महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-013
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भीमे दुर्योधनादिभ्यः श्राद्धदानाय धनदानमरोचयति सति युधिष्ठिरेण विदुरंप्रति धृतराष्ट्रे निजगृहकोशाद्धनदाननिवेदनकथनम्।। 1 ।।
अर्जुन उवाच। | 15-13-1x |
भीम ज्येष्ठो गुरुर्मे त्वं नातोऽन्यद्वमुक्तुमुत्सहे। धृताराष्ट्रस्तु राजर्षिः सर्वथा मानमर्हति।। | 15-13-1a 15-13-1b |
न स्मरन्त्यपराद्धानि स्मरन्ति सुकृतान्यपि। असंभिन्नार्थमर्यादाः साधवः पुरुषोत्तमाः।। | 15-13-2a 15-13-2b |
इति तस्य वचः श्रुत्वा फल्गुनस्य महात्मनः। विदुरं प्राह धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 15-13-3a 15-13-3b |
इदं मद्वचनात्क्षत्तः कौरवं ब्रूहि पार्थिवम्। यावदिच्छति पुत्राणां दातुं तावद्ददाम्यहम्।। | 15-13-4a 15-13-4b |
भीष्मादीनां च सर्वेषां सुहृदामुपकारिणाम्। मम कोशादिति विभो मा भूद्भीमः सुदुर्मनाः।। | 15-13-5a 15-13-5b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-13-6x |
इत्युक्त्वा धर्मराजस्तमर्जुनं प्रत्यपूजयत्। भीमसेनः कटाक्षेण वीक्षांचक्रे धनंजयम्।। | 15-13-6a 15-13-6b |
ततः स विदुरं धीमान्वाक्यमाह युधिष्ठिरः। न भीमसेन कोपं स नृपतिः कर्तुमर्हति।। | 15-13-7a 15-13-7b |
परिक्लिष्टो हि भीमस्तु हिमवृष्ट्यातपादिभिः। दुःखैर्बहुविधैर्धीमानरण्ये विदितं तव।। | 15-13-8a 15-13-8b |
किंतु मद्वचनाद्ब्रूहि राजानं भरतर्षभम्।। यद्यदिच्छसि यावच्च गृह्यतां मद्गृहादिति।। | 15-13-9a 15-13-9b |
यन्मात्सर्यमयं भीमः करोति भृशदुःखितः। न तन्मनसि कर्तव्यमिति वाच्यः स पार्थिवः।। | 15-13-10a 15-13-10b |
यन्ममास्ति धनं किञ्चिदर्जुनस्य च वेश्मनि। तस्य स्वामी महाराज इति वाच्यः स पार्थिवः।। | 15-13-11a 15-13-11b |
ददातु राजा विप्रेभ्यो यथेष्टं क्रियतां व्ययः। पुत्राणां सुहृदां चैव गच्छत्वानृण्यमद्य सः।। | 15-13-12a 15-13-12b |
इदं चापि शरीरं मे तवायत्तं जनाधिप। धनानि चेति विद्धि त्वं क्षत्तर्नास्त्यत्र संशयः।। | 15-13-13a 15-13-13b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः।।। 13 ।। |
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