महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-014
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विदुरेण धृतराष्ट्रंप्रति युधिष्ठिरेण भीष्मादीनां श्राद्धदानाय धनदानाङ्गीकरणनिवेदनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 15-14-1x |
एवमुक्तस्तु राज्ञा स विदुरो बुद्धिसत्तमः। धृतराष्ट्रमुपेत्यैव वाक्यमाह महार्थवत्।। | 15-14-1a 15-14-1b |
उक्तो युधिष्ठिरो राजा भवद्वचनमादितः। स च संश्रुत्य वाक्यं ते प्रशशंस महाद्युतिः।। | 15-14-2a 15-14-2b |
बीभत्सुश्च महातेजा निवेदयति ते गृहान्। वसु तस्य गृहे यच्च प्राणानपि च केवलान्।। | 15-14-3a 15-14-3b |
धर्मराजश्च पुत्रस्ते राज्यं प्राणान्धनानि च। अनुजानाति राजर्षे यच्चान्यदपि किञ्चन।। | 15-14-4a 15-14-4b |
भीमस्तु सर्वदुःखानि संस्मृत्य बहुलान्युत। कृच्छ्रादिव महाबाहुरनुजज्ञे विनिःश्वसन्।। | 15-14-5a 15-14-5b |
र राजन्धर्मशीलेन राज्ञा बीभत्सुना तथा। अनुनीतो महाबाहुः सौहृदे स्थापितोपि च।। | 15-14-6a 15-14-6b |
न च मन्युस्त्वया कार्य इति त्वां प्राह धर्मराट्। संस्मृत्य भीमस्तद्वैरं यदन्यायवदाचरत्।। | 15-14-7a 15-14-7b |
एवंप्रायो हि धर्मोऽयं क्षत्रियाणां नराधिप। शुद्धे क्षत्रियधर्मे न निरतोऽयं वृकोदरः।। | 15-14-8a 15-14-8b |
वृकोदरकृते चाहमर्जुनश्च पुनः पुनः। प्रसीद याचे नृपते भवान्प्रभुरिहास्ति यत्।। | 15-14-9a 15-14-9b |
तद्ददातु भवान्वित्तं यावदिच्छसि पार्थिवः। त्वमीश्वरो नो राज्यस्य प्राणानामपि भारत।। | 15-14-10a 15-14-10b |
ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पुत्राणामौर्ध्वदेहिकम्। इतो रत्नानि गाश्चैव दासीदासमजाविकम्।। | 15-14-11a 15-14-11b |
अर्चयित्वा कुरुश्रेष्ठो ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छतु। दीनान्धकृपणेभ्यश्च तत्रतत्र नृपाज्ञया।। | 15-14-12a 15-14-12b |
बह्वन्नरसपानाढ्याः सभा विदुर कारय। गवां निपानान्यन्यच्च विविधं पुण्यकं कुरु।। | 15-14-13a 15-14-13b |
इति मामब्रवीद्राजा पार्थश्चैव धनंजयः। यदत्रानन्तरं कार्यं तद्भवम्ववक्तुमर्हति।। | 15-14-14a 15-14-14b |
इत्युक्ते विदुरेणाथ धृतराष्ट्रोऽभिनन्द्य तान्। मनश्चक्रे महादाने कार्तिक्यां जनमेजय।। | 15-14-15a 15-14-15b |
।। इती श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।। |
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