महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-033

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पञ्चादशपर्व
महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-033
वेदव्यासः
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व्यासेन गान्धारींप्रति समरहतानां दुर्योधनादीनां सर्वेषां रात्रौ प्रदर्शनप्रतिज्ञानपूर्वकं धृतराष्ट्रादीनां विशिष्य गन्धर्वाद्यंशत्वकथनम्।। 1 ।। धृतराष्ट्रादिभिर्व्यासवचनाद्गङ्गातीरमेत्य बन्धुदर्शनौत्कण्ठ्येन कृच्छ्रादहर्यापनम्। 2 ।।

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व्यास उवाच। 15-33-1x
भद्रे द्रक्ष्यसि गान्धारि पुत्रान्भ्रातॄन्स्वकान्गणान्।
वधूश्च पतिभिः सार्धं निशि सुप्तोस्थिता इव।।
15-33-1a
15-33-1b
कर्णं द्रक्ष्यति कुन्ती च सौभद्रं चापि यादवी।
द्रौपदी पञ्चपुत्रांश्च पितॄन्भ्रातॄंस्तथैव च।।
15-33-2a
15-33-2b
पूर्वमेवैष हृदये व्यवसायोऽभकवन्मम।
यदाऽस्मि चोदितो राज्ञा भवत्या पृथयैव च।।
15-33-3a
15-33-3b
न ते शोच्या महात्मानः सर्व एव नरर्षभाः।
क्षत्रधर्मपराः सन्तस्तथा हि निधनं गताः।।
15-33-4a
15-33-4b
भवितव्यमवश्यं तत्सुरकार्यमनिन्दिते।
अवतेरुस्ततः सर्वे देवा भागैर्महीतलम्।।
15-33-5a
15-33-5b
गन्धर्वाप्सरसश्चैव पिशाचा गुह्यराक्षसाः।
तथा पुण्यजनाश्चैव सिद्धा देवर्षयोपि च।।
15-33-6a
15-33-6b
देवाश्च दानवाश्चैव तथा देवर्षयोऽमलाः।
ते एते निधनं प्राप्ताः कुरुक्षेत्रे रणाजिरे।।
15-33-7a
15-33-7b
गन्धर्वराजो यो धीमान्धृतराष्ट्र इति श्रुतः।
स एव मानुषे लोके धृतराष्ट्रः पतिस्तव।।
15-33-8a
15-33-8b
पाण्डुं मरुद्गणाद्विद्धि विशिष्टतममच्युतम्।
धर्मस्यांशोऽभवत्क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः।।
15-33-9a
15-33-9b
कलिं दुर्योधनं विद्धि शकुनिं द्वापरं नृपम्।
दुःशासनादीन्विद्धि त्वं राक्षसान्शुभदर्शने।।
15-33-10a
15-33-10b
मरुद्गणाद्भीमसेनं बलवन्तमरिंदमम्।
विद्धिं त्वं तु नरमृषिमिमं पार्थं धनंजयम्।
नारायणं हृषीकेशमश्विनौ यमजौ तथा।।
15-33-11a
15-33-11b
15-33-11c
द्विधा कृत्वाऽऽत्मनो देहमादित्यं तपतां वरम्।
लोकांश्च तापयानं वै कर्णं विद्धि पृथासुतम्।।
15-33-12a
15-33-12b
यः स वैरार्थमुद्भूतः संघर्षजननस्कतथा।
तं कर्णं विद्धि कल्याणि भास्करं शुभदर्शने।।
15-33-13a
15-33-13b
यश्च पाण्डवदायादो हतः षङ्मिर्महारथैः।
स सोम इह सौभद्रो योगादेवाभवद्द्विधा।।
15-33-14a
15-33-14b
द्रौपद्या सह संभूतं धृष्टद्युम्नं च पावकात्।
अग्रेर्भागं शुभं विद्धि राक्षसं तु शिखण्डिनम्।।
15-33-15a
15-33-15b
द्रोणं बृहस्पतेर्भागं विद्धि द्रौणिं च रुद्रजम्।
गाङ्गेयो वसुवीर्येण देवो मानुषतां गतः।।
15-33-16a
15-33-16b
एवमेते महाप्रज्ञे देवा मानुष्यमेत्य हि।
ततः पुनर्गताः स्वर्गं कृते कर्मणि शोभने।।
15-33-17a
15-33-17b
यच्च वै हृदि सर्वेषां दुःखमेतच्चिरं स्थितम्।
तदद्य व्यपनेष्यामि परलोककृताद्भयात्।।
15-33-18a
15-33-18b
सर्वे भवन्तो गच्छन्तु नदीं भागीरथीं प्रति।
तत्र द्रक्ष्यथ तान्सर्वान्ये हतास्तत्र संयुगे।।
15-33-19a
15-33-19b
वैशम्पायन उवाच। 15-33-20x
इति व्यासस्य वचनं श्रुत्वा सर्वा जनस्तदा।
महता सिंहनादेन गङ्गामभिमुखो ययौ।।
15-33-20a
15-33-20b
धृतराष्ट्रश्च सामात्यः प्रययौ सह पाण्डवैः।
सहितो मुनिशार्दूलैर्गन्धर्वैश्च समागतैः।।
15-33-21a
15-33-21b
ततो गङ्गां समासाद्य क्रमेण स जनार्णवः।
निवासमकरोत्सर्वो यथाप्रीति यथासुखम्।।
15-33-22a
15-33-22b
राजा च पाण्डवैः सार्धमिष्टे देशे सहानुगः।
निवासमकरोद्धीमान्सस्त्रीवृद्धपुरःसरः।।
15-33-23a
15-33-23b
जगाम तदहस्चापि तेषां वर्षशतं यथा।
निशां प्रतीक्षमाणानां दिदृक्षूणां मृतान्नृपान्।।
15-33-24a
15-33-24b
अथ पुण्यं गिरिवरमस्तमभ्यगमद्रविः।
ततः कृताभिषेकास्ते नैशं कर्म समाचरन्।।
15-33-25a
15-33-25b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि
पुत्रदर्शनपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।।
आश्रमवासिकपर्व-032 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्रमवासिकपर्व-034