14a 15-30-14b |
नियोगाद्ब्रह्मणः पूर्वं मया स्वेन बलेन च। वैचित्रवीर्यके क्षेत्रे जातः स सुमहामतिः।। | 15-30-15a 15-30-15b |
भ्राता तव महाराज देवदेवः सनातनः। धारणान्मनसा ध्यानाद्य धर्म कवयो विदुः।। | 15-30-16a 15-30-16b |
सत्येन संवर्धयति यो दमेन शमेन च। अहिंसया च दानेन तपसा च सनातनः।। | 15-30-17a 15-30-17b |
येन योगबलाज्जातः कुरुराजो युधिष्ठिरः। धर्म इत्येष नृपते प्राज्ञेनामितबुद्धिना।। | 15-30-18a 15-30-18b |
यथा वह्निर्यथा वायुर्यथाऽऽपः पृथिवी यथा। यथाऽऽकाशं तथा धर्म इह चामुत्र च स्थितः।। | 15-30-19a 15-30-19b |
सर्वगश्चैव राजेन्द्र सर्वं व्याप्य चराचरम्। दृश्यते देवदेवैः स सिद्धैर्निर्मुक्तकल्मषैः।। | 15-30-20a 15-30-20b |
यो हि धर्मः स विदुरो विदुरो यः स पाण्डवः। स एष राजन्दृश्यस्ते माण्डवः प्रेष्यवत्स्थितः।। | 15-30-21a 15-30-21b |
प्रविष्टः स महात्मानं भ्राता ते बुद्धिसम्मतः। दृष्ट्वा महात्मा कौन्तेयं महायोगबलान्वितः।। | 15-30-22a 15-30-22b |
त्वां चापि श्रेयसा योक्ष्ये नचिराद्भरतर्षभ। संशयच्छेदनार्थाय प्राप्तं मां विद्धि पुत्रक।। | 15-30-23a 15-30-23b |
न कृतं यैः पुरा कैश्चित्कर्म लोके महर्षिभिः। आश्चर्यभूतं तपसः फलं तद्दर्शयामि वः।। | 15-30-24a 15-30-24b |
किमिच्छसि महीपाल मत्तः प्राप्तुमभीप्सितम्। द्रष्ट्रुं स्प्रष्टुमथ श्रोतुं तत्कर्तास्मि तवानघ।। | 15-30-25a 15-30-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
15-30-6 या परित्यव्य राज्यं स्वमिति क.थ.पाठः।।
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