महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-017
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धृतराष्ट्रस्य वनप्रस्थानसमये विदुरसंजयाभ्यामपि वनवासाय तेन सह प्रस्थानम्।। 1 ।। तथा कुन्त्यापि युधिष्ठिरादिभिर्बहुधा प्रार्थनाभिः प्रतिषेधनेपि तत्समाश्वासनपूर्वकं गान्धार्या सह वनंप्रति प्रस्थानम्।। 2 ।।
धृतराष्ट्रस्य वनप्रस्थानसमये विदुरसंजयाभ्यामपि वनवासाय तेन सह प्रस्थानम् ।। 1 ।। | |
तथा कुन्त्यापि युधिष्ठिरादिभिर्बहुधा प्रार्थनाभिः प्रतिषेधनेपि तत्समाश्वासनपूर्वकं गान्धार्या सह वनंप्रति प्रस्थानम्।। 2 ।। | |
वैशम्पायन उवाच। | 15-17-1x |
ततः प्रासादहर्म्येषु वसुधायां च पार्थिव। नारीणां च नराणां च निःस्वनः सुमहानभूत्।। | 15-17-1a 15-17-1b |
स राजा राजमार्गेण नृनारीसंकुलेन च। कथञ्चिन्निर्ययौ धीमान्वेपमानः कृताञ्जलिः।। | 15-17-2a 15-17-2b |
स वर्धमानद्वारेणि निर्ययौ गजसाह्वयात्। विसर्जयामास च तं जनौघं स मुहुर्मुहुः।। | 15-17-3a 15-17-3b |
वनं गन्तुं च विदुरो राज्ञा सह कृतक्षणः। संजयश्च महामात्रः सूतो गावल्गणिस्तथा।। | 15-17-4a 15-17-4b |
ककृपं निवर्तयामास युयुत्सुं च महारथम्। धृताराष्ट्रो महीपालः परिदाप्य युधिष्ठिरे।। | 15-17-5a 15-17-5b |
निवृत्ते पौरवर्गे च राजा सान्तःपुरस्तदा। धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो निवर्तितुमियेष ह।। | 15-17-6a 15-17-6b |
सोब्रवीन्मातरं कुन्तीमुपेत्य भरतर्षभ।। अहं राजानमन्विष्ये भवती विनिवर्तताम्।। | 15-17-7a 15-17-7b |
वधूपरिवृता राज्ञि नगरं गन्तुमर्हसि। राजा यात्वेष धर्मात्मा तपसे कृतनिश्चयः।। | 15-17-8a 15-17-8b |
इत्युक्ता धर्मराजेनि बाष्पव्याकुललोचना। जगामैव तदा कुन्ती गान्धारीं परिगृह्य ह।। | 15-17-9a 15-17-9b |
कुन्त्युवाच। | 15-17-10x |
सहदेवे महाराज माऽप्रसादं कृथाः क्वचित्। एष मामनुरक्तो हि राजंस्त्वां चैव सर्वदा।। | 15-17-10a 15-17-10b |
कर्णं स्मरेथाः सततं सङ्ग्रामेष्वपलायिनम्। अवकीर्णो हि स मया वीरो दुष्प्रज्ञया तदा।। | 15-17-11a 15-17-11b |
आयसं हृदयं नूनं मन्दाया मम पुत्रक। यत्सूर्यजमपश्यन्त्याः शतधा न विदीर्यते।। | 15-17-12a 15-17-12b |
एवं गते तु किं शक्यं मया कर्तुमरिंदम। मम दोषोऽयमत्यर्थं ख्यापितो यन्न सूर्यजः।। | 15-17-13a 15-17-13b |
तन्निमित्तं महाबाहो दानं दद्यास्त्वमुत्तमम्। सदैव भ्रातृभिः सार्धं सूर्यजस्यारिमर्दन।। | 15-17-14a 15-17-14b |
द्रौपद्याश्च प्रिये नित्यं स्थातव्यमरिकर्शन। भीमसेनोऽर्जुनश्चैव नकुलश्च कुरूद्वह।। | 15-17-15a 15-17-15b |
समाधेयास्त्वया राजंस्त्वय्यद्य कुलधूर्गता। श्वश्रूश्वशुरयोः पादाञ्शुश्रूषन्ती वने त्वहम्। गान्धारीसहिता वत्स्ये तापसी मलपङ्किनी।। | 15-17-16a 15-17-16b 15-17-16c |
वैशम्पायन उवाच। | 15-17-17x |
एवमुक्तः स धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो वशी। विषादमगमद्धीमान्न च किञ्चिदुवाच ह।। | 15-17-17a 15-17-17b |
मुहूर्तमिव तु ध्यात्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। उवाच मतारं दीनश्चिन्ताशोकपरायणः।। | 15-17-18a 15-17-18b |
किमिदं ते व्यवसितं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि। न त्वामभ्यनुजानामि प्रसादं कर्तुमर्हसि।। | 15-17-19a 15-17-19b |
व्यचोदयः पुराऽस्माकमुत्साहं शुभदर्शने। विदुलाया वचोभिस्त्वं नास्मान्संत्यक्तुमर्हसि।। | 15-17-20a 15-17-20b |
निहत्य पृथिवीपालान्राज्यं प्राप्तमिदं मया। तव प्रज्ञामुपश्रुत्य वासुदेवान्नरर्षभात्।। | 15-17-21a 15-17-21b |
क्व सा बुद्धिरियं चाद्य भवत्या या श्रुता मया। क्षत्रधर्मे स्थितं त्यक्त्वा न प्रयातुमिहार्हसि।। | 15-17-22a 15-17-22b |
अस्मानुत्सृज्य राज्यं च स्नुषाहीना यशस्विनि। कथं वत्स्यसि दुर्गेषु वनेष्वद्य प्रसीद मे।। | 15-17-23a 15-17-23b |
इति बाष्पकला वाचः कुन्ती पुत्रस्य शृण्वती। जगामैवाश्रुपूर्णाक्षी भीमस्तामिदमब्रवीत्।। | 15-17-24a 15-17-24b |
यदा राज्यमिदं कुन्ति भोक्तव्यं पुत्रनिर्जितम्। प्राप्तव्या राजधर्माश्च तदेयं ते कुतो मतिः।। | 15-17-25a 15-17-25b |
किं वयं कारिताः पूर्वं भवत्या पृथिवीक्षयम्। कस्य हेतोः परित्यज्य वनं गन्तुमभीप्ससि।। | 15-17-26a 15-17-26b |
वनाच्चापि किमानीता भवत्या बालका वयम्। दुःखशोकसमाविष्टौ माद्रीपुत्राविमौ तथा।। | 15-17-27a 15-17-27b |
प्रसीद मातर्मा गास्त्वं वनमद्य यशस्विनि। श्रियं यौधिष्ठिरीं मातर्भुङ्क्ष्व पार्थबलार्जिताम्।। | 15-17-28a 15-17-28b |
इति सा निश्चितैवाशु वनवासकृततक्षणा। लालप्यतां बहुविधं पुत्राणां नाकरोद्वचः।। | 15-17-29a 15-17-29b |
द्रौपदी चान्वयाच्छ्वश्रूं विषष्णवदना तदा। वनवासाय गच्छन्तीं रुदती भद्रया सह।। | 15-17-30a 15-17-30b |
सा पुत्रान्रुदतः सर्वान्मुहुर्मुहुरवेक्षती। जगामैव महाप्राज्ञा वनाय कृतनिश्चया।। | 15-17-31a 15-17-31b |
अन्वयुः पाण्डवास्तां तु सभृत्यान्तःपुरास्तथा। ततः प्रमृज्य साऽश्रूणि पुत्रान्वचनमब्रवीत्।। | 15-17-32a 15-17-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।।
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