महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-032
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कुन्त्या व्यासंप्रति स्वस्मिन्दुर्वासःप्रसादेन सूर्यात्कर्णस्योत्पत्तिकथनपूर्वकं स्वस्य तद्दिदृक्षानिवेदनम्।। 1 ।। व्यासेन कुन्तींप्रति हेतूपन्यासेन तत्प्रयुक्तदोषशङ्कानिरसनम्।। 2 ।।
कुन्त्युवाच। | 15-32-1x |
भगवञ्श्वशुरो मेऽसि दैवतस्यापि दैवतम्। स मे देवातिदेवस्त्वं शृणु सत्यां गिरं मम।। | 15-32-1a 15-32-1b |
तपस्वी कोपनो विप्रो दुर्वासा नाम मे पितुः। भिक्षामुपागतो भोक्तुं तमहं पर्यतोषयम्।। | 15-32-2a 15-32-2b |
शौचने त्वागसस्त्यागैः शुद्धेन मनसा तथा। कोपस्थानेष्वपि महत्स्वकुप्यन्न कदाचन।। | 15-32-3a 15-32-3b |
स प्रीतो वरदो मेऽभूत्कृतकृत्यो महामुनिः। अवश्यं ते ग्रहीतव्यमिति मां सोब्रवीद्वचः।। | 15-32-4a 15-32-4b |
ततः शापभयाद्विप्रमवोचं पुनरेव तम्। एवमस्त्विति च प्राह पुनरेव स मे द्विजः।। | 15-32-5a 15-32-5b |
धर्मस्य जननी भद्रे भवित्री त्वं शुभानने। वशे स्थास्यन्ति ते देवा यांस्त्वमावाहयिष्यसि।। | 15-32-6a 15-32-6b |
इत्युक्त्वाऽन्तर्हितो विप्रस्ततोऽहं विस्मिताऽभवम्। न च सर्वास्ववस्थासु स्मृतिर्मे विप्रणश्यति।। | 15-32-7a 15-32-7b |
अथ हर्म्यतलस्थाऽहं रविमुद्यन्तमीक्षती। संस्मृत्य तदृषेर्वाक्यं स्पृहयन्ती दिवाकरम्।। | 15-32-8a 15-32-8b |
स्थिताऽहं बालभावेन तत्र दोषमबुद्ध्यती। अथ देवः सहस्रांशुर्मत्समीपगतोऽभवत्।। | 15-32-9a 15-32-9b |
द्विधा कृत्वाऽऽत्मनो देहं भूमौ च गगनेऽपि च। तताप लोकानेकेन द्वितीयेनागमत्स माम्।। | 15-32-10a 15-32-10b |
स मामुवाच वेपन्तीं वरं मत्तो वृणीष्व ह। गम्यतामिति तं चाहं प्रणम्य सिरसाऽवदम्।। | 15-32-11a 15-32-11b |
स मामुवाच तिग्मांशुर्वृथाऽऽह्वानं न मे क्षमम्। धक्ष्यामि त्वां च विप्रं च येन दत्तो वरस्तव।। | 15-32-12a 15-32-12b |
तमहं रक्षती विप्रं शापादनपकारिणम्। पुत्रो मे त्वत्समो देव भवेदिति ततोऽब्रवम्।। | 15-32-13a 15-32-13b |
ततो मां तेजसाऽऽविश्य मोहयित्वा च भानुमान्। उवाच भविता पुत्रस्तवेत्यभ्यगमद्दिवम्।। | 15-32-14a 15-32-14b |
ततोऽहमन्तर्भवने पितुश्चित्तानुरक्षिणी। गूढोत्पन्नं सुतं बालं जले कर्णमवासृजम्।। | 15-32-15a 15-32-15b |
नूनं तस्यैव देवस्य प्रसादात्पुनरेव तु। कन्याऽहमभवं विप्र यथा प्राह स मामृषिः।। | 15-32-16a 15-32-16b |
स मया सूढया पुत्रो ज्ञायमानोऽप्युपेक्षितः। तन्मां दहति विप्रर्षे यथा सुविदितं तव।। | 15-32-17a 15-32-17b |
यदि पापमपापं वा यदेतद्विवृतं मया। तं द्रष्टुमिच्छामि भगवन्व्यपनेतुं त्वमर्हसि।। | 15-32-18a 15-32-18b |
यच्चास्य राज्ञो विदितं हृदिस्थं भवतोऽनघ। तं चायं लभतां काममद्यैव मुनिसत्तम।। | 15-32-19a 15-32-19b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो वेदविदांवरः। साधु सर्वमिदं भाव्यमेवमेतद्यथाऽऽत्थ माम्।। | 15-32-20a 15-32-20b |
अपराधश्च ते नास्ति कन्याभावं गता ह्यसि। देवाश्चैश्वर्यवन्तो वै शरीराण्याविशन्ति वै।। | 15-32-21a 15-32-21b |
सन्ति देवनिकायाश्च संकल्पाज्जनयन्ति ये। वाचा दृष्ट्या तथा स्पर्शात्संघर्षेणेति पञ्चधा।। | 15-32-22a 15-32-22b |
मनुष्यधर्मो दैवेन धर्मेण हि न दुष्यति। इति कुन्ति विजानीहि व्येतु ते मानसो ज्वरः।। | 15-32-23a 15-32-23b |
सर्वं बलवतां पथ्यं सर्वं बलवतां शुचि। सर्वं बलवतां धर्मः सर्वं बलवतां स्वकम्।। | 15-32-24a 15-32-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।। |
15-32-3 आगसस्त्यागैरपराधत्यागैः।। 15-32-22 सघर्षेण रत्या।।
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