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लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः

एकोनपञ्चाशोऽध्यायः - 49
श्रीः---
चतुर्थी या तनुर्मान्त्री मायाख्या मम वासव।
तस्या विधानमधुना शृणु मन्त्रक्रियान्वितम् ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - -
मूर्त्यङ्गसखिदासाख्यां मायीयां मन्त्रसंततिम्।
स्वहस्ते पूर्ववन्न्यस्य विग्रहे तदनन्तरम् ।। 2 ।।
2. - - - - - - - - - - - -
हृदयान्तर्गतां चेष्ट्वा भोगैः सर्वैश्च पूर्ववत्।
बाह्ये तु मण्डलं कृत्वा मध्ये च कमलं शुभम् ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - - - -
तत्रोत्सङ्गगतां विष्णोर्हृदयादवतार्य च।
आराधयेत्ततो मायामङ्गसख्यादिसंयुताम् ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - -
भ्रामण्याद्यास्ततो ध्येयाः सख्यः कमललोचनाः।
{1}सिताम्बरधरा दिव्याश्चतस्रो रत्नभासुराः ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - - - - -
{1. पीताम्बर C. }
चामराङ्कुशहस्ताश्च बद्धपद्मासनस्थिताः।
मायामयादयो ध्येयाश्चत्वारोऽनुचरास्तथा ।। 6 ।।
6. चामराङ्कुशहस्ता इत्यनेन द्विभुजत्वं द्योत्यते। मायामयादयोऽनुचराः पञ्चचत्वारिंशाध्यायेऽत्रैव नाम्ना निर्दिष्टाः।
संपूर्णसर्वावयवाः स्निग्धालिकुलसंनिभाः।
चतुर्भुजा महाकायाः सौम्यवक्त्राः स्मिताननाः ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - - - -
केयूराभरणोपेताः पीताम्बरधरास्तथा।
हारनूपुरसंयुक्ता नानाकुसुममण्डिताः ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - -
तुषारधूलिधवलाः खड्‌गपाशकरोद्यताः।
बाणं कार्मुकमन्यस्मिन्नातपत्रं करद्वये ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - -
दर्शयित्वा तथा मुद्रा यस्य यस्य हि याः स्मृताः।
होमं तदनु कुर्वीत तिलैः सिद्धार्थकान्वितैः ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - -
ततो नियममाश्रित्य कृत्वा तदनु वासव।
देवीरूपं स्वमात्मानं भावेनाव्यभिचारिणा ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - -
प्रयायाद्विजनस्थानं{2} प्रौढोत्तरसहायवान्।
जपेल्लक्षाणि वै सप्त पूर्वोक्तविधिना व्रती ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - -
{2. विजयस्थानं I. }
क्षीरमूलफलाहारो देशकालवशात्तु वै।
अयाचितैकभिक्षाशी यावकेनापि वर्तयन् ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - -
स्वशिष्यसाधितं वान्नं मन्त्रपूतमसैन्धवम्{3}।
तैलमांसविनिर्मुक्तं संध्याकाले ह्युपस्थिते ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - -
{3. पूतं सुतण्डुलम् B. G. }
{4}आतृप्तेरभिभुञ्जीत भावितं मधुसर्पिषा।
जपान्ते विधिवन्मन्त्री होमं कुर्यात् प्रयत्नतः ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - -
{4. आतृप्तिं I. }
बलां मोटां तथा मांसीं चक्राङ्गीं नागकेसरम्।
चन्दनं कुङ्कुमक्षोदं रजनीचूर्णमेव च ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - -
मेलयेत् सुघृतानां च तिलानां{5} मधुना ततः।
भावयेत् सघृतेनैव{6} त्रिलक्षं जुहुयात् ततः ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - - -
{5. तिलान्नं C.; तिलांस्तान् I. }
{6. स्वधितान्नं च I. }
मध्यमानामिकाभ्यां च साङ्गुष्ठाभ्यां पुरंदर।
अन्तेऽयुतत्रयं चैव समिधां परिहोमयेत ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - -
प्राग्राजार्कतरूत्थानां खादिराणां ततः परम्।
सुरदारुमयीनां च तृतीयमयुतं ततः ।। 19 ।।
19. राजतरुः कर्णिकारः। सुरदारुः देवदारुः।
दद्यात् पूर्णाहुतिं सम्यक् सुशुद्धेनान्तरात्मना।
पतितायां तु पूर्णायामायाति गगनान्तरात् ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - -
परिवारान्विता माया भाषते साधु साध्विति।
कुरु कार्यमभीष्टं च मन्मन्त्रेणाधुना व्रज ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - -
इदमुकत्वा व्रजेत् तूर्णं देवी {7}विष्णुनिकेतनम्।
{8}ततस्तु साधकवरः कर्माणि विविधानि च ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - - - -
{7. विष्णोर्निकेतनम् F. }
{8. ततः स B. C. I. }
प्रारभेताञ्जसा शक्र यान्यभीष्टानि चेतसा।
आत्मार्थे वा परार्थे वा लेशतस्तानि मे शृणु ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - -
प्रजप्यामलकं बिल्वं सकृन्नृपगृहं{9} विशेत्।
कोशस्याग्रे विनिक्षिप्य यत्र यत्र स्थितः स तु ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - -
{9. भूपगृहं C. }
गगनात् प्रपतेत् तूर्णं यद्यद्वित्तं समीहते।
यद्यच्चाभरणं श्लाघ्यं यद्यद्वा वसनं शुभम् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - -
एवं वै व्रीहिगुलिकां{10} तथैव तिलतण्डुलम्।
क्षिपेद्धान्यकुले पूर्णए गोष्ठागारेऽथ खातके ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - -
{10. गुलिकं A. I. }
राजकीये तथात्मीये यत्र यत्र स्थितस्ततः।
यद्यत् समीहते घान्यं सस्यं वा तण्डुलान्वितम् ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - - - -
तत्तदग्रेऽथ गगनात् पतत्येव यथेप्सितम्।
एवमेव तु सिद्धान्नगुलिकां परिजप्य च ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - -
क्षिप्त्वा महानसोद्देशे सिद्धान्नं कर्षयेत् क्षणात्।
गुलिकां गोमयेनैव कृत्वा तु बदरीसमाम् ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - -
निक्षिप्य गोव्रजस्यान्तः सप्तवाराभिमन्त्रिताम्।
ध्यानमात्रात् क्षणस्यान्ते दधिक्षीराज्यपूरितान् ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - - -
भाण्डांस्च पृष्ठतः पश्येद्यत्र यत्र स्थितो व्रती।
प्रजप्य बदरं सम्यक् फलमन्यत्तु वा व्कचित् ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - - - -
क्षिपेन्मधुवने राज्ञः फलाकृष्टिं करोति च।
सुपुष्पवाटिकायां तु पुष्पमेकं विनिर्दिशेत् ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - -
जप्त्वा वारत्रयं मन्त्री पुष्पाण्याकर्षयेत् क्षणात्।
यत्र यत्र तदङ्गोत्थं सप्तजप्तं विनिक्षिपेत् ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - - - -
तत्र तत्र तु तत् तिष्ठेते संकल्पे तु कृते सति।
यथेच्छं{11}तु समाकृष्टं तत्र तत्र तु तद्‌ व्रजेत् ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - - - - -
{11. यथेष्टं C. }
न चापि साधकवरः सऋणो{12} जायते व्कचित्।
कृत्वाङ्गारकणं चैव शतं जप्तं समाहितः{13} ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - - -
{12. जीर्णो B. C. }
{13. समाहितम् C. }
क्षिपेत् सलिलमध्ये तु ज्वलत् तद् दृश्यते जलम्।
कुशाग्रस्थं जलकणं शतवाराभिमन्त्रितम् ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - - -
कृत्वा हुताशराशौ तु ज्वलमाने विनिक्षिपेत्।
भवेत् पानीयमिव च स वह्निर्दृश्यते क्षणात् ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - -
वालुकापरिपूर्णं चाप्यरण्यं तु तृणोज्झितम्।
दृष्ट्वा तत्र विनिक्षिप्य तृणं द्विशतमन्त्रितम् ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - - -
पुष्पपत्रसमाकीर्णं पत्रपल्लवसंकुलम्।
कुर्यान्नन्दनतुल्यं तत् तोयराशिसमावृतम् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - -
{14}नानाविहगसंपूर्णँ पत्तनोपवनान्वितम्।
पुरप्राकारसंपूर्णं देवतायतनान्वितम् ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - -
{14. नानाविभव I. }
गेयवेदध्वनियुतं ललनाभिश्च शोभितम्।
नृपाणामेतदाश्चर्यं{15} दर्शनीयं सदैव हि ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - - -
{15. आचर्यं B. }
{16}तनूदकेष्वरण्येषु निरन्नेषु सदैव हि।
इच्छयापस्तथान्नानि भोगांश्च विविधानपि ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - -
{16. A. omits this line. }
करोति मन्त्रितैर्लोष्टैर्गोमयेनाष्टसंख्यया।
अरिवर्गे गृहीतास्रे संमुखे सति तिष्ठति ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - -
क्रोधाच्चैव तथोद्युक्त एकाकी यदि तिष्ठति।
जपमानस्तु वै मन्त्रं संकल्प्य मनसा महत् ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - - -
आत्मीयं च बलं पत्तिस्यन्दनाश्वगजाकुलम्।
तस्य संपद्यते क्षिप्रं चमूर्घोरपराक्रमा ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - -
दृष्ट्वा तां विमुखं याति हतौजस्कं रिपोर्बलम्।
करोति शक्र यत्किंचिन्मनसा मन्त्रमुच्चरन् ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - - -
{17}व्यलीकं सत्यभूतं च तत्तथा परिदृश्यते।
दृष्ट्वा तु पादपं शुष्कं ताडयेच्चरणेन तु ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - - -
{17. अलीकं I. }
जपमानो महामन्त्रं {18}स स्यात् पुष्पफलाकुलः।
पत्रपुष्पफलोपेतं पाणिभ्यां मन्त्रमुच्चरन् ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - -
{18. स्यात्स I. }
पीढयेत् पादपं मन्त्री स शोषमधिगच्छति।
पर्वताग्रस्थितो मन्त्रं {19}तन्नाशार्थं जपेद्यदि ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - - - -
{19. नाशार्थाय I. }
पतेदधस्ताच्छैलस्तु यावदिच्छति साधकः।
तुष्टः प्रोत्थापयेत् पश्चात् पातालात् पर्वतोत्तमम् ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - - - -
चान्दनेन रसेनैव मन्त्रं पद्मोदरे न्यसेत्।
पत्रेष्वङ्गानि चालिख्य सुशुभे दिवसे ततः ।। 51 ।।
51. - - - - - - - - - - - -
पूजयित्वाथ पुष्पाद्यैर्वेष्टनैर्वेष्टयेत्तथा।
पूर्ववद् धारयेद्यन्त्रं तस्य सर्वा विभूतयः{20} ।। 52 ।।
52. - - - - - - - - - - - - -
{20. हि सिद्धयः G. }
{21}सम्यगाविर्भवन्त्यत्र लोके निष्कण्टकः स च।
सुभगश्चैव दीर्घायुः परत्र सुखमाप्नुयात् ।। 53 ।।
53. - - - - - - - - - - - -
{21. G. omits three lines from here. }
मूर्तेश्चतुर्थ्या वृत्रारे प्रबावोऽयं महाद्भुतः।
लेशतो दर्शितस्तस्याः साकल्य मम दुर्वचम् ।। 54 ।।
54. - - - - - - - - - - - - -
देवीचतुष्टयस्यैष सिद्धिसंघः समासतः।
किंचित्तु लेशतः प्रोक्तः साधकानां हिताप्तये ।। 55 ।।
55. - - - - - - - - - - - -
तेब्यो दिव्यानि भौतानि प्रयच्छति शुभानि च
विमलां च मनःशुद्धिमन्ते च परमं पदम् ।। 56 ।।
56. - - - - - - - - - - - -
प्रकाशयति भक्तानां वैष्णवं चाविनाशितम्।
विस्तीर्णामिति मां लक्ष्मीमियतीभिर्विभूतिभिः ।। 57 ।।
57. - - - - - - - - - - - -
भजेत विविधैर्भावैः क्षेमं कृत्वा मनःस्थितम्।
शक्रः---
नमो देवादिदेव्यै ते नमो वैकुण्ठवल्लभे ।। 58 ।।
58. - - - - - - - - - - - -
कस्मिन् लक्षे मनः कृत्वा भजेयं त्वां सरोरुहे।
श्रीः---
एको नारायणो हंसः षाड्‌गुण्यामृतवारिधिः ।। 59 ।।
59. - - - - - - - - - - - -
तस्याहं परमा शक्तिर्विष्णोरनपगामिनी{22}।
साहमङ्कस्थिता तस्य यथा ते पूर्वमीरिता ।। 60 ।।
60. - - - - - - - - - - - -
{22. श्रीरनपायिनी B. G. }
लक्षं तदेव ते शक्र मनसः स्थैर्यकारणम्।
सर्वलक्षणसंपन्नां सुवर्णरजतादिभि- ।। 61 ।।
61. - - - - - - - - - -
निर्माय मां विभोरङ्कस्थायिनीं शास्रदर्शनात्।
प्रतिष्ठाप्य विधानेन तैस्तैर्भावैर्भजस्व माम् ।। 62 ।।
62. - - - - - - - - - - - -
शक्रः---
नमस्ते जगदावासे मनोनयननन्दिनि।
युवयोः स्थापनं कीदृग्बिम्बे षाड्‌गुण्यनिर्मिते ।। 63 ।।
63. - - - - - - - - - - - -
श्रीः---
सर्वभूतो यथा विष्णुर्देवः षाड्‌गुण्यविग्रहः।
सर्वभूतात्मभूतस्था तादृश्येवाहमद्भुता{23} ।। 64 ।।
64. - - - - - - - - - - - -
{23. महाद्भुता F. }
प्रतिष्ठितायाः सर्वत्र मम नारायणस्य च।
वस्तुतः का प्रतिष्ठा स्यात् सर्वं यद्वैष्णवं यशः ।। 65 ।।
65. - - - - - - - - - - - - - -
तमिमं वास्तवं भावमारूढं मानसं यतेः।
अर्चा प्रतिष्ठा चेत्येते विकल्पाः प्रविजृम्भिताः ।। 66 ।।
66. - - - - - - - - - - - - -
शृणु तत्र प्रतिष्ठां मे यथावद्बलसूदन।
यया विहितया देही कृतार्थत्वं प्रपद्यते ।। 67 ।।
67. - - - - - - - - - - - -
निर्माप्य शास्रतः सम्यग्योगोक्तं रूपमावयोः।
सूक्ताभ्यां सपवित्राभ्यां स्नापयेत् तीर्थवारिणा ।। 68 ।।
68. - - - - - - - - - - - -
आच्छाद्य नववस्रेण विप्रैरध्यापयेत् सह।
विमलैर्धर्मतत्त्वज्ञैस्रयीसात्त्वतशास्रयोः ।। 69 ।।
69. - - - - - - - - - - -
तारकं तारिकां चैव तथैवाप्यनुतारिकाम्।
सूक्तं च शाकुनं चैवाप्यधीयीरन् पवित्रवत् ।। 70 ।।
70. शाकुनं सूक्तम् ऋग्वेदे (मo 2. सूo 42. ऋ. 1) द्रष्टव्यम्।
सूर्यस्यास्तमयं प्राप्य तद्बिम्बं वस्रवेष्टितम्।
ऋतं चेत्यादिसूक्तेन तथा सारस्वतेन च ।। 71 ।।
71. - - - - - - - - - - - -
ऋग्भिर्हिरण्यवर्णाभिः कुर्याद्वार्यधिवासनम्।
उद्गते विमले सूर्ये कुर्याद्दिक्स्थापनं ततः ।। 72 ।।
72. - - - - - - - - - - - -
उत्तिष्ठ ब्रह्मण इति प्रापयेयुश्च वेदिकाम्।
अपनीय ततो वस्रं स्नापयेच्छुद्धवारिणा ।। 73 ।।
73. - - - - - - - - - - - -
याम्ये च वेदिभागे तु मृद्वास्तरणशोभिते।
बिम्बं पूर्वशिरस्कं तु शाययेज्जपपूर्वकम्{24} ।। 74 ।।
74. - - - - - - - - - - - - - -
{24. पूर्ववत् B. }
ततः शलाकां सौवर्णीं गृहीत्वास्राभिमन्त्रिताम्।
{25}उल्लिखेन्नयने नेत्रमन्त्रजापी शलाकया ।। 75 ।।
75. - - - - - - - - - - - - -
{25. उल्लिखेच्च ततो नेत्रे I. }
स्नातः शुद्धाम्बरः शिल्पी दिव्यदृष्ट्यावलोकितः।
{26}अस्रमन्त्रितशस्रेण नेत्रे प्रकटतां नयेत् ।। 76 ।।
76. - - - - - - - - - - - -
{26. अस्रमन्त्रेण शस्रेण I. }
पूरयेन्मधुसर्पिर्भ्यां तत्पात्रे च प्रदर्शयेत्।
सालंकारं धेनुयुग्मं तस्मिन् काले निवेदयेत् ।। 77 ।।
77. - - - - - - - - - - - -
नयनोन्मीलनीयं तत् सर्वं दद्यात्तु शिल्पिने।
ततः सितेन सूत्रेण बद्ध्वा राजीः सुवाससि{27} ।। 78 ।।
78. राजिः कृष्णसर्षपः।
{27. वाससी I. }
बध्नीयात्तारया तस्य कौतुकं दक्षिणे करे।
भद्रपीठे समारोप्य तथा बिम्बं तु सुस्थिरे ।। 79 ।।
79. - - - - - - - - - - - -
आधारादिक्रमोपेत् सम्यग्भावेन पूजिते।
ततो बिम्बं निरीक्षेत धिया{28} षाड्‌गुण्यपूरितम् ।। 80 ।।
80. - - - - - - - - - - - - - - -
{28. तावत् I. }
ताडयित्वास्रमन्त्रेण कवचेनावकुण्ठ्य च।
सर्वौषध्युदकेनैव स्नापयेत् केवलेन च ।। 81 ।।
81. - - - - - - - - - - - -
संमृज्याहतवस्रेण कौतुकं मोचयेत्ततः।
मन्त्रविच्चक्रमन्त्रेण दद्यादर्घ्यं तु मूर्धनि ।। 82 ।।
82. - - - - - - - - - - - -
भावयित्वा ततो बिम्बं बिम्बं चारुरुचेरिव।
पूजितैर्मन्त्रितैः शुद्धैः कलशैर्द्रव्यपूरितैः ।। 83 ।।
83. - - - - - - - - - - - -
षोडशच्छदपद्मोत्थपत्रषोडशकस्थितैः।
प्रथमं पञ्चगव्येन गोमूत्रेण द्वितीयकम् ।। 84 ।।
84. - - - - - - - - - - - -
तृतीयं गोमयाम्भोभिस्तुर्यं त्रेताग्निभस्मना।
गजगोवृषशृङ्गाग्रवल्मीकोर्व्यम्बुना परम् ।। 85 ।।
85. - - - - - - - - - - - -
शालिक्षेत्रनदीपद्मवनाद्युर्व्यम्बुना परम्।
सप्तमं सर्षपाम्भोभिः सर्वौषधिभिरष्टमम् ।। 86 ।।
86. - - - - - - - - - - - -
क्षीरेण नवमं दध्ना दशमं सर्पिषा परम्।
द्वादशं मधुना सर्वबीजाम्भोभिस्रयोदशम् ।। 87 ।।
87. - - - - - - - - - - - -
फलैः परं परं धान्यैः {29}सुगन्धाद्भिस्तु षोडशम्।
अभिमन्त्र्य हृदा पूर्णमेकैकं कलशं पुरा ।। 88 ।।
88. - - - - - - - - - - - -
{29. सुसुगन्धैस्तु I. }
स्नापयेन्मूलमन्त्रेण तैः षोडशभिरादरात्।
उदकान्तरितैः सार्घ्यपुष्पधूपप्रदीपकैः ।। 89 ।।
89. - - - - - - - - - - -
{30}मसूरमाषगोधूमचूर्णैरथ विघृष्य च।
प्रश्राल्य पयसा मूर्ध्नि तारिकां विन्यसेत् पराम् ।। 90 ।।
90. - - - - - - - - - - - - - -
{30. मसूरमथ I. }
ततः सूक्ष्मां ततः स्थूलां स्थानेष्वेषु क्रमात् सुधीः।
मूर्ध्नि वक्त्रेऽसयोः कर्णे हृदि नाभौ तु पृष्ठतः ।। 91 ।।
91. - - - - - - - - - - - - - -
कटिमूले तथोर्वोश्च जानुगुल्फेऽथ पादयोः।
तारकं विन्यसेदेवं तथैवाप्यनुतारिकाम् ।। 92 ।।
92. - - - - - - - - - - - -
न्यस्यैवं पौरुषं सूक्तं न्यसेच्छ्रीसूक्तमप्यथ।
{31}शिरो मे श्रीर्यजुर्भिश्च न्यसेल्लिङ्गानुरूपकम् ।। 93 ।।
93. शिरो मे श्रीरित्यादि। तैत्तिरीयब्राह्नणे (2-6-5-3) द्रष्टव्यम्।
{31. I. omits four lines from here. }
कुर्याच्च होतृविन्यासं यथा प्रोक्तं यजुर्मये।
एवं विन्यस्य पुरुषे मयि पश्चात् समाचरेत् ।। 94 ।।
94. होतृविन्यासमिति। दशहोत्रादयो मन्त्राः तैत्तिरीयारण्यके पठिताः। तेषां विन्यासमित्यर्थः।
विन्यस्य पूर्वं श्रीसूक्तं शिरो मे श्रीर्यजूंषि च।
ततश्च होतृविन्यासं विधायैवं तनुद्वये ।। 95 ।।
95. - - - - - - - - - - - -
कुण्‍डे पूर्वविधानान्ते जुहुयात् सर्वशान्तये।
उक्ताश्च वर्तमानाश्च यावन्त्यो मन्त्रजातयः ।। 96 ।।
96. - - - - - - - - - - - -
जुहुयात् तावतीभिस्तु सर्वदोषप्रशान्तये।
ऋचः पूर्वदिशाभागे दक्षिणस्यां यजूषि च ।। 97 ।।
97. - - - - - - - - - - - -
प्रतीच्यां चैव सामानि सौम्य आथर्वणानि च।
समीपे सात्त्वतान्मन्त्रानेवमध्यापयेद् द्विजान् ।। 98 ।।
98. - - - - - - - - - - - -
पूर्वं षोडशपत्राब्जकर्णिकास्थैश्चतुर्दिशम्।
कलशैः स्नापयेन्मन्त्रैस्तारतारानुतारवत् ।। 99 ।।
99. - - - - - - - - - - - -
वसवस्त्वेति मन्त्रेण पुष्पाम्भःकलशेन तु।
रुद्रास्त्वा गन्धतोयेन स्वर्णाम्भःकलशेन तु ।। 100 ।।
100. वसवस्त्वेति। रुद्रास्त्वेति। (तैत्तिरीयब्राह्नणम् 2-7-15-5).
अदित्यास्त्वेति विश्वेति रत्नोदकलशेन तु।
तारतारानुताराभिरभिषिञ्चेच्च मन्त्रवित् ।। 101 ।।
101. आदित्यास्त्वेति। विश्वेति। (तैत्तिरीयब्राह्नणम् 2-7-15-5).
ततः शुद्धोदमादाय परादित्रिविधात्मना।
तारया त्वभिषिच्याथ तथार्घ्यं मूर्ध्नि निक्षिपेत् ।। 102 ।।
102. - - - - - - - - - - - - -
समालभ्य ततो बिम्बं चन्दनाद्यनुलेपनैः।
वासः प्रभृतिभिर्भोगैः प्रापणान्तैः समर्चयेत् ।। 103 ।।
103. - - - - - - - - - - - -
मुद्रां बद्ध्वार्चयेत् पश्चात् पीठं ब्रह्मशिलान्वितम्।
समस्ताद्वमयं पीठं ध्यायेद्वैष्णवमुज्ज्वलम् ।। 104 ।।
104. - - - - - - - - - - - -
आधारशक्तिभूतां च दिव्यां ब्रह्मशिलां स्मरेत्।
{32}पीठब्रह्मशिले त्वेवं सहभावेन निर्मिते ।। 105 ।।
105. - - - - - - - - - - - -
{32. पीठं ब्रह्मसिला A.; पीठब्रह्मशिला B. }
पृथग्विनिर्मिते ते च कुर्यात्तु शयनोत्तरे।
शयनं स्थिरबिम्बस्य वक्ष्यमाणं विधीयते ।। 106 ।।
106. - - - - - - - - - - - -
प्रासादगमनं चैव पीठब्रह्मशिलास्थितिः।
तत्प्रतिष्ठापनं चैव बिम्बस्यावाहनं ततः ।। 107 ।।
107. - - - - - - - - - - - -
द्वादशाङ्गकलान्यासस्त्र्यहाद्युत्सवसाधनम्।
{33}तथावभृथकर्मादि सर्वमेतद्विधीयते ।। 108 ।।
108. - - - - - - - - - - - -
{33. तथा प्रभृति A. B. }
चलबिम्बप्रतिष्ठां च चतुष्कलशसेचने।
आराध्यावाहनं कुर्याद्यथा तदवधारय ।। 109 ।।
109. - - - - - - - - - - -
कार्यमावाहनात् पूर्वं भोगानां त्रितयं क्रमात्।
{34}स्वरूपेऽविकृते शुद्धे निस्तरङ्गे निरामये ।। 110 ।।
110. - - - - - - - - - - - - - -
{34. A. B. C. omit three lines from here. }
परातीते गुरुः स्थित्वा पुनः स्वहृदयाम्बुजे।
शक्तिं सत्तामयीं विष्णोरनुरूपामनुस्मरेत् ।। 111 ।।
111. - - - - - - - - - - - -
यद्बिम्बं संस्कृतं पूर्वं तन्मयं तदनुस्मरेत्।
अग्नीषोममयौ बावौ स्वदेहस्थावनुस्मरेत् ।। 112 ।।
112. - - - - - - - - - - - -
ऊर्ध्वाधोव्यापकत्वेन स्थितौ परमभास्वरौ।
यथात्मनि तथा बिम्बे यथा बिम्बे तथात्मनि ।। 113 ।।
113. - - - - - - - - - - - - -
दक्षिणेन ततो यायादग्निमार्गेण देहतः।
प्रविशेद्वाममार्गेण बिम्बस्य हृदयं धिया ।। 114 ।।
114. - - - - - - - - - - - -
यथात्मनात्मा हृदये स्वानुभूतो ह्यनूपमः।
तथा तद्धृदयान्तः स्थमात्मानमनुसंस्मरेत् ।। 115 ।।
115. - - - - - - - - - - - -
दृष्ट्वा स्वरश्मिखचितमानन्दापूरितं महः।
तस्मिंस्तस्मिन् परब्रह्मण्यैकध्यं{35} तस्य चिन्तयेत् ।। 116 ।।
116. - - - - - - - - - - - - - - - -
{35. एक्तवं I. }
एवमेकार्णवीकृत्य वैष्णवं तत् परं महः।
तिष्ठेत् समादधानस्तदस्पन्दं स्वमनो दधत् ।। 117 ।।
117. - - - - - - - - - - - - -
मनसि{36} स्पन्दमानेऽथ स्मृत्वा तं स्वं धिया{37} पुनः।
बिम्बाद् दक्षिणमार्गेण बहिर्निष्क्रम्य मेधया ।। 118 ।।
118. - - - - - - - - - - - - -
{36. मनस्वी F. }
{37. द्विधा A. G. }
संविशेद्वामभागेन स्वमेव हृदयाम्बुजम्।
योगोऽयं द्रव्यबिम्बस्य {38}नाडीबृन्दप्रवर्तकः ।। 119 ।।
119. नाडीबृन्देति। अत्रेदं पारमेस्वरवचनमनुसंधेयम्---"योगोऽयं मुनिशार्दूल बिम्बस्य द्रव्यजस्य च। आपादमूर्धपर्यन्तं नाडीबृन्दस्य व्यञ्जकः।। येन सर्वेशिता विप्र बिम्बस्यास्य प्रजायते। तं योगमधुना वच्मि एकाग्रमवधारय ।।" (15-447,448) इति।
{38. नाडीबिम्ब A.; नानाबिम्ब I. }
योगान्तरमथातिष्ठेत् तस्य सर्वेशिताप्तये।
ध्यायीतातो हृदम्भोजात् तारिकां तारिणीं गृणन् ।। 120 ।।
120. - - - - - - - - - - - - -
यायादूर्ध्वप्रवाहेण परं पदमनामयम्।
ततः स्मरेत् परं{39} तच्च {40}भोगं प्राप्तं स्वयेच्छया ।। 121 ।।
121. - - - - - - - - - - - - - - - - -
{39. पदं I. }
{40. क्षोभं I. }
ततस्तत्स्पन्दमादाय विज्ञानैश्वर्यशक्तिमत्।
अनाकुलं पुनर्यायात् पथा तेन हृदम्बुजम् ।। 122 ।।
122. स्पन्दं क्षोभम्। तथा च पारमेश्वरे---"अव्युच्छिन्नोऽप्यथोऽक्षुब्धः स्वेच्छया क्षोभमेति च।" (15-451) इति।
दक्षिणेन विनिष्क्रम्य परस्परसहायवान्।
तद्बिम्बहृदयाम्भोजं वामेनैव तु संविशेत् ।। 123 ।।
123. - - - - - - - - - - - - -
ध्यात्वा पूर्ववदेकत्वं विनिष्क्रम्योर्ध्वमार्गतः।
द्वाशान्तं समाविश्य पूर्ववत् स्पन्दमेत्य च ।। 124 ।।
124. - - - - - - - - - - - - -
यथाबिम्बं हृदम्भोजं तेनैव प्रविशेत् सुधीः।
ततोऽग्निना विनिष्क्रम्य सव्येन हृदयं विशेत् ।। 125 ।।
125. - - - - - - - - - - - - -
स्मरेत् स्पन्दमथैश्वर्यं स्वचक्षुर्द्वयगोलकम्।
परस्परं निरीक्ष्याथ तन्वानावेकतामिव ।। 126 ।।
126. - - - - - - - - - - -
अन्योन्यालोकनाब्यां तावनुविद्धावनुस्मरेत्।
एतदीश्वरसंधानं नाम योगोऽनुवर्णितः ।। 127 ।।
127. - - - - - - - - - - -
येन सर्वेषु बिम्बेषु सर्वेशित्वं सदा भवेत्।
अथ शब्दानुसंधानं मन्त्रबिम्बैकता हि या{41} ।। 128 ।।
128. - - - - - - - - - - - - - -
{41. अभिधा I. }
सा {42}स्मृता वैष्णवी सूक्ष्मा शक्तिर्विष्णोर्निरञ्जना।
तत्सामानय्मयो भूत्वा तस्मिन् स्वं लोपयेद् ध्वनिम् ।। 129 ।।
129. - - - - - - - - - - - - - - -
{42. सत्ता G. I. }
सर्वसंकल्पहीनं तच्छब्दमात्रविवर्जितम्।
{43}शान्तं विद्धि परं सूक्ष्मं {44}तत्परं बोधनिर्मितम् ।। 130 ।।
130. - - - - - - - - - - - - - - - -
{43. I. omits this line. }
{44. तद्बेरं G. }
ततः शब्दार्थसंस्कारसार्धस्पन्दोद्यमो हि यः।
तत् स्मरेत् परमं सूक्ष्मं पश्यन्तीपदमुन्मिषत् ।। 131 ।।
131. - - - - - - - - - - - - -
संकल्पपदवीरूढस्तत्तत्संस्काररञ्जितः।
स्वकं वाच्यं पृथक्कृत्य तदुद्दिश्योदयो हि यः ।। 132 ।।
132. - - - - - - - - - - - - -
शाब्दं तन्मध्यमं रूपं स्मरेद्धृत्पद्ममध्यगम्।
नानास्थानप्रयत्नोत्थैः करणश्वसनेरितैः ।। 133 ।।
133. - - - - - - - - - - -
तरङ्गैर्व्यक्तिमायाति स्फुटो वर्णपदादिकैः।
{45}यो वाचकस्वरूपेण तत्पदं वैखरीं विदुः ।। 134 ।।
134. - - - - - - - - - - - - -
{45. येन वाचकरूपेण I. }
बोधशब्दात्मकं तस्मात् परसूक्ष्मादिभेदवत्।
वपुरित्यनुसंधाय तद्बिम्बं भावयेत् ततः ।। 135 ।।
135. - - - - - - - - - - - - -
शब्दसंहारयोगेन स्वं वपुस्तच्च बिम्बकम्।
निष्कम्पबोधशब्दात्म{46} स्मृत्वा तद्‌द्वितयं तथा ।। 136 ।।
136. - - - - - - - - - - - - - - -
{46. शब्दार्थौ F. }
पूर्वोक्तक्रमयोगेन शब्दब्रह्म ह्यनाहतम्।
पश्यन्त्यादिक्रमेणैव शब्दबिम्बमयं{47} स्मरेत् ।। 137 ।।
137. - - - - - - - - - - - - -
{47. ब्रह्ममयं G. }
एवं शब्दानुसंधानं कृत्वा मन्त्रानुसंहितम्।
आरभेत सुधीः कर्म तस्य योगोऽयमुच्यते ।। 138 ।।
138. - - - - - - - - - - - - -
अनाहतं परं नाभौ पश्यन्तीपदमागतम्।
नालसूत्रमिवान्तःस्थं मध्यमे हृदयाम्बुजे ।। 139 ।।
139. - - - - - - - - - - - -
स्थित्वा तद्वैखरीद्वारा बिम्बान्तः संविशत् स्मरेत्।
स्फुरन्नादस्वरूपं च मन्त्रैर्व्याप्तं तथाखिलैः ।। 140 ।।
140. - - - - - - - - - - - - -
{48}मन्त्रात्मानं जगन्नाथं बिम्बहृन्मध्यगं स्मरेत्।
एवं संस्थापितं बिम्बं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।। 141 ।।
141. - - - - - - - - - - - - -
{48. मन्त्रनाथं I. }
आवाहनं ततः कुर्याद् बिम्बेऽस्मिन् हरिमेधसः।
पूर्वमावाहयामीति तथा सर्वाङ्गमन्त्रतः ।। 142 ।।
142. - - - - - - - - - - -
प्रवेशनिर्गमौ लक्ष्म्याः स्मरेद्देवस्य देहतः।
ऋग्भिः पञ्चभिराद्याभिस्तस्या आवाहनं स्मृतम् ।। 143 ।।
143. - - - - - - - - - - - - -
द्वादशाङ्गकलान्यासं देवन्यासवदाचरेत्।
भवतं नः सुमनसाविति द्वावनुसान्त्वयेत् ।। 144 ।।
144. - - - - - - - - - - - - -
एतावती चले बिम्बे प्रतिष्ठान्यत्र तु स्थिरे।
कुर्यात् पूर्वोक्तमार्गेण सात्त्वतादिविधानवित् ।। 145 ।।
145. - - - - - - - - - - - - -
यदेतदनुसंधानत्रितयं{49} पूर्वमीरितम्।
एतदेव {50}प्रतिष्ठानमुभयत्रेति मे मतिः ।। 146 ।।
146. - - - - - - - - - - - - -
{49. तृतीयं B. }
{50. प्रतिष्ठायां I. }
इत्थं संस्कारसंपन्ने तद्बिम्बद्वितये सुधीः।
लक्ष्मीं लक्ष्मीपतिं चैव धिया पश्यन्नुपस्थितौ ।। 147 ।।
147. - - - - - - - - - - - - -
तन्मनाश्चैव तद्भक्तस्तद्याजी तज्जपोद्यतः।
तद्योगी सततं भूत्वा तावेवान्ते प्रपद्यते ।। 148 ।।
148. - - - - - - - - - - - -
प्रतिष्ठेयमिति प्रोक्ता साक्षाज्ज्ञानमयी परा।
ज्ञानं विना न चैवान्यन्नराणां तारकं {51}स्मृतम् ।। 149 ।।
149. - - - - - - - - - - - - - - -
{51. मतम् I. }
इति {52}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे {53}प्रतिष्ठाविधानं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः
{52. श्रीपञ्चरात्र A.; श्रीपाञ्चरात्रे B. }
{53. मायासिद्धिप्रकाशः B. F. }
********इत्येकोनपञ्चाशोऽध्यायः********