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लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः - 42
शक्रः---
संसारसागरोत्तारपोतपादाम्बुजद्वये।
हृषीकेशमहिष्यै ते भूयो भूयो नमो नमः ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - - -
त्वत्प्रसादान्मया देवि श्रुतो दीक्षाविधिः क्रमात्{1}।
तारिकाया वदाब्जस्थे पौरस्चरणिकीं क्रियाम् ।। 2 ।।
2. पुरश्चरणं नाम गुरूपदेशात् गृहीतस्य मन्त्रस्य स्वाभीष्टफलप्रदत्वसंपादनार्थं क्रियमाणो व्रतहोमादिः।
श्रीः---
अहं नारायणी नाम शक्तिर्नारायणाश्रिता।
तस्या मे परमा पूर्तिस्तारिका भुवनेश्वरी ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - -
तस्या मे पिण्डभूतायाः शृणु साधनसंपदम्।
कृष्णाष्टमीं समारब्य यावत्कृष्णचतुर्दशी ।। 4 ।।
4. पिण्डभूताया इति। पिण्डमन्त्ररूपाया इत्यर्थः।
स कालस्तारिकासिद्धौ तन्त्रज्ञैः संप्रदर्शितः।
महापापैरसंस्पृष्टः प्रख्यातैरतिपातकैः ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - -
नास्तिक्यात्प्रच्युतो भावान्निन्दिताभ्यासवर्जितः।
भूतेषु भावयन्मैत्रीं कृतपापानुतापवान् ।। 6 ।।
6. - - - - - - - - - - -
उच्चापचानि पापानि प्रायश्चित्तैः शमं नयेत्।
ब्रह्मचारी हविष्याशी सत्यवादी दृढव्रतः ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - -
संनिधौ मनसा विष्णोरोंकारं नियुतं जपेत्।
महाव्याहृतिभिर्होमानयुतं सर्पिषाचरेत् ।। 8 ।।
8. नियुतं दश लक्षाणि। अयुतं दश सहस्राणि।
सावित्र्या च तिलैर्होमं तावत्संख्यं समाचरेत्।
महापापातिपाप्मानौ विहाय प्रथितौ कृतौ ।। 9 ।।
9. प्रथितौ विहायेति। अप्रकाशकृतौ इत्यर्थः।
एतादृशं विधिं कृत्वा प्रणवादित्रयेण तु।
महापापातिपापाद्यैरप्रकाशैर्विमुच्यते ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - -
उपवासादिभिस्तद्वत् प्रकाशैरपि चेतरैः।
तिस्रो वोपवसेद्रात्रीरघमर्षणतत्त्ववित् ।। 11 ।।
11. उपवासादिभिरित्यनेन प्रकाशकृतानां प्रायश्चित्तमुच्यते।
त्रिरह्नस्रिर्निशायाश्च सवासा जलमाविशेत्।
प्रतिसंद्ये निमज्जं स्रिस्रिर्जपन्नघमर्षण् ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - -
प्रतिमज्जनमेवं तु क्षपयेत्तत् त्रिरात्रकम्।
चतुर्थेऽहनि वै दद्याद् ब्राह्नणाय पयस्विनीम् ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - - -
एवं पूतो भवेत् प्राग्वदशेषेणापि चांहसा।
आत्मानमभिषिञ्चेद्वा त्रिसंध्यं पञ्चगव्यतः ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
तिस्रो नीत्वा क्षपा एवं मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।
तारादिपञ्चकं तेषामेकैकमथवा{2} धिया ।। 15 ।।
15. तारादिपञ्चकमिति। तारं व्याहृतीः सावित्रीं तारिकाम् अनुतारिकां चेत्यर्थः।
{2. अपि वा B. F. }
जपन् पिबन् समीक्षेत वैष्णवं विमलोज्ज्वलम्।
अहोरात्रकृतैरेवं मुच्यते सर्वपातकैः ।। 16 ।।
16. वैष्णवं समीक्षेतेति कृतस्य कर्मणः साद्‌गुण्यार्थमुक्तम्।
भुवने यान्ति ये विष्मुमपापा धर्मतत्पराः।
तस्पङ्‌क्तिस्थोऽपि वा भुक्त्वा मुच्यते सर्वपातकै ।। 17 ।।
17. वैष्णवमहिमानमाह---भुवन इत्यादिना। विष्णुं शरण्यत्वेन प्रपन्ना वैष्णवा इत्यर्थः।
धर्मैः पापं क्षयं नीत्वा महर्षिगणसंमतैः{3}।
तारिकामाश्रयेत् पश्चाद्भवसागरतारिकाम् ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
{3. संमितैः G. }
उपोष्य विधिवन्मन्त्री कृष्णपक्षस्य सप्तमीम्।
स्थित्वा संध्यामथाष्टम्यां तारिकाजपमाचरेत् ।। 19 ।।
19. - - - - - - - - - - - - - -
अनुज्झन विहितं कर्म काम्यान्तरविवर्जितः।
दिव्ये सैद्धे तथैवार्षे विष्णोरायतनेऽमले ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - -
पर्वताग्रे नदीतीरे गोष्ठे बिल्ववनेऽपि वा।
पयोयावहविष्याणामशन्नन्यतमं सकृत् ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - -
जपं द्वादशसाहस्रं कुर्याद्वै सप्त वासरान्।
दशांशं तर्पणं कुर्यादाहुतीश्चापि सर्पिषा ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - -
अनेन वर्तमानस्य विधिना तारिकाविधौ।
चतुर्दशीनिशीथे चेच्छुभं पश्यति दर्शनम् ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - -
सुराकुम्भस्य लाभो वा सुरापानमथापि वा।
स्रिया कामाबिषेको वा दर्शनं सुदृशोऽथवा ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - -
तया वालिङ्गनं भावात् सह भोगोऽथवा तया।
मन्त्रसिद्धेस्तयोक्तिर्वा फललाभोऽथवा ततः ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - - -
सौम्यस्य दर्शनं वापि मिथुनस्य सुरूपिणः।
राज्ञो वा दर्शनं राजमहिष्या वाथ दर्शनम् ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - - -
नारायणस्य वा साक्षात् स्वप्ने दृष्टिर्ममापि वा।
पतिव्रातादर्शनं वा वैष्णवैर्वा समागमः ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - -
यच्चान्यत् स्वप्नशास्रेषु शब्द्यते शुभदर्शनम्।
लब्धाशस्तत उत्थाय त्यक्तनिद्रो जितक्लमः ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - -
आचम्य प्रयतो मन्त्री स्मरेन्मां संस्तरे निशाम्।
अथ प्रातः समुत्थाय कृतसंद्याविधिक्रमः ।। 29 ।।
29. संस्तरे शय्यायाम्। निशामित्यत्यन्तसंयोगे द्वितीया।
तुल्यशीलवयोरूपौ सुरूपौ धर्मतत्परौ।
अदीनाकृपणाकारौ रूपवन्तौ मनस्विनौ ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - - -
दंपती यौवनावस्थौ प्रसन्नमृदुभाषिणौ।
आहूय स्नापयित्वा तौ लक्ष्मीनारायणात्मकौ ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - - -
भूषयित्वा च वस्राद्यैरकुर्वन् वित्तवञ्चनाम्।
आशितौ लिप्तगन्धाङ्गौ दक्षिणापरितोषितौ ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - -
प्रार्थयेत्तारिकासिद्धिं लक्ष्मीनारायणात्मना।
अस्त्वेवमिति वाक्यान्ते {4}तावावां शरणं व्रजेत् ।। 33 ।।
33. तावावामिति। लक्ष्मीनारायणाख्यास्मद्रूपिणौ तौ दंपती इत्यर्थः।
वाचयित्वा ततः स्वस्ति वैष्णवान् वेदवित्तमान्।
द्विजाग्र्यांस्तर्पयित्वाथ वर्तेताभीष्टसंपदे ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - -
चतुर्दशीनिशायां चेन्न पश्येत् स्वप्नदर्शनम्।
अमावास्यां समारब्य यावत्कृष्णस्य {5}सप्तमी ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - - - -
{5. प़ञ्चमी B. G. }
तावन्तं व्रतवानेव वर्तयेत् कालमप्यथ।
त्रिसहस्रं जपं कुर्वन्नेकभुक्तेन वर्तयन् ।। 36 ।।
36. एकभुक्तेन एकवारभोजनेन।
मद्ये कौमारदाराणामृतुं प्राप्तमलङ्घयन्।
अनिन्दन् कामिनीवृत्तं दंपती नन्दयन् धिया ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - -
ऋते पापं प्रियं कुर्वन् कामिनीनामलोलुपः।
ततः कृष्णाष्टमीं प्राप्य पूर्ववज्जपमाचरेत् ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - -
कुर्वन् होमादिकं सर्वं स्वप्नदृष्टौ निवर्तयेत्।
यावच्चिह्नानि संपश्येत् तावदेवं समाचरेत् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - -
सिद्धायां तारिकायां तु सर्वं च लभते नरः।
सम्यक्कर्ता च शास्राणामद्यात्मगतिकोविदः ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - - -
सर्वतन्त्रविधानज्ञः सर्ववेदान्तपारगः।
सर्वसंदेहनिर्भेदी सर्वनिर्णयपारगः ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - -
यथार्थवागृजुर्वाग्मी धर्मसागरपारगः।
परस्य स्वस्य वायं हि विनियोगं चिकीर्षति ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - - -
निग्रहेऽनुग्रहे वापि स स सिध्यति सर्वदा।
शक्रः---
नमः संपूर्णषाड्‌गुण्यविग्रहायै हरिप्रिये ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - -
अरविन्दगृहायै ते गोविन्दगृहमेधिनि।
त्वन्मुखाब्जाच्छ्रता सिद्धिस्तारिकाया विशेषिणी ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - - - -
स्थूलसूक्ष्मपराकारा यथावच्च प्रदर्शिताः{6}।
साधिताया विधानेन तारायास्रिविधात्मनः ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - -
{6. प्रकाशिता C. }
विनियोगमिदानीं मे वक्तुमर्हसि पद्मजे।
श्रीः---
एकः षाड्‌गुण्यपूर्णात्मा हंसो नारायणो वशी ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - - -
हंसी शक्तिरहं तस्य वशिनी सर्वकामदा।
हंसो हंसी च तावावामुदितौ तारिकात्मना ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - - - -
तस्या अस्मत्स्वरूपाया विनियोगं निबोध मे।
नानाविधेषु मन्त्रेषु बाह्यान्तरविभागतः ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - -
यावन्तो यादृशा ये च मन्त्राः सन्ति परावराः।
तदीया विनियोगा ये यावन्तः सन्ति यादृशाः ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - - - -
तावन्तस्तादृशास्तेऽस्या विनियोगा न संशयः।
तथापि विनियोगान्मे कांश्चिच्छक्र निशामय ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - - -
धर्मार्थकाममोक्षेषु सद्यः प्रत्ययकारकान्।
कृष्णाजिनोत्तरासङ्गां कृष्णाजिननिवासिनीम् ।। 51 ।।
51. - - - - - - - - - - - - -
कृष्णाजिनाम्बरां त्रस्तकृष्णशाबशुभेक्षणाम्।
पूर्णचन्द्रनिभां ध्यात्वा ब्रह्ममुद्राक्षसूत्रिणीम् ।। 52 ।।
52. - - - - - - - - - - - - -
सरोरुहे दधानां चाप्यपरस्मिन् करद्वये।
इत्थं मामम्बुजाक्षं वा देवदेवं जनार्दनम् ।। 53 ।।
53. - - - - - - - - - - - - -
ध्यात्वा लक्षं जपेत्तारां धर्मः प्रत्यक्षतामियात्।
विभुसंख्यामितान्प्रस्थाञ्शालीनां तण्डुलात्मनाम् ।। 54 ।।
54. - - - - - - - - - - - - -
सर्पिषस्तावतः प्रस्थान् शर्करायाः पलानि च।
गुडस्य वापि तावन्ति पाचयेदेकपात्रगान् ।। 55 ।।
55. - - - - - - - - - - - - -
पयसा तावता तुल्यं विधिना सुशृतं हविः।
शुक्लप्रतिपदः प्रातरुदितेऽर्धेन भास्करे ।। 56 ।।
56. - - - - - - - - - - -
एकाहुत्यैव जुहुयान्महापात्रस्थितं हविः।
त्रिष्टुभा जातवेदस्या तारिकाद्यन्तरुद्धया ।। 57 ।।
57. जातवेदस्येति। "जातवेदसे सुनवाम सोमम्" इत्यादिकया ऋचा।
महाकुण्डे महावह्नौ यन्त्रयोगेन बुद्धिमान्।
अथ प्रातः समारभ्य यावदस्तमयं रवेः ।। 58 ।।
58. - - - - - - - - - - - - -
अविच्छिन्नं {7}च जुहुयात् स्रुवेणैव गतक्लमः।
सपिषा संस्कृतेनैव तादृस्या त्रिष्टुभा सुधीः ।। 59 ।।
59. - - - - - - - - - - - - -
{7. तु B. C. }
प्रातरारभ्य शाल्यन्नं पयोदध्याज्यसंस्कृतम्।
एकैकं भोजयेद्विप्रं प्रातरारभ्य संततम् ।। 60 ।।
60. - - - - - - - - - - - -
वाचयित्वा द्विजानन्ते तर्पयेद्वेदवित्तमान्।
दंपती वैष्णवौ चैवं लक्ष्मीलक्ष्मीशसंज्ञया ।। 61 ।।
61. - - - - - - - - - - - -
य एवमाचरेद्धीरो व्यवसायसहायवान्।
कोटिसंक्यमनौपम्यमक्षयं लभते निधिम् ।। 62 ।।
62. - - - - - - - - - - - - -
इमं शृणु महाश्चर्यं प्रयोगं पाकशासन।
तारामादाय पूर्वं तु योजयेत् सुभगेपदम् ।। 63 ।।
63. - - - - - - - - - - - - -
स्वाहां संयोजयेत् पश्चात्तारिकेयं षडक्षरा।
उपोष्यैव{8} चतुर्दश्यां पौर्णमास्यामुपक्रमेत् ।। 64 ।।
64. - - - - - - - - - - - - -
{8. एवं B. }
जपेद्दशसहस्रं तामारामे शोभनद्रुमे।
आसीनो मध्यतः सम्यक्पूर्णकुम्भप्रदीपयोः ।। 65 ।।
65. - - - - - - - - - - - - -
ध्यायन्मां पद्मगर्भाभां पङ्कजद्वयधारिणीम्।
द्विभुजामसितापाङ्गीं नीलकुञ्चितमूर्धजाम् ।। 66 ।।
66. - - - - - - - - - - - - -
स्मितपूर्णमुखीं रम्यां पीनोन्नतपयोधराम्।
सर्वाभरणसंपूर्णां दुकूलोत्तमवासिनीम् ।। 67 ।।
67. - - - - - - - - - - -
सुशुभां सुभगामित्थं ध्यायञ्जपमथाचरेत्।
तर्पयेज्जुहुयाच्चैव दशांशं तारयानया ।। 68 ।।
68. - - - - - - - - - - - -
बलिं दद्याच्च शाल्यन्नं पयोघृतगुडान्वितम्।
स्रियं लक्षणसंपन्नां पूजितां भोजयेत्सुधीः ।। 69 ।।
69. - -