महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-028
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धृतराष्ट्रयुधिष्ठिराभ्यां परस्परकुशलप्रश्नादिपूर्वकं सँल्लापः।। 1 ।। युधिष्ठिरेण धृतराष्ट्रंप्रति विदुरः क्वेति प्रश्ने तत्रत्येन केनचिद्यदृच्छया धृतराष्ट्रमुपसर्पतो जनावलोकनेन प्रतिनिवर्तमानस्य च तस्य प्रदर्शनम्।। 2 ।। ततो युधिष्ठिरेणानुधावनेन तत्समीपगमनम्।। 3 ।। ततो विदुरे योगात्स्वशरीरत्यागेन तच्छरीरप्रवेशः।। 4 ।। युधिष्ठिरेण धृतराष्ट्रादिषु तदद्भुतनिवेदनम्।। 5 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 15-28-1x |
युधिष्ठिर महाबाहो कच्चित्वं कुशली ह्यसि। सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पौरजानपदैस्तथा।। | 15-28-1a 15-28-1b |
ये च त्वामनुजीवन्ति कच्चित्तेऽपि निरामयाः। सचिवा भृत्यवर्गाश्च गुरवश्चैव ते नृप।। | 15-28-2a 15-28-2b |
कच्चित्तेऽपि निरातङ्का वसन्ति विषये तव। कच्चिद्वर्तसि पौराणीं वृत्तिं राजर्षिसेविताम्।। | 15-28-3a 15-28-3b |
कच्चिन्न्यायाननुच्छिद्य कोशस्तेऽभिप्रपूर्यते। अरिमध्यस्थमित्रेषु वर्तसे चानुरूपतः। ब्राह्मणानग्रहारैर्वा यथावदनुपश्यसि।। | 15-28-4a 15-28-4b 15-28-4c |
कच्चित्ते परितुष्यन्ति शीलेनि भरतर्षभ। शत्रवोपि कुतः पौरा भृत्या वा स्वजनोपि वा।। | 15-28-5a 15-28-5b |
कच्चिद्यजसकि राजेन्द्र श्रद्धावान्पितृदेवताः। अतिथीनन्नपानेनि कच्चिदर्चसि भारत।। | 15-28-6a 15-28-6b |
कच्चिन्नयपथे विप्राः स्वकर्मनिरतास्तव। क्षत्रिया वैश्यवर्णा वा शूद्रा वाऽपि कुटुम्बिनः।। | 15-28-7a 15-28-7b |
कच्चित्स्त्रीबालवृद्धं ते न शोचति न याचते। जामयः पूजिताः कच्चित्तव गेहे नरर्षभ।। | 15-28-8a 15-28-8b |
कच्चिद्राजर्षिवंशोऽयं त्वामासाद्य महीपतिम्। यथोचितं महाराज यशसा नावसीदति।। | 15-28-9a 15-28-9b |
वैशण्पायन उवाच। | 15-28-10x |
इत्येवादिनं तं स न्यायवित्प्रत्यभाषत। कुशलप्रश्नसंयुक्तं कुशलो वाक्यमब्रवीत्।। | 15-28-10a 15-28-10b |
युधिष्ठिर उवाच। | 15-28-11x |
अपि ते वर्धते राजंस्पपो मन्दः श्रमश्च ते ।। | 15-28-11a |
अपि मे जननी चेयं शुश्रूषुर्विगतक्लमा। अथास्याः सफलो राजन्वनवासो भविष्यति।। | 15-28-12a 15-28-12b |
इयं च माता ज्येष्ठा मे शीतवाताध्वकर्शिता। घोरेण तपसा युक्ता देवी कच्चिन्न शोचति।। | 15-28-13a 15-28-13b |
हतान्पुत्रान्महावीर्यान्क्षत्रधर्मपरायणान्। नापध्यायति वा कच्चिदस्मान्पापकृतः सदा।। | 15-28-14a 15-28-14b |
क्व चासौ विदुरो राजन्नेमं पश्यामहे वयम्। संजयः कुशली चायं कच्चिन्नु तपसि स्थिरः।। | 15-28-15a 15-28-15b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-28-16x |
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं धृतराष्ट्रो जनाधिपम्। कुशली विदुरः पुत्र तपो घोरं समाश्रितः।। | 15-28-16a 15-28-16b |
वायुभक्षो निराहारः कृशो धमनिसंततः। कजाचिद्दृश्यते विप्रैः शून्येऽस्मिन्कानने क्वचित्।। | 15-28-17a 15-28-17b |
इत्येवं ब्रुवतस्तस्य जटी वीटामुखः कृशः। दिग्वासा मलदिग्धाङ्गो वनरेणुसमुक्षितः।। | 15-28-18a 15-28-18b |
दूरादालक्षितः क्षत्ता तत्राख्यातो महीपतेः। `कविदुरस्त्वेष धर्मात्मा जनं दृष्ट्वा निवर्तते।।' | 15-28-19a 15-28-19b |
निवर्तमानं सहसा जनं दृष्ट्वाऽऽश्रमं प्रति। तमन्वधावन्नृपतिरेक एव युधिष्ठिरः। प्रविशन्तं वनं घोरं लक्ष्यालक्ष्यं क्वचित्क्वचित्।। | 15-28-20a 15-28-20b 15-28-20c |
भोभो विदुर राजाऽहं दयितस्ते युधिष्ठिरः। इति ब्रुवन्नरपतिस्तं यत्नादभ्यधावत।। | 15-28-21a 15-28-21b |
ततो विविक्त एकान्ते तस्थौ बुद्धिमतां वरः। विदुरो वृक्षमाश्रित्य कञ्चित्तत्र वनान्तरे।। | 15-28-22a 15-28-22b |
तं राजा क्षीणभूयिष्ठमाकृतीमात्रसूचितम्। अभिजज्ञे महाबुद्धिं महाबुद्धिर्युधिष्ठिरः।। | 15-28-23a 15-28-23b |
युधिष्ठिरोऽहमस्मीति वाक्यमुक्त्वाऽग्रतः स्थितः। विदुरस्याश्रमे राजा स च प्रत्याह संज्ञया।। | 15-28-24a 15-28-24b |
ततः सोऽनिमिषो भूत्वा राजानं तमुदैक्षत। संयोज्य विदुरस्तस्मिन्दृष्टिं दृष्ट्या समाहितः।। | 15-28-25a 15-28-25b |
विवेश विदुरो धीमान्गात्रैर्गात्राणि चैव ह। प्राणान्प्राणेषु च दधदिन्द्रियाणीन्द्रियेषु च।। | 15-28-26a 15-28-26b |
स योगबलमास्थाय विवेश नृपतेस्तनुम्। विदुरो धर्मराजस्य तेजसा प्रज्वलन्निव।। | 15-28-27a 15-28-27b |
विदुरस्य शरीरं तु तथैव स्तब्धलोचनम्। वृक्षाश्रितं तदा राजा ददर्श गतचेतनम्।। | 15-28-28a 15-28-28b |
बलवन्तं तथाऽऽत्मानं मेने बहुगुणं तदा। धर्मराजो महातेजास्तच्च सस्मार पाण्डवः।। | 15-28-29a 15-28-29b |
पौराणमात्मनः सर्वं भविष्यं च विशाम्पते। योगधर्मं महातेजा व्यासेन कथिनं यथा।। | 15-28-30a 15-28-30b |
धर्मराजश्च तत्रैनं सञ्चस्कारयिषुस्तदा। दग्धुकामोऽभवद्विद्वानथ वागभ्यभाषत।। | 15-28-31a 15-28-31b |
भोभो राजन्न दग्धव्यमेतद्विदुरसंज्ञकम्। कलेबरमिहैवं ते धर्म एष सनातनः।। | 15-28-32a 15-28-32b |
लोको वैकर्तनो नाम भविष्यत्यस्य भारत। यतिधर्ममवाप्तोसौ नैष शोच्यः परंतप।। | 15-28-33a 15-28-33b |
इत्युक्तो धर्मराजः स विनिवृत्य ततः पुनः। राज्ञो वैचित्रवीर्यस्य तत्सर्वं प्रत्यवेदयत्।। | 15-28-34a 15-28-34b |
ततः स राजा धृतिमान्स च सर्वो जनस्तदा। भीमसेनादयश्चैव परं विस्मियमागताः।। | 15-28-35a 15-28-35b |
तच्छ्रुत्वा प्रीतिमान्राजा भूत्वा धर्मजमब्रवीत्। आपो मूलं फलं चैव ममेदं प्रतिगृह्यताम्।। | 15-28-36a 15-28-36b |
यदन्नो हि नरो राजंस्तदन्नोऽस्यातिथिः स्मृतः। इत्युक्तः स तथेत्येवं प्राह धर्मात्मजो नृपम्।। | 15-28-37a 15-28-37b |
फलं मूलं च बुभुजे राज्ञा दत्तं सहानुजः। ततस्ते वृक्षमूलेषु कृतवासपरिग्रहाः। तां रात्रिमवसन्सर्वे फलमूलजलाशनाः।। | 15-28-38a 15-28-38b 15-28-38c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः।। 28 ।। |
15-28-4 कच्चिदायाननुच्छिद्येति क.पाठः।। 15-28-8 जामयः सौभाग्यवत्यः।। 15-28-18 वीटा पाषाणकवलः। वनदिग्धाङ्गो वानरैरुपलक्षित इति थ.पाठः।। 15-28-29 तच्च स्वस्य विदुरस्य च एकस्यैव धर्मस्यांशाज्जातत्वं सस्मार।। 15-28-30 योगधर्मं सस्मारेत्यनुषज्यते।। 15-28-31 संचस्कारयिषुः संस्कारं लम्भयितुमिच्छुः।। 15-28-33 लोकास्सान्तानिकानाम भविष्यन्त्यस्येति झ.पाठः। यतिधर्मो दाहाद्ययोग्यत्वम्।।
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