महाभारतम्-09-शल्यपर्व-004

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वेदव्यासः
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दुर्योधनेन कृपम्प्रति कारणकथनपूर्वकं सन्ध्यनङ्गीकरणम्।। 1 ।।

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सञ्जय उवाच। 9-4-1x
एवमुक्तस्ततो राजा गौतमेन तपस्विना।
निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च तूष्णीमासीद्विशाम्पते।।
9-4-1a
9-4-1b
ततो मुहूर्तं स ध्यात्वा तव पुत्रो महामनाः।
कृपं शारद्वतं वाक्यमित्युवाच परन्तपः।।
9-4-2a
9-4-2b
यत्किञ्चित्सुहृदा वाच्यं तत्सर्वं श्रावितो ह्यहम्।
कृतं च भवता सर्वं प्राणान्सन्त्यज्य युध्यता।।
9-4-3a
9-4-3b
गाहमानमनीकानि युध्यमानं महारथैः।
पाण्डवैरतितेजोभिर्लोकस्त्वामनुदृष्टवान्।।
9-4-4a
9-4-4b
सुहृदा यदिदं वाक्यं भवता श्रावितो ह्यहम्।
न मां प्रीणाति तत्सर्वं मुमूर्षोरिव भेषजम्।।
9-4-5a
9-4-5b
हेतुकारणसंयुक्तं हितं वचनमुत्तमम्।
उच्यमानं महाबाहो न मे विप्राग्र्य रोचने।।
9-4-6a
9-4-6b
राज्याद्विनिकृतोऽस्माभिःकथं सोस्मासु विश्वसेत्।। 9-4-7a
अक्षद्यूते च नृपतिर्जितोऽस्माभिर्महाधनः।
स कथं मम वाक्यानि श्रद्दध्याद्भूय एव तु।।
9-4-8a
9-4-8b
तथा दूत्येन सम्प्राप्तः कृष्णः पार्थहिते रतः।
प्रलब्धश्च हृषीकेशस्तच्च कर्माविचारितम्।
स च मे वचनं ब्रह्मन्कथमेवाभिमन्यते।।
9-4-9a
9-4-9b
9-4-9c
विललाप च यत्कृष्णा सभामध्ये समेयुषी।
न तन्मर्षयते कृष्णो न राज्यहरणं तथा।।
9-4-10a
9-4-10b
एकप्राणावुभौ कृष्णावन्योन्यमभिसंश्रितौ।
पुरा यच्छ्रुतमेवासीदद्य पश्यामि तत्प्रभो।।
9-4-11a
9-4-11b
स्वस्रीयं निहतं दृष्ट्वा दुःखं स्वपिति केशवः।
कृतागसो व यं तस्य हितं मे स कथं चरेत्।।
9-4-12a
9-4-12b
अभिमन्योर्विनाशेन न शर्म लभतेऽर्जुनः।
स कथं मद्धिते यत्नं प्रकरिष्यति याचितः।।
9-4-13a
9-4-13b
मध्यमः पाण्डवस्तीक्ष्णो भीमसेनो महाबलः।
प्रतिज्ञातं च तेनोग्रं भज्येतापि न सन्नमेत्।।
9-4-14a
9-4-14b
उभौ तौ बद्धनिस्त्रिंशावुभौ चाबद्धकङ्कटौ।
कृतवैरावुभौ वीरौ यमावपि यमोपमौ।।
9-4-15a
9-4-15b
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च कृतवैरौ मया सह।
तौ कथं मद्विते यत्नं कुर्यातां द्विजसत्तम।।
9-4-16a
9-4-16b
दुःशासनेन यत्कृष्णा एकवस्त्रा रजस्वला।
परिक्लिष्टा सभामध्ये सर्वलोकस्य पश्यतः।।
9-4-17a
9-4-17b
तथा विवसनां दीनां स्मरन्त्यद्यापि पाण्डवाः।
न निवारयितुं शक्याः सङ्ग्रामात्ते परन्तपाः।।
9-4-18a
9-4-18b
यदा च द्रौपदी क्लिष्टा मद्विनाशाय दुःखिता।
उग्रं तेपे तपः कृष्णा भर्तॄणामर्थसिद्धये।
स्थण्डिले नित्यदा शेते यावद्वैरस्य यातनम्।।
9-4-19a
9-4-19b
9-4-19c
निक्षिप्य मानं दर्पं च वासुदेवसहोदरा।
कृष्णायाः प्रेष्यवद्भूत्वा शुश्रूषां कुरुते सदा।।
9-4-20a
9-4-20b
इति सर्वं समुन्नद्धं न निर्वाति कथञ्चन।
अभिमन्योर्विनाशेन स सन्धेयः कथं मया।।
9-4-21a
9-4-21b
कथं च राजा भुक्त्वेमां पृथिवीं सागराम्बराम्।
पाण्डवानां प्रसादेन भोक्ष्ये राज्यमहं कथम्।।
9-4-22a
9-4-22b
उपर्युपरि राज्ञां वै ज्वलित्वा भास्करो यथा।
युधिष्ठिरं कथं पञ्चादनुयास्यामि दासवत्।।
9-4-23a
9-4-23b
कथं भुक्त्वा स्वयं भोगान्दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान्।
कृपणं वर्तयिष्यामि कृपणैः सह जीविकाम्।।
9-4-24a
9-4-24b
नाभ्यसूयामि ते वाक्यमुक्तं स्निग्धं हितं त्वया।।
न तु सन्धिमहं मन्ये प्राप्तकालं कथञ्चन।
9-4-25a
9-4-25b
सुनीतमनुपश्यामि सुयुद्धेन परन्तप।। 9-4-26a
नायं क्लीबायितुं कालः संयोद्वुं काल एव नः।। 9-4-27a
इष्टं मे बहुभिर्जज्ञैर्दत्ता विप्रेषु दक्षिणाः।
प्राप्ताः कामाः श्रुता वेदाः शत्रूणां मूर्ध्नि च स्थितम्।।
9-4-28a
9-4-28b
भृत्या मे सुभृतास्तात दीनश्चाभ्युद्वृतो जनः।
नोत्साहेऽद्य द्विजश्रेष्ठ पाण्डवान्वक्तुमीदृशम्।।
9-4-29a
9-4-29b
जितानि परराष्ट्राणि स्वराष्ट्रमनुपालितम्।
भुक्ताश्च विविधा भोगास्त्रिवर्गः सेवितो मया।।
9-4-30a
9-4-30b
पितॄणां गतमानृण्यं क्षत्रधर्मस्य चोभयोः।
न ध्रुवं सुखमस्तीह कुतो राष्ट्रं कुतो यशः।
इह कीर्तिर्विचेतव्या सा च युद्वेन नान्यथा।।
9-4-31a
9-4-31b
9-4-31c
वृथा च यत्क्षत्रियस्य निधनं तद्विगर्हितम्।
अधर्मः सुमहानेष यच्छय्यामरणं गृहे।।
9-4-32a
9-4-32b
अरण्ये यो विमुच्येत सङ्ग्रामे वा तनुं नृपः।
क्रतूनाहृत्य महतो महिमानं स गच्छति।।
9-4-33a
9-4-33b
कृपणं विलपन्नार्तो जरयाऽभिपरिप्लुतः।
म्रियते रुदतां मध्ये ज्ञातीनां न स पूरुषः।।
9-4-34a
9-4-34b
त्यक्त्वा तु विविधान्भोगान्प्राप्तानां परमां गतिम्।
अपीदानीं सुयुद्धेन गच्छेयं यत्सलोकताम्।।
9-4-35a
9-4-35b
शूराणामार्यवृत्तानां सङ्क्रामेष्वनिवर्तिनाम्।
धीमतां सत्यसन्धानां सर्वेषां क्रतुयाजिनाम्।
शस्त्रावभृथपूतानां ध्रुवो वासस्त्रिविष्टपे।।
9-4-36a
9-4-36b
9-4-36c
मुदा नूनं प्रपश्यन्ति युद्वे ह्यप्सरसां गणाः।। 9-4-37a
पश्यन्ति नूनं पितरः पूजितान्सुरसंसदि।
अप्सरोभिः परिवृतान्मोदमानांस्त्रिविष्टपे।।
9-4-38a
9-4-38b
पन्थानममरैर्यान्तं शूरैश्चैवानिवर्तिभिः।
अपि तत्सङ्गतं मार्गं वयमध्यारुहेमहि।।
9-4-39a
9-4-39b
पितामहेन वृद्वेन तथाऽचार्येण धीमता।
जयद्रथेन कर्णेन तथा दुःशासनेन च।।
9-4-40a
9-4-40b
घटमाना मदर्थेऽस्मिन्हताः शूरा जनाधिपाः।
शेरते लोहिताक्ताङ्गाः पृथिव्यां शरविक्षताः।।
9-4-41a
9-4-41b
उत्तमास्त्रविदः शूरा यथोक्तक्रतुयाजिनः।
त्यक्त्वा प्राणान्यथान्यायमिन्द्रसद्मसु धिष्ठितः।।
9-4-42a
9-4-42b
तैः स्वयं रचितो मार्गो दुर्गमो हि पुनर्भवेत्।
सम्पतद्भिर्महावेगैरितो यास्यामि सद्गतिम्।।
9-4-43a
9-4-43b
ये मदर्थे हताः शूरास्तेषां कृतमनुस्मरन्।
ऋणं तत्प्रतियुञ्जानो न राज्ये मन आदधे।।
9-4-44a
9-4-44b
पातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातृनथ पितामहान्।
जीवितं यदि रक्षेयं लोको मां गर्हयेद्व्रुवम्।।
9-4-45a
9-4-45b
कीदृशं च भवेद्राज्यं मम हीनस्य बन्धुभिः।
सखिभिश्च विशेषेण प्रणिपत्य च पाण्डवम्।।
9-4-46a
9-4-46b
सोऽहमेतादृशं कृत्वा जगतोऽस्य पराभवम्।
सुयुद्धेन हतः स्वर्गं प्राप्सामि न तदन्यथा।।
9-4-47a
9-4-47b
सञ्जय उवाच। 9-4-48x
एं दुर्योधनेनोक्ते सर्वे सम्पूज्य तद्वचः।
साधुसाध्विति राजानं क्षत्रियाः सम्बभाषिरे।।
9-4-48a
9-4-48b
पराजयमशोचन्तः कृतचित्ताश्च विक्रमे।
सर्वे सुनिश्चिता योद्धुमुदग्रमनसोऽभवन्।।
9-4-49a
9-4-49b
ततो वाहान्समाश्वास्य सर्वे युद्धाभिनन्दिनः।
ऊने द्वियोजने गत्वा प्रत्यतिष्ठन्त कौरवाः।।
9-4-50a
9-4-50b
आकाशे विद्रुमे पुण्ये प्रस्थे हिमवतः शुभे।
अरुणां सरस्वतीं प्राप्य पपुः सस्नुश्च तेजलम्।।
9-4-51a
9-4-51b
तव पुत्रकृतोत्साहाः पर्यवर्तन्त ते ततः।
पर्यवस्थाप्य चात्मानमन्योन्येन पुनस्तदा।
सर्वे राजन्न्यवर्तन्त क्षत्रियाः कालचोदिताः।।
9-4-52a
9-4-52b
9-4-52c
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
शल्यवधपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः।। 4 ।।

सम्पाद्यताम्

9-4-11 पुरा यच्छान्तमेवासीत् इति क. पाठः। पुरा यः शन्तमो नासीदद्य पश्यामि तं कथम् इति ङ.पाठः।। 9-4-15 उरश्छदः कङ्कटक इत्यमरः।। 9-4-32 विप्रवन्मरणं गृहे इति क.पाठः। विण्मूत्रमरणं गृहे इति ङ. पाठः।। 9-4-4 चतुर्थोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-003 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-005