महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-009
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धृतराष्टेण युधिष्ठिरात्सकलपौरजनानयनेन स्वस्य वनजिगमिषानिवेदनपूर्वकं तान्प्रात तदभ्यनुज्ञानप्रार्थना।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 15-9-1x |
एवमेतत्करिष्यामि यथाऽऽत्थ पृथिवीपते। भूयश्चैवानुशास्योऽहं भवता पार्थिवर्षभ।। | 15-9-1a 15-9-1b |
भीष्मे स्वर्गमनुप्राप्तो गते च मधुसूदने। विदुरे संजये चैव कोऽन्यो मां वक्तुमर्हति।। | 15-9-2a 15-9-2b |
यत्तु मामनुशास्तीह भवानद्य हिते स्थितः। कर्तास्मि तन्महीपाल निर्वृतो भव पार्थिव।। | 15-9-3a 15-9-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-9-4x |
एवमुक्तः स राजर्षिर्धर्मराजेन धीमता। कौन्तेयं समनुज्ञातुमियेष भरतर्षभ।। | 15-9-4a 15-9-4b |
पुत्र विश्राम्यतां तावन्ममापि बलवाञ्श्रमः। इत्युक्त्वा प्राविशद्राजा गान्धार्या भवनं तदा।। | 15-9-5a 15-9-5b |
तमासनगतं देवी गान्धारी धर्मचारिणी। उवाच काले कालज्ञा प्रजापतिसमं पतिम्।। | 15-9-6a 15-9-6b |
अनुज्ञातः स्वयं तेन व्यासेनि त्वं महर्षिणा। युधिष्ठिरस्यानुमते कदाऽरण्यं गमिष्यसि।। | 15-9-7a 15-9-7b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 15-9-8x |
गान्धार्यहमनुज्ञातः स्वयं पित्रा महात्मना। युधिष्ठिरस्यानुमते गन्तास्मि नचिराद्वनम्।। | 15-9-8a 15-9-8b |
अहं हि तावत्सर्वेषां तेषां दुर्द्यूतदेविनाम्। पुत्राणां दातुमिच्छामि प्रेत्यभावानुगं वसु। सर्वप्रकृतितिसान्निध्यं कारयित्वा स्ववेश्मनि।। | 15-9-9a 15-9-9b 15-9-9c |
वैशम्पायन उवाच। | 15-9-10x |
इत्युक्त्वा धर्मराजाय प्रेषयामास वै तदा। स च तद्वचनात्सर्वं समानिन्ये महीपतिः।। | 15-9-10a 15-9-10b |
ततः प्रतीतमनसो ब्राह्मणाः कुरुजाङ्गलाः। क्षत्रियाश्चैव वैश्याश्च शूद्राश्चैव समाययुः।। | 15-9-11a 15-9-11b |
ततो निष्क्रम्य नृपतिस्तस्मादन्तःकपुरात्तदा। दद्दशे तं जनं सर्वं सर्वाश्च प्रकृतीस्तथा।। | 15-9-12a 15-9-12b |
समवेतांश्च तान्सर्वान्पौराञ्जानपदांस्तथा। तानागतानभिप्रेक्ष्य समस्तं च सुहृञ्जनम्।। | 15-9-13a 15-9-13c |
ब्राह्मणांश्च महीपाल नानादेशसमागतान्। उवाच मतिमान्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।। | 15-9-14a 15-9-14b |
भवन्तः कुरुवश्चैव चिरकालं सहोषिताः। परस्परस्य सुहृदः परस्परहिते रताः।। | 15-9-15a 15-9-15b |
यदिदानीमहं ब्रूयामस्मिन्काल उपस्थिते। तथा भवद्भिः कर्तव्यमविचार्य वचो मम।। | 15-9-16a 15-9-16b |
अरण्यगमने बुद्धिर्गान्धारीसहितस्य मे। व्यासस्यानुमते राज्ञस्तथा कुन्तीसुतस्य मे।। | 15-9-17a 15-9-17b |
भवन्तोप्यनुजानन्तु मान्या वोऽभूद्विचारणा।। | 15-9-18a |
अस्माकं भवतां चैव येयं प्रीतिर्हि शाश्वती। न च साऽन्येषु देशेषु राज्ञामिति मतिर्मम।। | 15-9-19a 15-9-19b |
शान्तोस्मि वयसाऽनेन तथा पुत्रविनाकृतः। उपवासकृशश्चास्मि गान्धारीसहितोऽनघाः।। | 15-9-20a 15-9-20b |
युधिष्ठिरगते राज्ये प्राप्तश्चास्मि सुखं महत्। मन्ये दुर्योधनैश्वर्याद्विशिष्टं बहुभिर्गुणैः।। | 15-9-21a 15-9-21b |
मम चान्धस्य वृद्धस्य हतपुत्रस्य का गतिः। ऋते वनं महाभागास्तन्माऽनुज्ञातुमर्हथ।। | 15-9-22a 15-9-22b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्वे ते कुरुजाङ्गलाः। बाप्पसंदिग्धया वाचा रुरुदुर्भरतर्षभ।। | 15-9-23a 15-9-23b |
तानविब्रुवतः किञ्चित्सर्वाञ्शोकपरायणान्। पुनरेव महातेजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम्।। | 15-9-24a 15-9-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि नवमोऽध्यायः।। 9 ।। |
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