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लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः

चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः - 44
शक्रः---
नमस्ते चिदचिद्वर्गसंरक्षणविचक्षणे।
जगद्विधानशिल्पिन्यै विष्णुपत्न्यै नमोऽस्तु ते ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - - -
स्थूलसूक्ष्मपरात्मानो भेदाः पूर्वं प्रदर्शिताः{1}।
ताराया बीजपिण्डादिभेदं दर्शय मेऽम्बुजे ।। 2 ।।
2. - - - - - - - - - - - -
{1. निदर्शिताः B. C. F. }
श्रीः---
एको नारायणः श्रीमान् पूर्णषाड्‌गुण्यविग्रहः।
एकाहं परमा तस्य शक्तिः षाड्‌गुण्यविग्रहा ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - -
लोकाननुजिघृक्षन्ती शश्वज्ज्ञानक्रियात्मना।
साहं तारिकया तन्वा पोषयामि पुनामि च ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - - -
तस्याः परादिभावस्ते शक्र पूर्वं निदर्शितः{2}।
बीजपिण्डादिकान् भेदान् गदन्त्या मे निशामय ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - - - - - -
{2. निशामितः C. F. }
या परा दर्शिता पूर्वं यादृशी सा त्रिधात्मना।
साहंता तादृशी शक्र तारिकाबीजमुच्यते ।। 6 ।।
6. - - - - - - - - - - - - -
सूर्यानलस्थिता विष्णुपिण्डव्योमेशशेखरा।
पौरश्चरणिको योगस्तस्याः सिद्धिश्च दर्शिता ।। 7 ।।
7. ह्रीं इति बिजमन्त्रः।
संज्ञाख्या तारिकाया हि योगिभिः शक्र सेव्यते।
तामद्यावदधानस्त्वं गदन्त्या मे निशामय ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - -
शुद्धमेकमुपादाय स्वाहया शक्र योजयेत्।
अयं संज्ञामनुर्योगिदेवब्रह्मादिपूजितः{3} ।। 9 ।।
9. शुद्धं; बीजमित्यर्थः।
{3. ब्रह्मर्षिपूजितः A. C. }
योगिभिर्यतमानैर्वा मया नारायणेन वा।
शक्यः प्रभाव आख्यातुं संज्ञायास्रिदशेश्वर ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - - -
शुभानुबन्धमात्रं तु संज्ञेष्टं परमक्षरम्।
पिण्डिताया इवास्याश्च सिद्धयः साधनानि च ।। 11 ।।
11. शुभः शकारः। तत्संबन्ध एव विशेषः। श्रीं स्वाहा इति संज्ञामन्त्रः।
स्मरन् सततमभ्यासात्तन्मयीकृतविग्रहः।
योगी मन्मयतां प्राप्य मद्भावं प्रतिपद्यते ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - - -
अहं वा बोधिता तेन साक्षात्कारमुपेयुषी।
विदधे सकलं कामं{4} स योगी यं यमिच्छति ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - - - - -
{4. सकलान् कामान् C. }
इति संज्ञामनुः शक्र लेशतः संप्रदर्शितः।
पदमन्त्रमिदानीं मे शृणु त्वं सर्वसाधकम् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
विभज्य नायमुद्धार्यो न च लेख्यस्तथापि च।
अविप्लवाय रूपस्य स्वरूपमुपदिश्यते ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - -
ओं 3, ह्रीं 3, {5}श्रीं 3, ओं, आं 3, हौं 3, हंसः 3, ओं ह्रीं श्रीं नमो विष्णवे। ओं{6} ह्रीं श्रीं नमो नारायणाय। ओं ह्रीं श्रीं नमो भगवते वासुदेवाय। ओं ह्रींश्रीं,
{5. हौं 3, हंसः 3, श्रीं नमो विष्णवे B.; I. omits श्रीं 3, ओं, आं 3. }
{6. श्रीं ह्रं F. }
{7}जितं ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश महापुरुष पूर्वज ।।
{7. जितं ते पुण्डरीकाक्ष महापुरुषपूर्वज। नमस्तेऽस्तु हृषीकेश नमस्ते विश्वभावन।। I. }
ओं ह्रीं श्रीं भगवन् विष्णो नारायण वासुदेव पुण्डरीकाक्ष लक्ष्मीपते पुरुषोत्तम जगदादे जगन्मध्य जगन्निधन श्रीनिवास भगवन्तमभिगच्छामि। भगवन्तं प्रपद्ये। भगवन्तं गतोऽस्मि। भगवन्तमभ्यर्थये। भगवदनुध्यातोऽहम्। भगवत्परिकरभूतोऽहम्। भगवदनुज्ञातोऽहम्। भगवति सृष्टोऽहम्। भगवत्प्रसादात् भगवन्मयीं भगवतीं तारिकामयीं लक्ष्मीं पदैरावर्तयिष्यामि। तद्यथा---ओं श्रीं ह्रीं परमगुरुभ्यः परमगुरुपत्नीभ्यः। ओं {8}ह्रीं श्रीं परमेष्ठिने परमेष्ठिन्यै। ओं ह्रीं श्रीं पूर्वसिद्धेभ्यः पूर्वसिद्धाभ्यः। ओं ह्रीं श्रीं लक्ष्मीयोगिभ्यो लक्ष्मीयोगिनीभ्यो नमो नमः।
{8. श्रीं ह्नीं C. F. }
ओं ह्रीं श्रीं ईं नमः संसिद्धिसमृद्ध्यादिप्रदायै परमैकरस्यायै परमहंसि समस्तजनवाङ्मनसस्वात्मातिवर्तिन्यै निरारम्भस्तिमितनिरञ्जनपरमानन्दसंदोहमहार्णवस्वरूपे परपरायै विष्णुविष्णुपत्न्यै विविष्णु ईं स्वाहा।
ओं ह्रीं श्रीं ईँ{9} नमो निरन्तरप्रथमानप्रथमसामरस्यायै स्वस्वातन्त्र्यसमुन्मिषितनिमिषोन्मेषपरंपरारम्भे स्वच्छन्दस्पन्दमानविज्ञानवारिधये परसूक्ष्मायै विष्णुपत्न्यै मायायै ईं स्वाहा।
{9. ईश A. }
ओं श्रीं ह्रीं श्रीं ईं नमः स्वसंकल्पबलसमुन्मीलितभगवद्व्याप्तिभावस्वभावे स्वेच्छावेशवि जृम्भमाणसत्ताविभूतिमूर्तिकारचतुरगुणग्रामयुगत्रिकमहोर्मिजालायै विष्णुपत्न्यै पञ्चबिन्दवे ईं{10} स्वाहा।
{10. ईश A. }
ओं ह्रीं श्रीं हिं हिं हिं{11} नमो नित्योदितमहानन्दपरमसुन्दरभगवद्विग्रहप्रकाशे विविधसिद्धाञ्जनास्पदे षाड्‌गुण्यप्रसरमयपरमसत्त्वरूपपरमव्योमप्रभावे{12} विचित्रानन्दनिर्मलसुन्दरभोगजालप्रकारपरिणामप्रवीणस्वभावायै परमसूक्ष्मस्थूलरूपसूक्ष्मायै{13} विष्णुपत्न्यै पञ्चबिन्दवे हिं हिं हिं स्वाहा।
{11. I. omits हिं हिं. }
{12. प्रभावायै I. }
{13. रूपायै B. }
ओं ह्रीं श्रीं आं ह्रीं ह्रीं ह्रीं नमः स्वसंकल्पसमीरणसमीर्यमाणबहुविधजीवकोशदृषत्पुञ्जायै कलितकालकाल्यविकल्पभेदफेनपिण्डनिवहायै {14}विलासनिदर्शितभोक्तृभोग्यभोगोपकरणभोगसंपदेकमहासिन्धवे परमसूक्ष्मस्थूलरूपस्थूलायै विष्णुपत्न्यै पञ्चबिन्दवे ह्रीं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
{14. सर्वेश्वरि विलास B. F. }
ओं ह्रीं श्रीं नमः समस्तजगदुपकारस्वीकृतबुद्धिमनोऽङ्गप्रत्यङ्गसुन्दरायै विधाचतुष्टयसमुन्मेषितसमस्तजनलक्ष्मीकीर्तिजयामायाप्रभावात्मसमस्तसंपदेकनिधये समस्तशक्तिचक्रसूत्रधारायै समस्तजनभोगसौभाग्यदायिनि विविधविषयोपप्लवप्रशमनि नारायणाङ्कस्थितायै ओं ह्रीं श्रीं नमो नारायणाय लक्ष्मीनारायणाभ्यां स्वाहा। श्रीं ह्रीं ओं।
इति ते दर्शितः सोऽयं पदमन्त्रो महाद्भुतः।
ग्राह्यो गुरुमुखादेव कृतदीक्षं मनीषिभिः ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - -
अस्यामधीयमानायामादर्श इव निर्मले।
विद्यायां संप्रकाशेऽहं यावती यास्मि यादृशी ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - - -
{15}संबोधितस्वतत्त्वार्था सर्वसिद्धाभिनन्दिता।
अङ्गसंततिमस्यास्तु तदन्त्या मे निशामय ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
{15. सुबोधित B. }
प्रकाशानन्दसाराहं तदन्ते सर्वदर्शिनि।
सत्सत्त्वव्यञ्जिके चाथ परब्रह्म तदन्तिके ।। 19 ।।
19. ओं प्रकाशानन्दसारे सर्वदर्शिनि सत्सत्त्वव्यञ्जिके परब्रह्मरूपे भगवति विष्णुपत्नि ज्ञानाय हृदयाय नमः। जातिः स्वाहाशब्दः।
ततो भगवतीत्येव विष्णुपत्नि तदन्तिके।
ज्ञानं जातियुतं वाच्यं हृन्मन्त्रोऽयं महाद्भुतः ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - - -
अव्याहतानन्दगते तदन्ते परमेश्वरि।
{16}सर्वोपरि स्थिते शेषं हृन्मन्त्र इव जातियुक् ।। 21 ।।
21. ओं अव्याहतानन्दगते परमेश्वरि सर्वोपरि स्थिते ज्ञानाय शिरसे नमः।
{16. सर्वेश्वरि F. }
अहं {17}च शक्तिसंपूर्णे जगत्प्रकृतिके तथा।
ज्ञानवैश्वानरशिखे शेषं पूर्ववदिष्यते ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - -
{17. हि B. C. }
प्राणाप्राणमयोन्मेषमहास्पन्दमयीति च।
सर्वाश्रमपदातीते कवचं पूर्वशेषवत् ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - -
विकारविधुरे चाथ स्वस्वभावस्तथोच्यते।
महावीर्यमयीत्येवमस्रं पूर्वोक्तशेषवत् ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - -
परानपेक्षसामर्थ्ये सर्वप्रसविनीति च।
अन्ते बोधमयीत्येवं नेत्रं पूर्वोक्तशेषवत् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - -
पञ्चके ब्रह्मणां कूटे शान्तानलविहारिणी।
ब्रह्मश्रीर्नाम मायेयं व्योमेशकृतशेखरा ।। 26 ।।
26. ओं 5 श्रीं इति ब्रह्मश्रीमन्त्रः।
चतुष्के धारणाकूटे सूक्ष्मानलविहारिणी।
{18}धारणाश्रीरियं मायाव्योमेशकृतशेखरा ।। 27 ।।
27. अं 4 य्रीं इति धारणाश्रीमन्त्रः।
{18. धारिणी A. }
प्रधानानलपीठस्था व्योमेशकृतशेखरा।
पुरुषश्रीरियं ज्ञेया चेतनौघप्रसारिणी ।। 28 ।।
28. म्रीं इति पुरुषश्रीमन्त्रः।
ध्रुवानलस्थिता मायाव्योमेशकृतशेखरा।
प्रधानश्रीरियं ज्ञेया सर्वचेतनकारिणी ।। 29 ।।
29. भ्रीं इति प्रधानश्रीमन्त्रः।
वामनादिपवित्रान्ते पवित्रानलगामिनी।
अन्तःकरणश्रीर्मायाव्योमेशकृतशेखरा ।। 30 ।।
30. बं फं पं प्रीं इति अन्तःकरणश्रीमन्त्रः।
वामनादिपवित्रान्ते स्रग्धरानलचारिणी।
ज्ञानश्रीरियमुद्दिष्टा मायाव्योमेशभूषिता ।। 31 ।।
31. नं धं दं थं तं त्रीं इति ज्ञानश्रीमन्त्रः।
{19}कूटे वैकुण्ठपूर्वे तु विश्वाप्यायानलस्थिता।
कर्मश्रीरियमुद्दिष्टा मायाव्योमेशभूषिता ।। 32 ।।
32. णं ढं डं ठं टं ट्रीं इति कर्मश्रीमन्त्रः।
{19. B. F. omit four lines from here. }
उत्तमादिकरालान्ते कपिलानलचारिणी।
भूतश्रीरियमुद्दिष्टा मायाव्योमेशभूषिता ।। 33 ।।
33. ञं झं जं छं चं ङं घं गं खं कं क्रीं इति भूतश्रीमन्त्रः।
ब्रह्मश्रीपूर्विका एता अष्टौ पद्मदलाष्टगाः।
पदमूर्तेस्तारिकायाः परिवाराः प्रकीर्तिताः ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - -
सर्वास्ताः पद्मगर्भाभाः प्रसन्नाननपङ्कजाः।
बाहुद्वन्द्वे धारयन्त्यः प्रफुल्लं पङ्कजद्वयम् ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - -
ब्रह्मश्रीः पूर्वहस्ताभ्यां ब्रह्माञ्जलिकरी शुभा।
पूर्वाभ्यां धारणालक्ष्मीः शुद्धाशुद्धविभाजिनी ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - - - -
पूर्वाभ्यां पुरुषश्रीस्तु प्रसादाञ्जलिकारिणी।
पूर्वाभ्यां प्रकृतिश्रीस्तु पाशाह्कुशविधारिणी ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - -
अन्तःकरणलक्ष्मीस्तु प्रसादाञ्जलिकारिणी।
अधोमुखे पाणितले कनिष्ठानामिकाद्वयम् ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - -
कुञ्चयेद्धारयेदन्यदङ्गुल्योर्द्वितयं सह।
विश्लिष्य धारयेत्तद्वदङ्‌गुष्ठं प्रोन्नतं बलात् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - -
उन्नते दक्षिणतले बहिर्मुखमवस्थिते।
संनिवेशस्तथा कार्य एषा मुद्रा तु तार्किकी ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - - -
तथाविधे करद्वन्द्वे व्याख्यामुद्रा तु या भवेत्।
ज्ञानश्रियस्तु सा मुद्रा कर्मलक्ष्म्या निबोध मे ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - - -
करणव्यापृतौ पाणी ससंरम्भोद्यमौ सदा।
एषा मुद्रा समुद्दिष्टा कर्मलक्ष्म्या महामते ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - - -
भूतलक्ष्म्याः करौ पूर्वौ नानाभोगप्रदायिनौ।
महालक्ष्मीमयं कूटमेकं सर्वसुखावहम् ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - -
शृणु मे सावधानेन चेतसा बलसूदन।
गरुडादिकरालान्तं तं नरः प्रोद्धरेत्क्रमात् ।। 44 ।।
44. महालक्ष्मीमन्त्रः---क्षं इत्यारभ्य कं इति पर्यन्तं पठित्वा क्रीं इति पठेत्।
करालानलगां मायां सव्योमेशामथोच्चरेत्।
महालक्ष्मीमयं कूटं महाश्रीरस्य देवता ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - -
एकानेकस्वभावा सा साकारा च निराकृतिः।
अनन्तवक्त्रानन्तपदा तथानन्तकरा परा ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - - -
आधाराधेयभावेन सर्वत्रावस्थिता सदा।
नानावर्णा तथा नानाशस्रग्रामौघसंकुला ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - - -
क्रूरा सौम्या समासीना नानासंपत्प्रकर्षिणी।
सर्वत्र {20}सुलभा ध्येया कमलोदरभास्वरा ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - - - -
{20. सुभगा A. F. G. }
इयमेव विपर्यस्ता गरुडान्ता महामते।
पूर्ववद्रूपतो ध्येया पूर्वोक्तफलदायिनी ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - -
स्वरद्विसप्तकं देव्याः किरणत्वेन संस्थितम्।
बिन्दुराधारभावेन सृष्टिः स्वं रूपमूर्जितम् ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - - -
इति ते तारिकामूर्तिः पदाख्या संप्रदर्शिता।
अवधानवदस्यां त्वं सदा चेतो निवेशय ।। 51 ।।
51. - - - - - - - - - - - - -
शतकोटिप्रविस्ताराल्लक्ष्मीतन्त्रमहार्णवात्।
अयं सारः समुद्धृत्य स्निग्धया दर्शितो मया ।। 52 ।।
52. शतेत्यादि। अनेन मूलभूतं लक्ष्मीतन्त्रं शतकोटिग्रन्थपरिमितमित्युक्तं भवति।
अङ्कस्थायां मयि पुरा देवदेवो जनार्दनः।
उज्जहारारविन्दाक्षो विद्यां मत्प्रीतये पराम् ।। 53 ।।
53. - - - - - - - - - - - - -
यथा हि चन्द्रिकां दृष्ट्वा नृणां चेतः प्रसीदति।
विद्यामिमां तथा दृष्ट्वा योगिनां हृत्प्रसीदति ।। 54 ।।
54. - - - - - - - - - - - - -
न यमादिपरिक्लेश आसनव्यसनं न च{21}।
न प्राणायामतः क्लेशो नैव किंचिदिहेष्यते ।। 55 ।।
55. - - - - - - - - - - - - -
{21. तथा A. }
सुखासीनः प्रसन्नात्मा यथेष्टासनविग्रहः।
अभ्यस्य मनसा विद्यामिमां सिद्धिं नियच्छति ।। 56 ।।
56. - - - - - - - - - - - - -
यथा नद्यो नदाश्चैव संप्लवन्ते महोदधौ।
एवं सर्वाः परा विद्याः संप्लवन्ते पदात्मनि{22} ।। 57 ।।
57. - - - - - - - - - - - - - -
{22. पदाध्वनि A. G. }
असंख्येयानि र्तनानि यथा नदनदीपतौ।
असंख्येयानि तेजांसि पदमूर्तौ तथा विदुः ।। 58 ।।
58. - - - - - - - - - - - - -
यथान्नं मधुसंसृष्टं मधु चान्नेन संयुतम्।
एवं बीजादयो भावास्तारायाः प्रीतिदायिनः ।। 59 ।।
59. - - - - - - - - - - - - -
अहं नारायणाङ्कस्था सर्वलोकमहेश्वरी।
{23}सर्वसंपन्मयी ध्येया पदमूर्तिर्विवक्षिता ।। 60 ।।
60. - - - - - - - - - - - - -
{23. संपत्समृद्ध्यै या C. F. }
अहमेव पुनः शक्र परा करुणयोद्यता{24}।
साधकानां हितार्थाय मनसो भावनाय च ।। 61 ।।
61. - - - - - - - - - - - - -
{24. पराकारा यथोद्यता A. G. }
अखण्डा परिपूर्णा हि चतुर्धात्मानमात्मना।
इमां विद्यामयीं मूर्तिं विभजामि हितैषणी ।। 62 ।।
62. चतुर्धेति। लक्ष्मीकीर्तिजयामायाक्याश्चतस्रो विधा अनन्तराध्याये वक्ष्यन्ते।
विभक्तानां तु मूर्तीनां मन्मयीनां पुरंदर।
विधिं चतसृणां त्वं मे यथावच्छ्रोतुमर्हसि{25} ।। 63 ।।
63. - - - - - - - - - - - - - -
{25. ज्ञातुमर्हसि C. }
इति {26}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे{27} रहस्यप्रकाशो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
{26. श्रीप़ञ्चरात्र A.; पाञ्चरात्रे B. }
{27. लक्ष्मीतन्त्रे सारे F. }
********इति चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः********