महाभारतम्-09-शल्यपर्व-017

← शल्यपर्व-016 महाभारतम्
नवमपर्व
महाभारतम्-09-शल्यपर्व-017
वेदव्यासः
शल्यपर्व-018 →

सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 005ब
  7. 006
  8. 007
  9. 008
  10. 009
  11. 010
  12. 011
  13. 012
  14. 013
  15. 014
  16. 015
  17. 016
  18. 017
  19. 018
  20. 019
  21. 020
  22. 021
  23. 022
  24. 023
  25. 024
  26. 025
  27. 026
  28. 027
  29. 028
  30. 029
  31. 030
  32. 031
  33. 032
  34. 033
  35. 034
  36. 035
  37. 036
  38. 037
  39. 038
  40. 039
  41. 040
  42. 041
  43. 042
  44. 043
  45. 044
  46. 045
  47. 046
  48. 047
  49. 048
  50. 049
  51. 050
  52. 051
  53. 052
  54. 053
  55. 054
  56. 055
  57. 056
  58. 057
  59. 058
  60. 059
  61. 060
  62. 061
  63. 062
  64. 063
  65. 064
  66. 065
  67. 066
सञ्जय उवाच। 9-17-1x
शल्येऽथ निहते राजन्मद्रराजपदानुगाः।
रथाः सप्तशता वीरा दुद्रुवुर्महतो बलात्।।
9-17-1a
9-17-1b
दुर्योधनस्तु द्विरदमारुह्याचलसन्निभम्।
छत्रेण ध्रियमाणेन वीज्यमानश्च चामरैः।
न गन्तव्यं न गन्तव्यमिति मद्रानवारयत्।।
9-17-2a
9-17-2b
9-17-2c
दुर्योधनेन ते वीरा वार्यमाणाः पुनः पुनः।
युधिष्ठिरं जिघांसन्तः पाण्डूनां प्राविशन्बलम्।।
9-17-3a
9-17-3b
ते तु शूरा महाराज कृतचित्ताश्च योधने।
धनुःशब्दं महत्कृत्वा सहायुध्यन्त पाण्डवैः।।
9-17-4a
9-17-4b
श्रुत्वा च निहतं शल्यं धर्मपुत्रं च पीडितम्।
मद्रराजप्रिये युक्तैर्मद्रकाणां महारथैः।।
9-17-5a
9-17-5b
आजगाम ततः पार्थो गाण्डीवं विक्षिपन्धनुः।
पूरयन्रथघोषेण दिशः सर्वा महारथः।।
9-17-6a
9-17-6b
ततोऽर्जुनश्च भीमश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
सात्यकिश्च नरव्याघ्रो द्रौपदेयाश्च सर्वशः।।
9-17-7a
9-17-7b
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च पाञ्चालाः सह सोमकैः।
युधिष्ठिरं परीप्सन्तः समन्तात्पर्यवारयन्।।
9-17-8a
9-17-8b
ते समन्तात्परिवृताः पाण्डवैः पुरुषर्षभैः।
क्षोभयन्ति स्म तां सेनां मकराः सागरं यथा।
वृक्षानिव महावाताः कम्पयन्ति स्म तावकाः।।
9-17-9a
9-17-9b
9-17-9c
पुरोवातेन गङ्गेव--क्षोभ्यमाणा महानदी।
अक्षोभ्यत तदा राजन्पाण्डूनां ध्वजिनी ततः।।
9-17-10a
9-17-10b
प्रस्कन्द्य सेनां महतीं महात्मानो महारथाः।
बहवश्चुक्रुशुस्तत्र क्व स राजा युधिष्ठिरः।
भ्रातरो वाऽस्य ते शूरा दृश्यन्ते नेह केचन।।
9-17-11a
9-17-11b
9-17-11c
धृष्टद्युम्नोऽथ शैनेयो द्रौपदेयाश्च सर्वशः।
पाञ्चालाश्च महावीर्याः शिखण्डी च महारथः।।
9-17-12a
9-17-12b
एवं तान्वादिनः शूरान्द्रौपदेया महारथाः।
अभ्यघ्नन्युयुधानश्च मद्रराजपदानुगान्।।
9-17-13a
9-17-13b
चक्रैर्विमथितैः केचित्केचिच्छिन्नैर्महाध्वजैः।
सम्प्रदृश्यन्त समरे तावका निहताः परैः।।
9-17-14a
9-17-14b
आलोक्य पाण्डवान्युद्धे योधा राजन्समन्ततः।
वार्यमाणा ययुर्वेगात्पुत्रेण तव भारत।।
9-17-15a
9-17-15b
दुर्योधनश्च तान्वीरान्वारयामास सान्त्वयन्।
न चास्य शासनं केचित्तत्र चक्रुर्महारथाः।।
9-17-16a
9-17-16b
ततो गान्धारराजस्य पुत्रः शकुनिरब्रवीत्।
दुर्योधनं महाराज वचनं वचनक्षमम्।।
9-17-17a
9-17-17b
किं नः सम्प्रेक्षमाणानां मद्राणां हन्यते बलम्।
न युक्तमेतत्समरे त्वयि तिष्ठति भारत।।
9-17-18a
9-17-18b
सहितैर्नाम योद्धव्यमित्येष समयः कृतः।
अथ कस्मात्स्मरन्नेव घ्नतो मर्षयसे नृप।।
9-17-19a
9-17-19b
दुर्योधन उवाच। 9-17-20x
वार्यमाणा मया पूर्वं नैते चक्रुर्वचो मम।
एते विनिहताः सर्वे प्रस्कन्नाः पाण्डुवाहिनीम्।।
9-17-20a
9-17-20b
शकुनिरुवाच। 9-17-21x
न भर्तुः शासनं वीरा रणे कुर्वन्त्यमर्षिताः।
अलं क्रोद्वुमथैतेषां नायं काल उपेक्षितुम्।।
9-17-21a
9-17-21b
यामः सर्वेऽत्र सम्भूय सवाजिरथकुञ्जराः।
परित्रातुं महेष्वासान्मद्रराजपदानुगान्।।
9-17-22a
9-17-22b
अन्योन्यं परिरक्षामो यत्नेन महता नृप।
एवं सर्वेऽनुसञ्चिन्त्य प्रययुर्यत्र सैनिकाः।।
9-17-23a
9-17-23b
सञ्जय उवाच। 9-17-24x
एवमुक्तस्तदा राजा बलेन महता वृतः।
प्रययौ सिंहनादेन कम्पयन्निव मेदिनीम्।।
9-17-24a
9-17-24b
हत विध्यत गृह्णीत प्रहरध्वं निकृन्तत।
इत्यासीत्तुमुलः शब्दस्तव सैन्यस्य भारत।।
9-17-25a
9-17-25b
पाण्डवास्तु रणे दृष्ट्वा मद्रराजपदानुगान्।
सहितानभ्यवर्तन्तं गुल्ममास्थाय मध्यमम्।।
9-17-26a
9-17-26b
ते मुहूर्ताद्रणे वीरा हस्ताहस्ति विशाम्पते।
निहताः प्रत्यदृश्यन्त मद्रराजपदानुगाः।।
9-17-27a
9-17-27b
ततो नः सम्प्रयातानां हता मद्रास्तरस्विनः।
हृष्टाः किलकिलाशब्दमकुर्वन्सहिताः परे।।
9-17-28a
9-17-28b
अथोत्थितानि रुण्डानि समदृश्यन्त सर्वशः।
पपात महती चोल्का मध्येनादित्यमण्डलम्।।
9-17-29a
9-17-29b
रथैर्भग्नयुगाक्षैश्च निहतैश्च महारथैः।
अश्वैर्निपातितैश्चैव सञ्छन्नाऽभूद्वसुन्धरा।।
9-17-30a
9-17-30b
वातायमानैस्तुरगैर्युगासक्तैस्ततस्ततः।
अकृष्यन्त महाराज योधास्तत्र रणाजिरे।।
9-17-31a
9-17-31b
भग्नचक्रान्रथान्केचिदहरंस्तुरगा रणे।
रथार्धं केचिदादाय दिशो दश विबभ्रमुः।
तत्रतत्र व्यदृश्यन्त योक्त्रैः श्लिष्टाः स्म वाजिनः।।
9-17-32a
9-17-32b
9-17-32c
रथिनः पतमानाश्च दृश्यन्ते स्म नरोत्तमाः।
गगनात्प्रच्युताः सिद्धाः पुण्यानामिव सङ्क्षये।।
9-17-33a
9-17-33b
निहतेषु च शूरेषु मद्रराजानुगेषु वै।
अस्मानापततश्चापि दृष्ट्वा पार्था महारथाः।।
9-17-34a
9-17-34b
अभ्यवर्तन्त वेगेन जयगृद्धाः प्रहारिणः।
बाणशब्दरवान्कृत्वा विमिश्राञ्शङ्खनिःस्वनैः।।
9-17-35a
9-17-35b
अस्मांस्तु पुनरासाद्य लब्धलक्षाः प्रहारिणः।
शरासनानि धुन्वानाः सिंहनादान्प्रचुक्रुशुः।।
9-17-36a
9-17-36b
ततो हतमभिप्रेक्ष्य मद्रराजबलं महत्।
मद्रराजं च समरे दृष्ट्वा शूरं निपातितम्।
दुर्योधनबलं सर्वं पुनरासीत्पराङ्मुखम्।।
9-17-37a
9-17-37b
9-17-37c
वध्यमानं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः।
दिशो भेजेऽथ सम्भ्रान्तं त्रासितं दृढधन्विभिः।।
9-17-38a
9-17-38b
।। इति श्रीमन्महाभारते
शल्यवपर्वणि शल्यवधपर्वणि
अष्टादशदिवसयुद्धे सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।।

9-17-20 प्रस्कन्नाः प्रपन्नाः।। 9-17-17 सप्तदशोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-016 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-018