लक्ष्मीतन्त्रम्/अध्यायः ४६
← अध्यायः ४५ | लक्ष्मीतन्त्रम् अध्यायः ४६ [[लेखकः :|]] |
अध्यायः ४७ → |
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः - 46
श्रीः---
अनुक्रमेण देवेश लक्ष्म्यादीनां च साधनम्।
विविधानि च कर्माणि तन्मन्त्रेभ्योऽवधारय ।। 1 ।।
1. आदिशब्देन कीर्तिजयामाया गृह्यन्ते।
चतुरश्रं चतुर्द्वारं कृत्वा पूर्वोदितं पुरम्।
तन्मध्येऽष्टदलं पद्मं लिखेच्छुक्लारुणप्रभम् ।। 2 ।।
2. पुरनिर्माणमाह---चतुरश्रमित्यादिना।
सितानि चतुरालिख्य कोणेषु स्वस्तिकानि च।
व्यापकत्वेन तु पुरा मणिबन्धमुखादितः ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - -
विन्यस्य मूलमन्त्रं च हस्ते देहे च केवलम्।
पश्चादादौ च{1} हस्ताभ्यां लक्ष्मीमन्त्रं तथा न्यसेत् ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - - - - - -
{1. तु B. C. }
तदङ्गानि च विन्यस्य हस्ते देहे यथा पुरा।
तस्यानुगचतुष्कं यद्देवीनां तदनु न्यसेत् ।। 5 ।।
5. अनुगेति। ऋद्ध्यादिचतुष्कमन्त्रमित्यर्थः।
प्रदेशिन्यादितो हस्तद्वये तदनु विग्रहे।
उत्तमाङ्गे तु {2}हृन्मध्य ऊर्वोर्जानुद्वये तथा ।। 6 ।।
6. - - - - - - - - - - - - - -
{2. भ्रूमध्ये B. }
लावण्याद्यांश्च चतुरो ह्यनामादि{3} करद्वये।
अङ्गुष्ठान्तं च विन्यस्य हस्ते देहे च वासव ।। 7 ।।
7. अनुचरमन्त्राणां न्यासमाह---लावण्याद्यानिति।
{3. अनामादौ C. G. }
दक्षिणे च तथा वामे स्कन्धे पक्षद्वये ततः।
न्यासं कृत्वा यथान्यायं श्रीकामोऽथ यजेद्धृदि ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - - -
लययागप्रयोगेण लक्ष्मीमन्त्रं तु केवलम्।
कृत्वावलोकनाद्यं तु तो बाह्ये तु विन्यसेत् ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - - -
मूतिमन्त्रयुतं मूलं कर्णिकोपरि वासव।
सकलाकलदेहं च सर्वमन्त्रान्वितं विभुम् ।। 10 ।।
10. कर्णिकोपरीति। अष्टदलपद्मकर्णिकोपरीत्यर्थः। अकलो निष्कलः।
तदुत्सङ्गगतां लक्ष्मीं स्वमन्त्रेणावतार्य च।
पूर्वोक्तध्यानसंयुक्तो भोगमोक्षप्रसिद्धये ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - -
तदाग्नेये तदीशाने यातवीयेऽथ वायवे।
चत्वारि हृदयादीनि नेत्रं केसरसंततौ ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - -
तदग्रे दक्षिणे पृष्ठे वामपार्श्वे क्रमान्न्यसेत्।
चतुष्टयं तु ऋद्ध्याद्यं द्विभुजं तु तथाकृति{4} ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - - - -
{4. यथाकृति C. }
{5}पद्मगौरप्रतीकाशं श्रीवृक्षचमराङ्कितम्।
पद्मासनेनोपविष्टं प्रेक्षमाणं तदाननम् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - -
{5. पिञ्छ C. }
स्वस्तिकानां तदीशादिकोणस्थाने निवेश्य तु।
लावण्याद्यचतुष्कं तु सौम्यवक्त्रं चतुर्भुजम् ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - -
नीलकौशेयवसनं पद्मकुम्भकरान्वितम्।
नलिनीध्वजहस्तं च सफलामलवृक्षधृत् ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - -
द्वारेष्वस्रं चतुर्दिक्षु न्यस्य पूज्य यथा पुरा।
मूलमन्त्रयुतां देवीं लक्ष्मीं त्रिदशनन्दन ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - -
मुद्रास्च दर्शयेत् सर्वा यत्र यत्र हि याः स्मृताः।
जप्त्वा कृत्वा ततो होमं सघृतैस्तु तिलाक्षतैः ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
सामलैः श्रीफलैश्चैव {6}सति लाभे तु पङ्कजैः।
{7}यथाशक्ति ह्यसंक्यैस्तु होमान्ते वृत्रसूदन ।। 19 ।।
19. - - - - - - - - - - - - - -
{6. सतिलैश्चैव A. C. }
{7. B. C. omit three lines from here. }
लक्ष्मीरूपस्ततो बूत्वा साधकः कृतनिश्चयः।
जपेल्लक्षाणि वै पञ्च शुद्धाहारो जितेन्द्रियः ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - - -
होमं कुर्याज्जपान्ते तु क्रमाद्बिल्वामलाम्बुजैः।
यथाशक्ति ह्यसंख्यैस्तु अयुतायुतसंख्यया ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - -
ददाति दर्शनं {8}शक्र होमान्ते परमेश्वरी।
पुत्र सिद्धास्मि ते ब्रूहि यत्ते मनसि चेप्सितम्{9} ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - - - - - -
{8. तत्र B. G. }
{9. चेष्टितम् A. B. C. }
कुरु कार्याण्यभीष्टानि मन्मन्त्रेणाखिलानि च।
अद्य प्रभृति निःशङ्को द्वन्द्वोपद्रववर्जितः ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - -
एवमुक्त्वा तु सा देवी याति यत्रागताशु वै।
ततः कर्माणि वै कुर्याल्लक्ष्म्या अनुमते मम ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - -
स एष तुष्टोऽभीष्टं तु श्रियं दद्याद्यथार्थिनाम्।
संक्रुद्धो निर्धनं कुर्याद्वाङ्मात्रेण धनेश्वरम् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - -
शुल्बं कुर्यात् सकृद्ध्यायन् मन्त्रजापाच्च हाटकम्।
पूरयित्वाम्भसा कुम्भं क्षीरेण मधुनाथवा ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - -
निधाय दक्षिणे हस्ते वामं तदुपरि न्यसेत्।
शतमष्टाधिकं मन्त्रं जपेद्ध्यानसमन्वितम् ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - -
रसेन्द्राभिनिवेशस्थो ह्येकचित्तः समाहितः।
रसेन्द्रत्वं समायाति तत्कुम्भे त्वाहृतं जलम् ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - -
सरसो लक्षवेधी स्याच्छस्रादीनां पुरंदर।
करोति कायममरं जरारोगविवर्जितम् ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - -
अङ्गुष्ठाकारमात्रं तु पुरा पाषाणमाहरेत्।
दक्षिणोदरहस्तेन वामेन बदरीसमम् ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - -
अभिमन्त्र्य तु तौ मुष्टी द्वे शते षोढशाधिके।
दक्षिणस्थं तु पाषाणं रत्नत्वमुपयाति च ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - -
वामे मुक्ताफलत्वं च महामूल्ये तु ते उभे।
यद्यदिच्छति जात्या वै तत्तद्रत्नं भवेत्तदा ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - -
{10}तथा मुक्ताफलं तत्तत् प्रतिभाति करोति च।
गोगजाश्वसमुद्धूतमस्थि चादाय पाणिना ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - - -
{10. यथा B. C. F. }
शतार्धं मन्त्रितं कृत्वा {11}प्रवालत्वं प्रयाति तत्।
शताभिमन्त्रितं कृत्वा त्रपु सीसं तथायसम् ।। 34 ।।
34. कृत्वेति। धारयति चेदिति शेषः।
{11. प्राणयुक्तं भवेद्धि तत् A. G. }
जायते कलधौतं तु रजतं वातिनिर्मलम्।
यद्यद् गृहीत्वा देवेन्द्र यं यं धातुं समीहते ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - -
क्रुद्धो वा परितुष्टस्च तत्तत् कुर्यात्तु सोऽन्यथा।
एवमश्ममयानां तु अन्यत्वमुपपद्यते ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - -
या या मनसि वै यस्य विभूतिः प्रतिभाति च।
तां तां ददाति तस्याशु धनधान्यगवादिकाम् ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - -
लिखित्वा भूर्जपत्रे तु {12}यागन्यासक्रमेण तु।
रोचनाकुङ्कुमाभ्यां तु संधारयति यः सदा ।। 38 ।।
38. रोचनाकुङ्कुमाभ्यामिति। लिखित्वेति पूर्वेणान्वयः।
{12. G. omits this and the next quarter. }
सुवर्णवेष्टितं चाङ्गे लक्ष्मीमन्त्रं शतक्रतो।
तस्यायुषो भवेद् वृद्धिः सर्वत्र विजयी महान् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - -
प्राप्नुयान्महतीं पूजां यत्र यत्र च संविशेत्।
इदमाराधनं प्रोक्तं श्रीकामानां विशेषतः।
लक्ष्म्यास्रिदशशार्दूल मम या प्रथमा तनुः ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - -
इति {13}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे {14}लक्ष्मीमन्त्रसिद्धिप्रकाशो नाम षट्चत्वारिंशोऽघ्यायः
{13. श्रीपञ्चरात्र A.; पाञ्चरात्रे B. }
{14. A. g. omit लक्ष्मीमन्त्र. }
********इति षट्चत्वारिंशोऽध्यायः********