महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-038
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धृतराष्ट्रेण पुत्रदर्शनानन्तरं युधिष्ठिरादिभिः सह पुनः स्वाश्रमंप्रत्यागमनम्।। 1 ।। व्यासेन धृताष्ट्रंप्रति युधिष्ठिरादीनां नगरप्रस्थापनचोदना।। 2 ।। नगरंप्रति पुनरागमनमनिच्छतापि युधिष्ठिरेण धृतराष्ट्रस्य कुन्तीगान्धार्योश्च निदेशनिर्बन्धेन पुनः सर्वैःसह हास्तिनपुरं प्रत्यागमनम्।। 3 ।।
जनमेजय उवाच। | 7-38-1x |
दृष्ट्वा पुत्रांस्तथा पौत्रान्सानुबन्धाञ्जनाधिपः। धृतराष्ट्रः किमकरोद्राजा चैव युधिष्ठिरः।। | 7-38-1a 7-38-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 7-38-2x |
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं पुत्राणां दर्शनं पुनः। वीतशोकः स राजर्षिः पुनराश्रममागमत्।। | 7-38-2a 7-38-2b |
इतरस्तु जनः सर्वस्ते चैव परमर्षयः। प्रतिजग्मुर्यथाकामं धृताराष्ट्राभ्यनुज्ञया।। | 7-38-3a 7-38-3b |
पाण्डवास्तु महात्मानो लघुभूयिष्ठसैनिकाः। अनुजग्मुर्महात्मानं सदारास्तं महीपतिम्।। | 7-38-4a 7-38-4b |
तमाश्रमगतं धीमान्ब्रह्मर्षिर्लोकपूजितः। द्वैपायनोऽभ्युपागम्य राजानमिदम्नब्रवीत्।। | 7-38-5a 7-38-5b |
धृताष्ट्र महाबाहो शृणु कौरवनन्दन। श्रुतास्ते ज्ञानवृद्धानामृषीणां पुण्यकर्मणाम्।। | 7-38-6a 7-38-6b |
अद्धाभिजनवृद्धानां वेदवेदाङ्गवेदिनाम्। धर्मज्ञानां पुराणानां वदतां विविधाः कथाः।। | 7-38-7a 7-38-7b |
मा स्म शोके मनः कार्षीर्दिष्टे न व्यथते बुधः। श्रुतं देवरहस्यं ते नारदाद्देवदर्शनात्।। | 7-38-8a 7-38-8b |
गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूतां गतिं शुभाम्। यथा दृष्टास्त्वया पुत्रास्तथा कामविहारिणः।। | 7-38-9a 7-38-9b |
युधिष्ठिरः स्वयं धीमान्भवन्तमनुरुध्यते। सहितो भ्रातृभिः सर्वैःइ सदारः ससुहृज्जनः।। | 7-38-10a 7-38-10b |
विसर्जयैनं यात्वेष स्वराज्यमनुशासताम्। मासः समधिकस्तेषामतीतो वसतां वने।। | 7-38-11a 7-38-11b |
एतद्धि नित्यं यत्नेन पदं रक्ष्यं नराधिप। बहुप्रत्यर्थिकं ह्येतद्राज्यं नाम कुरूद्वह।। | 7-38-12a 7-38-12b |
इत्युक्तः कौरवो राजा व्यासेनामितबुद्धिना। युधिष्ठिरमथाहूय वाग्मी वचनमब्रवीत्।। | 7-38-13a 7-38-13b |
अजातशत्रो भद्रं ते शृणु मे भ्रातृभिः सह। त्वत्प्रसादान्महीपाल शोको नास्मान्प्रबाधते।। | 7-38-14a 7-38-14b |
रमे चाहं त्वया पुत्र पुरेव गजसाहये। नाथेनानुगतो विद्वन्प्रियेषु परिवर्तिना।। | 7-38-15a 7-38-15b |
प्राप्तं पुत्रफलं त्वत्तः प्रीतिर्मे परमा त्वयि। न मे मन्युर्महाबाहो गम्यतां मा चिरं कृथाः।। | 7-38-16a 7-38-16b |
भवन्तं चेह संप्रेक्ष्य तपो मे परिहीयते। उपयुक्तं शरीरं च त्वां दृष्ट्वा धारितं पुनः।। | 7-38-17a 7-38-17b |
मातरौ ते तथैवेमे शीर्णपर्णकृताशने। मम तुल्यव्रते पुत्र न चिरं वर्तयिष्यतः।। | 7-38-18a 7-38-18b |
दुर्योधनप्रभृतयो दृष्टा लोकान्तरं गताः। व्यासस्य तपसो वीर्याद्भवतश्च समागमात्।। | 7-38-19a 7-38-19b |
प्रयोजनं चिरं वृत्तं जीवितस्य ममानघ। उग्रं तपः समास्थास्येत्वमनुज्ञातुमर्हसि।। | 7-38-20a 7-38-20b |
त्वय्यद्य पिण्डः कीर्तिश्च कुलं चेदं प्रतिष्ठितम्। श्वोवाऽद्य वा महाबाहो गम्यतां माचिरं कृथाः।। | 7-38-21a 7-38-21b |
राजनीतिः सुबहुशः श्रुता ते भरतर्षभ। संदेष्टव्यं न पश्यामि कृतमेतावता विभो।। | 7-38-22a 7-38-22b |
वैशम्पायन उवाच। | 7-38-23x |
इत्युक्तवचनं तं तु नृपो राजानमब्रवीत्। न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम्।। | 7-38-23a 7-38-23b |
कामं गच्छन्तु मे सर्वे भ्रातरोऽनुचरास्तथा। भवन्तमहमन्विष्ये मातरौ च यतव्रतः।। | 7-38-24a 7-38-24b |
तमुवाचाथ गान्धारी मैवं पुत्र शृणुष्व च। त्वय्यधीनं कुरुकुलं पिण्डश्च श्वशुरस्य मे।। | 7-38-25a 7-38-25b |
गम्यतां पुत्र पर्याप्तमेतावत्पूजिता वयम्। राजा यदाह तत्कार्यं त्वया पुत्र पितुर्वचः।। | 7-38-26a 7-38-26b |
वैशम्पायन उवाच। | 7-38-27x |
इत्युक्तः स तु गान्धार्या कुन्तीमिदमभाषत। स्नेहबाष्पाकुले नेत्रे परिमृज्य विनीतवत्।। | 7-38-27a 7-38-27b |
विसर्जयति मां राजा गान्धारी च यशस्विनी। भवत्यां बद्धचित्तस्तु कथं यास्यामि दुःखितः।। | 7-38-28a 7-38-28b |
न चोत्सहे तपोविघ्नं कर्तुं ते धर्मचारिणि। तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत्।। | 7-38-29a 7-38-29b |
ममापि न तथा राज्ञि राज्ये बुद्धिर्यथा पुरा। तपस्येवानुरक्तं मे मनः सर्वात्मना तथा।। | 7-38-30a 7-38-30b |
शून्येयं च मही कृत्स्ना न मे प्रीतिकरी शुभे। बान्धवा नः परिक्षीणा बलं नो न यथा पुरा।। | 7-38-31a 7-38-31b |
पाञ्चालाः सुभृशं क्षीणाः कन्यामात्रावशेषिताः। न तेषां कुलकर्तारं कञ्चित्पश्याम्यहं शुभे।। | 7-38-32a 7-38-32b |
सर्वे हि भस्मासान्नीतास्ते द्रोणेन रणाजिरे। अवशिष्टाश्च निहता द्रोणपुत्रेण वै निशि। चेदयश्चैव मत्स्याश्च दृष्टपूर्वास्तथैव नः।। | 7-38-33a 7-38-33b 7-38-34c |
केवलं वृष्णिचक्रं च वासुदेवपरिग्रहात्। यद्दृष्ट्वा स्थातुमिच्छामि धर्मार्थं नार्थहेतुतः।। | 7-38-34a 7-38-34b |
शिवेन पश्य नः सर्वान्दुर्लभं तव दर्शनम्। भविष्यत्यंब राजा हि तीव्रं चारप्स्यते तपः।। | 7-38-35a 7-38-35b |
एतच्छ्रुत्वा महाबाहुः सहदेवो युधांपतिः। युधिष्ठिरमुवाचेदं बाष्पव्याकुललोचनः।। | 7-38-36a 7-38-36b |
नोत्सहेऽहं परित्यक्तुं मातरं भरतर्षभ। प्रतियातु भवान्क्षिप्रं तपस्तप्स्याम्यहं वने।। | 7-38-37a 7-38-37b |
इहैव शोषयिष्यामि तपसेदं कलेवरम्। पादशुश्रूषणेरक्तो राज्ञो मात्रोस्तथाऽनयोः।। | 7-38-38a 7-38-38b |
तमुवाच ततः कुन्ती परिष्वज्य महाभुजम्। गम्यतां पुत्र मैवं त्वं वोचः कुरु वचो मम।। | 7-38-39a 7-38-39b |
आगमा वः शिवाः सन्तु स्वस्था भवत पुत्रकाः। उपरोधो भवेदेवमस्माकं तपसः कृते।। | 7-38-40a 7-38-40b |
त्वत्स्नेहपाशबद्धा च हीयेयं तपसः परात्। तस्मात्पुत्रक गच्छ त्वं शिष्टमल्पं च नः प्रभो।। | 7-38-41a 7-38-41b |
एवं संस्तंभितं वाक्यैः कुन्त्या बहुविधैर्मनः। सहदेवस्य राजेन्द्र राज्ञश्चैव विशेषतः।। | 7-38-42a 7-38-42b |
ते मात्रा समनुज्ञाता राज्ञा च कुरुपुङ्गवाः। अभिवाद्य कुरुश्रेष्ठमामन्त्रयितुमारभन्।। | 7-38-43a 7-38-43b |
युधिष्ठिर उवाच। | 7-38-44x |
राज्यं प्रति गमिष्यामः शिवेन प्रतिनन्दितः। अनुज्ञातास्त्वया राजन्गमिष्यामो विकल्मषाः।। | 7-38-44a 7-38-44b |
एवमुक्तः स राजर्षिर्धर्मराज्ञा महात्मना। अनुयज्ञे जयाशीर्भिः पूजयित्वा युधिष्ठिरम्।। | 7-38-45a 7-38-45b |
भीमं च बलिनां श्रेष्ठं सान्त्वयामास पार्थिवः। स चास्य सम्यङ्मेधावी प्रत्यपद्यत वीर्यवान्।। | 7-38-46a 7-38-46b |
अर्जुनं च समाश्लिष्य यंमौ च भरतर्षभौ। अनुयज्ञे स कौरव्यः परिष्वज्याभिनन्द्य च।। | 7-38-47a 7-38-47b |
गान्धार्या चाभ्यनुज्ञाताः कृतपादाभिवादनाः। जनन्या समुपाघ्राताः परिष्वक्ताश्च ते नृपम्।। | 7-38-48a 7-38-48b |
चक्रुः प्रदक्षिणं सर्वे वत्सा इव निवारणे। पुनः पुनर्निरीक्षन्तः प्रचक्रुस्ते प्रदक्षिणम्।। | 7-38-49a 7-38-49b |
द्रौपदीप्रमुखाश्चैव सर्वाः कौरवयोषितः। न्यायतः श्वशुरे वृत्तिं प्रयुज्य प्रययुस्ततः।। | 7-38-50a 7-38-50b |
श्वश्रूभ्यां समनुज्ञाताः परिष्वज्याभिनन्दिताः।। संदिष्टाश्चेतिकर्तव्यं प्रययुर्भर्तृभिः सह।। | 7-38-51a 7-38-51b |
ततः प्रजज्ञे निनदः सूतानां युज्यतामिति। उष्ट्राणां क्रोशतां चापि हयानां हेषतामपि।। | 7-38-52a 7-38-52b |
ततो युधिष्ठिरो राजा सदारः सहसैनिकः। नगरं हास्तिनपुरं पुनरायात्सबान्धवः।। | 7-38-53a 7-38-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः।। 38 ।। | |
।। समाप्तं चेदं पुत्रदर्शनपर्व।। 2 ।। |
7-38-12 बहवः प्रत्यर्थिनः प्रार्थयानाः शत्रवो यत्र तत्।। 7-38-15 नाथेन त्वया।। 7-38-24 अन्विष्ये सेविष्ये।। 7-38-32 कथामात्रावशेषिता इति झ.पाठः।। 7-38-35 अविषह्यं च राजा हीति झ.पाठः।। 7-38-41 श्रेयसः परादीति क.ट.पाठः। शिष्ठमायुरिति शेषः।। 7-38-49 निवारणे स्तनपानादिति शेषः।। 7-38-50 तथैव द्रौपदी भद्रा पाण्ड्यजा भुजगेन्द्रजेति क.ठ.थ.पाठः।।
आश्रमवासिकपर्व-037 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्रमवासिकपर्व-039 |