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लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः

चतुर्थोऽध्यायः - 4
श्रीः[1]---
निर्मलाकाशकल्पाहं निःसमानन्दचिन्मयी।
अहं नारायणी नाम भावोऽहं तादृशो[2] हरेः ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - - - -
[1. श्रीरुवाच B. ]
[2. तादृशी B. ]
न शान्ता नोदिता नापि मध्यमाहं चिदात्मिका।
तादृशस्य हरेर्विष्णोः स्वरूपमशिलात्मनः ।। 2 ।।
2. - - - - - - - - - - - -
[3]तस्याचित्रैकरूपस्य विकल्पपदवीजुषः।
अचित्राहं तदाकारा सर्वतः समतां गता ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - -
[3. तस्य चित्रैक E. I. ]
तयोर्नौ संविदात्मैव व्कचिदुन्मेष उत्थितः।
कोटिकोटिसहस्रौघकोटिकोटितमी कला ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - -
सिसृक्षा नाम तद्रूपा सृष्टिमिष्टां करोम्यहम्।
एकांशेन विशुद्धाध्वरूपा वर्तेऽहमञ्जसा ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - - - -
वज्ररत्नप्रभा यद्वत्परिस्फुरति सर्वतः।
एवं शुद्धमयो मार्गो मम स्फुरति सर्वतः[4] ।। 6 ।।
6. - - - - - - - - - - - - - -
[4. रूपतः A. B. C. G. I. ]
[5]अमेघाकाशसंकाशान्निष्पन्दोदधिरूपतः।
मम ज्ञानघनाद्रूपाच्छुद्धा[6] सृष्टिः प्रवर्तते ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - - -
[5. अमेया A. B. ]
[6. शुद्ध A. G. ]
[7]निर्व्यापारं सदानन्दं शुद्धं सर्वात्मकं परम्।
व्यज्यते प्रथमं ज्ञानं स संकर्षण उच्यते ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - -
[7. निर्वासनं E. I. ]
हेत्वन्तरानपेक्षं यत् स्वातन्त्र्यं विश्वनिर्मितौ।
तदैश्वर्यं तदासीन्मे प्रद्युम्रः पुरुषोत्तमः ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - -
निलीनचित्ररूपा या सर्वत्र समवस्थिता।
अव्याहतासीच्छक्तिर्मे सोऽनिरुद्धः प्रकीर्तितः ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - - -
सृष्टिस्थित्यन्तकर्तारो विज्ञानैश्वर्यशक्तयः।
मम रूपममी देवाः पुरुषाः पुष्करेक्षणाः ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - -
अतरह्गार्णवाभासमस्ताम्भोदाम्बरोपमम्[8]।
रूपं सिसृक्षमाणाया वासुदेवो ममादिमम्[9] ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - - - -
[8. अनम्भोदाम्बरोपमम् E. I. ]
[9. ममात्मकः A. G. ]
ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजांस्यशेषतः।
उन्मिषन्ति यदा तुल्यं वासुदेवस्तदोच्यते ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - -
तेषां ज्ञानबलोन्मेषे[10] संकर्षण उदीर्यते।
बिभर्ति सकलं विश्वं तिलकालकवत्स्वतः ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
[10. बलोन्मेषः E. ]
बलमित्येव तन्नाम ततो वेदान्तशब्दितम्।
वीर्यैश्वर्यसमुन्मेषे[11] प्रद्युम्नः परिकीर्तितः ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - -
[11. समुन्मेषः E. I. ]
विकारविरहो वीर्यमविकारी ततश्च सः।
शक्तितेजःसमुन्मेषे ह्यनिरुद्धः स ईरितः[12] ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - - - -
[12. समीरितः E. I. ]
तेजस्त्वन्यानपेक्षत्वमनिरुद्धत्वमप्युत[13]।
शास्त्रं [14]संकर्षणादेव भाति निर्घातशब्दवत् ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - - - -
[13. अतः E. I. ]
[14. संकर्षणाद्देवात् E. I. ]
तत्क्रिया सकला देवात्प्रद्युम्नात् संभवेद्यतः[15]।
क्रियाफलमशेषं तदनिरुद्धात्प्रचक्षते ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - -
[15. संभवत्युत E. I. ]
सृजते ह्यनिरुद्धोऽत्र प्रद्युम्नः पाति तत्कृतम्।
सृष्टं तद्रक्षितं चात्ति स च संकर्षणः प्रभुः ।। 19 ।।
19. अत्रानिरुद्धस्य सृष्टिकर्तृत्वं प्रद्युम्नस्य पालनकर्तृत्वं चोच्यते। पूर्वं तु द्वितीयाध्याये अनिरुद्धस्य पालनकर्तृत्वं प्रद्युम्नस्य सृष्टिकर्तृत्वं चोक्तम्। तत्तु कल्पान्तरेणेति ध्येयम्।
सृष्टिस्थित्यन्तकार्येण शास्त्रधर्मफलेन च।
अनुग्रहमिमे देवाः सदा विदधते स्वयम् ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - -
यद्यप्येकगुणोन्मेषस्तथाप्येते[16] हि षड्‌गुणाः।
अन्यूनानधिकाः सर्वे वासुदेवात्सनातनात्[17] ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - - - -
[16. तदाप्येते E. ]
[17. सनातनाः A. B. D. ]
अङ्गप्रत्यङ्गबुद्ध्यादिर्नैषां भूतमयः स्मृतः।
षाड्‌गुण्यमय एवैषां दिव्यो देहः सनातनः ।। 22 ।।
22. बुद्धिरत्रान्तः करणम्। `नैषां भूतमयः' इति वचनेन "न भूतसङ्घसंस्थानो देहोऽस्य परमात्मनः" इति शान्तिपर्ववचनं स्मारितम्।
नैवैषां वास्तवो भेदश्चिन्तनीयो दिवस्पते[18]।
तत्तत्कार्यप्रसिद्ध्यर्थं कृतोऽसौ कल्पनावशात् ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - -
[18. विपश्चिता E. I. ]
ज्ञानान्नान्यत्तथैश्वर्यं तस्मान्नान्या च शक्तिका।
मयैताः कल्पिताः शक्र [19]ध्यानविश्रामभूमयः ।। 24 ।।
24. ध्यानेति। उपासकानां यथारुच्यालम्बनदानाय तत्र भेदपरिकल्पनेत्यर्थः।
[19. ध्येयाः A. B. C. D. ]
वस्तु पूर्वं ततो भावः पश्चादर्थस्ततः क्रिया।
चातूरूप्यमिदं ज्ञेयं सर्वभावेषु सर्वदा ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - -
वासुदेवादिरूपेण चतुर्धात्मानमात्मना।
संविभज्यावतिष्ठेऽहं [20]सर्वमावृत्य संविदा ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - - - -
[20. सर्वदा A. C. D; सर्वदा सत्य B. ]
वासुदेवादयो देवाः प्रत्येकं तु त्रिधा त्रिधा।
केशवादिस्वरूपेण विभजन्ति स्वकं वपुः ।। 27 ।।
27. एवं च केशवादिदामोदरान्ता द्वादशापि व्यूहान्तरभूता ध्येयाः।
एतद्व्यूहान्तरं नाम पञ्चरात्राभिशब्दितम्।
[21]कार्यस्य नयने देवा द्वादशैते व्यवस्थिताः ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - - - -
[21. कालस्य E. ]
विभोरप्यनिरुद्धस्य हिताय जगतां हरेः।
प्रसरो विभवो नाम पद्मनाभादयः स्मृताः ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - -
आविश्याविश्य कुरुते यत्र देवनरादिकम्।
जगद्धितं जगन्नाथस्तज्ज्ञेयं विभवान्तरम् ।। 30 ।।
30. `देवनरादिकम्' इत्यनेन दत्तात्रेयबादरायणादीनामपि विभवान्तरत्वं ध्येयम्।
देवर्षिपितृसिद्धाद्यैः स्वयं वा जगतां हिते।
निर्मितं भगवद्रूपमर्चा सा शुद्धचिन्मयी ।। 31 ।।
31. स्वयमित्यनेन स्वयंव्यक्तक्षेत्रस्थार्चा गृह्यन्ते।
इत्येष लेशतो मार्गः शुद्धस्ते संप्रदर्शितः।
त्रैगुण्यमपरं मार्गं गदन्त्या मे निशामय ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - -
यत्ते ज्ञानं पुरा प्रोक्तं तत्सत्त्वेन विवर्तते।
रजस्तया तदैश्वर्यं शक्तिश्चापि तमस्तया ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - - - - -
प्राधान्येन रजस्तत्र सृष्टौ संपरिवर्तते।
अभितः सत्त्वतमसी गुणौ द्वौ तस्य तिष्ठतः ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - - - -
या सा पूर्वं मया प्रोक्ता कोटिकोटितमी कला।
तस्याः कोटितमेनाहमंशेन विसृजे जगत् ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - -
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्रिगुणाहं महेश्वरी।
रजोरूपमधिष्ठाय सृष्टिमिष्टां करोम्यहम् ।। 36 ।।
36. अनेन त्रिगुणजगत्सृष्टिकर्तृत्वदशायां महालक्ष्मीसमाख्येति ज्ञायते।
अग्नीषोममयौ भावौ दिव्यौ स्रीपुंसलक्षणौ।
बिभ्रती चारुसर्वाङ्गी लोकानां हितकाम्यया ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - - -
चतुर्भुजा विशालाक्षी तप्तकाञ्चनसंनिभा।
मातुलङ्गं गदां खेटं सुधापात्रं च बिभ्रती ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - -
महालक्ष्मीः समाख्याता साहं सर्वाङ्गसुन्दरी।
महाश्रीः सा महालक्ष्मीश्चण्डा चण्डी च चण्डिका ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - - - -
भद्रकाली तथा भद्रा काली दुर्गा महेश्वरी।
त्रिगुणा भगवत्पत्नी तथा भगवती परा ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - -
एताः संज्ञास्तथा चान्यास्तत्र मे बहुधा स्मृताः।
विकारयोगादन्याश्च तास्ता वक्ष्याम्यशेषतः ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - - -
लक्षयामि जगत्सर्वं पुण्यापुण्ये कृताकृते।
[22]महनीया च सर्वत्र महालक्ष्मीः प्रकीर्तिता ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - - - - -
[22. महती या B. ]
महद्भिः श्रयणीयत्वान्महाश्रीरिति [23]गद्यते।
चण्डस्य दयिता चण्डी चण्डत्वाच्चण्डिका मता ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - - - - -
[23. गीयते E. ]
कल्याणरूपा भद्रास्मि काली च कलनात्सताम्।
द्विषतां कालरूपत्वादपि काली प्रकीर्तिता ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - - -
सुहृदां द्विषतां चैव युगपत्सदसद्विधेः।
भद्रकाली समाख्याता मायास्चर्यगुणात्मिका ।। 45 ।।
45. मायाश्चर्येति। अनेनाश्चर्यावहत्वं मायाशब्दार्थ इत्युक्तं भवति। अनेन मायाशब्दस्य मिथ्यार्थकल्वकल्पनं वार्यते।
महत्त्वाच्च महामाया मोहनान्मोहिनी मता।
दुर्गा च दुर्गमत्वेन भक्तरक्षाविधेरपि ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - -
योजनाच्चैव योगाहं योगमाया च कीर्तिता।
मायायोगेति विज्ञेया ज्ञानयोजनतो नृणाम् ।। 47 ।।
47. ज्ञानयोजनत इति। अनेन "माया वयुनं ज्ञानम्" इति यास्कवचनात् मायाशब्दस्य ज्ञानार्थकत्वमुक्तं भवति। "संभवाम्यात्ममायया" इत्यत्र आत्मसंकल्पेनेत्यर्थवर्णनमप्येतन्मूलकमेव।
पूर्णषाड्‌गुण्यरूपत्वात्साहं भगवती स्मृता।
भगवद्यज्ञसंयोगात्पत्नी भगवतोऽस्म्यहम् ।। 48 ।।
48. यज्ञसंयोगादिति। "पत्युर्नो यज्ञसंयोगे" इत्यनुसासनसिद्धं रूपम्। भगवद्यज्ञस्च आश्रितजनरक्षणरूपो ज्ञेयः। तत्रास्याः संयोगः पुरुषकारत्वादिना।
विशालत्वात्स्मृता व्योम पूरणाच्च पुरी स्मृता[24]।
परावरस्वरूपत्वात् स्मृता चाहं परावरा ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - - - -
[24. पुरः स्थिता A. B. C. G. ]
शकनाच्छक्तिरुक्ताहं राज्ञ्यहं [25]रञ्जनात् सदा।
सदा शान्तविकारत्वाच्छान्ताहं परिकीर्तिता ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - - -
[25. राजनात् B. ]
मत्तः प्रक्रियते विश्वं प्रकृतिः सास्मि कीर्तिता।
श्रयन्ती श्रयणीयास्मि श्रृणामि दुरितं सताम् ।। 51 ।।
51. "श्रि श्रयणे" "शॄ हिंसायाम्" इति च धातुः।
शृणोमि करुणां वाचं शृणामि च गुणैर्जगत्।
[26](शयेऽन्तः) सर्वभूतानां रमेऽहं पुण्यकर्मणाम् ।। 52 ।।
52. "श्रु श्रवणे" "शॄ प्रीणने" "शी स्वप्ने" "रम्‌ क्रीडायाम्" इति धातवो विवक्षिताः। श्रीनाम्नि शकारविवरणम्---शयेऽन्तरिति। रेफविवरणम्---रमेऽहमिति।
[26. All the Mss. and the printed book read wrongly श्रयते. ]
ईडिता च सदा देवैः शरीरं चास्मि वैष्णवम्।
एतान्मयि गुणान् दृष्ट्वा वेदवेदान्तपारगाः ।। 53 ।।
53. ईकारविवरणम्---ईडितेति। "ईड स्तुतौ" इति धातुः। विष्णोः शरीरं रूपमित्यर्थः।
गुणयोगविधानज्ञाः श्रियं मां संप्रचक्षते।
साहमेवंविधा नित्या सर्वाकारा सनातनी ।। 54 ।।
54. - - - - - - - - - - - -
गुणत्रयमधिष्ठात्री त्रिगुणा परिकीर्तिता।
[27]गुणवैषम्यसर्गाय प्रवृत्ताहं सिसृक्षया ।। 55 ।।
55. - - - - - - - - - - - - -
[27. गुणैर्वैषम्य A. B. C. D. ]
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
निरालोकमिमं लोकं पूरयामि स्वतेजसा ।। 56 ।।
56. - - - - - - - - - - - -
शून्यं तदखिलं लोकं स्वेन पूरयितुं पुरा।
भरामि त्वपरं रूपं तमसा केवलेन तु ।। 57 ।।
57. - - - - - - - - - - - -
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा [28]दंष्ट्राञ्चितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा ।। 58 ।।
58. - - - - - - - - - - - -
[28. दंष्टान्वित A. B. C. D. ]
खड्‌गपात्रशिरःखेटैरलंकृतमहाभुजा।
कबन्धहारा शिरसि बिभ्राणाहिशिरःस्रजम् ।। 59 ।।
59. - - - - - - - - - - - -
सा मां प्रोवाच संभूता तामसी प्रमदोत्तमा।
[29]नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः ।। 60 ।।
60. - - - - - - - - - - - - - - - -
[29. शान्तिः added before नाम I. ]
श्रीः[30]---
तामब्रवं वरारोहां तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते ।। 61 ।।
[30. A. B. C. F. omit श्रीः ]
महाकाली महामाया महामारी क्षुधा तृषा[31]।
निद्रा कृष्णा[32] चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया ।। 62 ।।
62. - - - - - - - - - - - - - -
[31. क्रिया A. B. C. F. ]
[32. तृष्णा A. B. C. F. ]
एतानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि नामभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्नुते सुखम् ।। 63 ।।
63. - - - - - - - - - - - - - - -
अपर्याप्तमिमं सर्गं मन्यमानाहमादिमम्।
सत्त्वोन्मेषमयं रूपं भरामि स्मेन्दुसंनिभम् ।। 64 ।।
64. - - - - - - - - - - - - - -
अक्षमालाङ्‌कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नाम कर्म तदा ह्यदाम् ।। 65 ।।
65. - - - - - - - - - - - - - -
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्नी महाधेनुर्वेदगर्भा च धीश्च गीः[33] ।। 66 ।।
66. - - - - - - - - - - - - - - -
[33. A. B. C. read wrongly वेदभागाश्चगश्व धीः; गीश्च धीः I. ]
नामानुरूपं [34]कर्म स्यात् [35]सात्त्विक्याः कार्यमद्भुतम्।
वयं तिस्रो जगद्धात्र्यो मातरश्च प्रकीर्तिताः ।। 67 ।।
67. - - - - - - - - - - - - - -
[34. कर्मास्याः E. G. ]
[35. सात्वत्याः A. B. C. D. ]
इति [36]श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे [37]महालक्ष्मीसमुद्भूतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः
[36. श्रीपाञ्चरात्रे I.; श्रीपञ्चरात्र A. ]
[37. A. B. C. D. F. omit the title; सृष्टिद्वयप्रकाशः G. ]
********इति चतुर्थोऽध्यायः********