महाभारतम्-09-शल्यपर्व-058

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सञ्जय उवाच।

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सञ्जय उवाच। 9-58-1x
ततो दुर्योधनो दृष्ट्वा भीमसेनं तथाऽऽगतम्।
प्रत्युद्ययावदीनात्मा वेगेन महता नदन्।।
9-58-1a
9-58-1b
समापेततुरन्योन्यं शृङ्गिणौ वृषभाविव।
महानिर्घातघोषश्च प्रहाराणामजायत।।
9-58-2a
9-58-2b
अभवच्च तयोर्युद्वं तुमुलं रोमहर्षणम्।
जिघृक्षतोर्यथाऽन्योन्यमिन्द्रप्रह्लादयोरिव।।
9-58-3a
9-58-3b
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ गदाहस्तौ मनस्विनौ।
ददृशाते महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ।।
9-58-4a
9-58-4b
तथा तस्मिन्महायुद्धे वर्तमाने सुदारुणे।
खद्योतसङ्खैरिव खं दर्शनीयं व्यरोचत।।
9-58-5a
9-58-5b
तथा तस्मिन्वर्तमाने सङ्कुले तुमुले भृशम्।
उभावपि परिश्रान्तौ युध्यमानावरिन्दमौ।।
9-58-6a
9-58-6b
तौ मुहूर्तं समाश्वस्य पुनरेव परन्तपौ।
सम्प्रहारयतां चित्रे सम्प्रगृह्य गदे शुभे।।
9-58-7a
9-58-7b
तौ तु दृष्ट्वा महावीर्यौ समाश्वस्तौ नरर्षभौ।
बलिनौ वारणौ यद्वद्वासितार्थे मदोत्कटौ।।
9-58-8a
9-58-8b
समानवीर्यौ सम्प्रेक्ष्य प्रगृहीतगदावुभौ।
प्रहर्षं परमं जग्मुर्देवगन्धर्वदानवाः।।
9-58-9a
9-58-9b
प्रगृहीतगदौ दृष्ट्वा दुर्योधनवृकोदरौ।
संशयः सर्वभूतानां विजये समपद्यत।।
9-58-10a
9-58-10b
समागम्य ततो भूयो भ्रातरौ बलिनां वरौ।
अन्योन्यस्यान्तरप्रेप्सू प्रचक्रातेऽन्तरं प्रति।।
9-58-11a
9-58-11b
यमदण्डोपमां गुर्वीमिन्द्राशनिमिवोद्यताम्।
ददृशुः प्रेक्षका राजन्रौद्रीं विशसनीं गदाम्।।
9-58-12a
9-58-12b
आविद्ध्यतो गतां तस्य भीमसेनस्य संयुगे।
शब्दः सुतुमुलो घोरो मुहूर्तं समपद्यत।।
9-58-13a
9-58-13b
आविद्ध्यन्तमरिं प्रेक्ष्य धार्तराष्ट्रोऽथ पाण्डवम्।
गदामतुलवेगां तां विस्मितः सम्बभूव ह।।
9-58-14a
9-58-14b
चरंश्च विविधान्मार्गान्मण्डलानि च भारत।
अशोभत तदा वीरो भूय एव वृकोदरः।।
9-58-15a
9-58-15b
तौ परस्परमासाद्य यत्तावन्योन्यसूदने।
मार्जाराविव भक्षार्थे ततक्षाते मुहुर्मुहुः।।
9-58-16a
9-58-16b
अचरद्भीमसेनस्तु मार्गान्बहुविधांस्तथा।
मण्डलानि विचित्राणि गतप्रत्यागतानि च।।
9-58-17a
9-58-17b
गोमूत्रिकाणि चित्राणि स्थानानि विविधानि च।
परिमोक्षं प्रहाराणां वर्जनं परिधावनम्।।
9-58-18a
9-58-18b
अभिद्रवणमाक्षेपमवस्थानं सविग्रहम्।
मत्स्योद्वृत्तं सोरुवृत्तमवप्लुतमुपप्लुतम्।।
9-58-19a
9-58-19b
उपन्यस्तमपन्यस्तं गदायुद्धविशारदौ।
एवं तौ विचरन्तौ तु न्यघ्नतां वै परस्परम्।।
9-58-20a
9-58-20b
वञ्चयानौ पुनश्चैव चेरतुः कुरुसत्तमौ।
विक्रीडन्तौ सुबलिनौ मण्डलानि विचेरतुः।।
9-58-21a
9-58-21b
[तौ दर्शयन्तौ समरे युद्धक्रीडां समन्ततः।
गदाभ्यां सहसाऽन्योन्यमाजघ्नतुररिन्दमौ।।
9-58-22a
9-58-22b
परस्परं समासाद्य दंष्ट्राभ्यां द्विरदौ यथा।
अशोभेतां महाराज शोणितेन परिप्लुतौ।।
9-58-23a
9-58-23b
एवं तदभवद्युद्धं घोररूपं परन्तप।
परिवृत्तेऽहनि क्रूरं वृत्रवासवयोरिव।।]
9-58-24a
9-58-24b
गदाहस्तौ ततस्तौ तु मण्डलावस्थितौ बली।
दक्षिणं मण्डलं राजन्धार्तराष्ट्रोऽभ्यवर्तत।
सव्यं तु मण्डलं तत्र भीमसेनोऽभ्यवर्तत।।
9-58-25a
9-58-25b
9-58-25c
तथा तु चरतस्तस्य भीमस्य रणमूर्धनि।
दुर्योधनो महाराज पार्श्वदेशेऽभ्यताडयत्।।
9-58-26a
9-58-26b
आहतस्तु ततो भीमः पुत्रेण तव भारत।
आविध्यत गदां गुवीं प्रहारं तमचिन्तयन्।।
9-58-27a
9-58-27b
इन्द्राशनिसमां घोरां यमदण्डमिवोद्यताम्।
ददृशुस्ते महाराज भीमसेनस्य तां गदाम्।।
9-58-28a
9-58-28b
आविध्यन्तं गदां दृष्ट्वा भीमसेनं तवात्मजः।
समुद्यम्य गदां घोरां प्रत्यविध्यत्परन्तपः।।
9-58-29a
9-58-29b
गदामारुतवेगेन तव पुत्रस्य भारत।
शब्द आसीत्सुतुमुलस्तेजश्च समजायत।।
9-58-30a
9-58-30b
स चरन्विविधान्मार्गान्मण्डलानि च भागशः।
समशोभत तेजस्वी भूयो भीमात्सुयोधनः।।
9-58-31a
9-58-31b
आविद्धा सर्ववेगेन भीमेन महती गदा।
सधूमं सार्चिषं चाग्निं मुमोचोग्रमहास्वना।।
9-58-32a
9-58-32b
आधूतां भीमसेनेन गदां दृष्ट्वा सुयोधनः।
अद्रिसारमयीं गुर्वीमाविध्यन्बह्वशोभत।।
9-58-33a
9-58-33b
गदामारुतवेगं हि दृष्ट्वा तस्य महात्मनः।
भयं विवेश पाण्डूंस्तु सर्वानेव ससात्यकीन्।।
9-58-34a
9-58-34b
तौ दर्शयन्तौ समरे युद्धक्रीडां समन्ततः।
गदाभ्यां सहसाऽन्योन्यमाजघ्नतुररिन्दमौ।।
9-58-35a
9-58-35b
तौ परस्परमासाद्य दंष्ट्राभ्यां द्विरदौ यथा।
अशोभेतां महाराज शोणितेन परिप्लुतौ।।
9-58-36a
9-58-36b
एवं तदभवद्युद्धं घोररूपमसंवृतम्।
परिवृत्तेऽहनि क्रूरं वृत्रवासवयोरिव।।
9-58-37a
9-58-37b
दृष्ट्वा व्यवस्थितं भीमं तव पुत्रो महाबलः।
चरंश्चित्रतरान्मा र्गान्कौन्तेयमभिदुद्रुवे।।
9-58-38a
9-58-38b
तस्य भीमो महावेगां जाम्बूनदपरिष्कृताम्।
अतिक्रुद्धस्य क्रुद्धस्तु ताडयामास तां गदाम्।।
9-58-39a
9-58-39b
सविस्फुलिङ्गो निर्हादस्तयोस्तत्राभिघातजः।
प्रादुरासीन्महाराज घृष्टयोर्वज्रयोरिव।।
9-58-40a
9-58-40b
वेगवत्या तया तत्र भीमसेनप्रमुक्तया।
निपतन्त्या महाराज पृथिवी समकम्पत।।
9-58-41a
9-58-41b
तां नामृष्यत कौरव्यो गदां प्रतिहतां रणे।
मत्तो द्विप इव क्रुद्धः प्रतिकुञ्जरदर्शनात्।।
9-58-42a
9-58-42b
स सव्यं मण्डलं राजा उद्धाम्य कृतनिश्चयः।
आजघ्ने मूर्ध्नि कौन्तेयं गदया भीमवेगया।।
9-58-43a
9-58-43b
तया त्वभिहतो भीमः पुत्रेण तव पाण्डवः।
नाकम्पत महाराज तदद्भुतमिवाभवत्।।
9-58-44a
9-58-44b
आश्चर्यं चापि तद्राजन्सर्वसैन्यान्यपूजयन्।
यद्गदाभिहतो भीमो नाकम्पत पदात्पदम्।।
9-58-45a
9-58-45b
ततो गुरुतरां दीप्तां गदां हेमपरिष्कृताम्।
दुर्योधनाय व्यसृजद्भीमो भीमपराक्रमः।।
9-58-46a
9-58-46b
तं प्रहारमसम्भ्रान्तो लाघवेन महाबलः।
मोघं दुर्योधनश्चक्रे तत्राभूद्विस्मयो महान्।।
9-58-47a
9-58-47b
सा तु मोघा गदा राजन्पतन्ती भीमचोदिता।
चालयामास पृथिवीं महानिर्घातनिःस्वनाः।।
9-58-48a
9-58-48b
आस्थाय कौशिकान्मार्गानुत्पतन्स पुनः पुनः।
गदानिपातं प्रज्ञाय भीमसेनं च वञ्चितम्।।
9-58-49a
9-58-49b
वञ्चयित्वा तदा भीमं गदया कुरुसत्तमः।
ताडयामास सङ्क्रुद्धो वक्षोदेशे महाबलः।।
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9-58-50b
गदया निहतो भीमो मुह्यमानो महारणे।
नाभ्यमन्यत कर्तव्यं पुत्रेणाभ्याहतस्तव।।
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9-58-51b
तस्मिंस्तथा वर्तमाने राजन्सोमकपाण्‍डवाः।
भृशोपहतसङ्कल्पा नहृष्टमनसोऽभवन्।।
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9-58-52b
स तु तेन प्रहारेण मातङ्ग इव रोषितः।
हस्तिवद्वस्तिसंकाशमभिदुद्राव ते सुतम्।।
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9-58-53b
ततस्तु तरसा भीमो गदया तनयं तव।
अभिदुद्राव वेगेन सिंहो वनगजं यथा।।
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9-58-54b
उपसृत्य तु राजानं गदामोक्षविशारदः।
आविध्यत गदां राजन्समुद्दिश्य सुतं तव।।
9-58-55a
9-58-55b
अताडयद्भीमसेनः पार्श्वे दुर्योधनं तदा।
स विह्वलः प्रहारेण जानुभ्यामगमन्महीम्।।
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9-58-56b
तस्मिन्कुरुकुलश्रेष्ठे जानुभ्यामवनीं गते।
उदतिष्ठत्ततो नादः सृञ्जयानां जगत्पते।।
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तेषां तु निनदं श्रुत्वा शृञ्जयानां नरर्षभः।
अमर्षाद्भरतश्रेष्ठ पुत्रस्ते समकुप्यत।।
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9-58-58b
उत्थाय तु महाबाहुर्महानाग इव श्वसन्।
दिधक्षन्निव नेत्राभ्यां भीमसेनमवैक्षत।।
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9-58-59b
ततः स भरतश्रेष्ठो गदापाणिरभिद्रवन्।
प्रमथिष्यन्निव शिरो भीमसेनस्य संयुगे।।
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9-58-60b
स महात्मा महात्मानं भीमं भीमपराक्रमः।
अताडयच्छङ्खदेशे न चचालाचलोपमः।।
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स भूयः शुशुभे पार्थस्ताडितो गदया रणे।
उद्भिन्नरुधिरो राजन्प्रभिन्न इव कुञ्चरः।।
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9-58-62b
ततो गदां वीरहणीमयोमयीं
प्रगृह्य वज्राशनितुल्यनिःस्वनाम्।
अताडयच्छत्रुममित्रकर्शनो
बलेन विक्रम्य धनञ्जयाग्रजः।।
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स भीमसेनाभिहतस्तवात्मजः
पपात सङ्कम्पितदेहबन्धनः।
सुपुष्पितो मारुतवेगताडितो
वने महासाल इवावघूर्णितः।।
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ततः प्रणेदुर्जहृषुश्च पाण्डवाः
समीक्ष्य पुत्रं पतितं क्षितौ तव।
ततः सुतस्ते प्रतिलभ्य चेतनां
समुत्पपात द्विरदो यथा हदात्।।
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स पार्थिवो नित्यममर्षितस्तदा
महारथः शिक्षितवत्परिभ्रमन्।
अताडयत्पाण्डवमग्रतः स्थितं
स विह्वलाङ्गो जगतीमुपास्पृशत्।।
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स सिंहनादं विननाद कौरवो
निपात्य भूमौ युधि भीममोजसा।
बिभेद चैवाशनितुल्यमोजसा
गदानिपातेन शरीररक्षणम्।।
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ततोऽन्तरिक्षे निनदो महानभू--
द्दिवौकसामप्सरसां च नेदुषाम्।
पपात चोच्चैरमरप्रवेरितं
विचित्रपुष्पोत्करवर्षमुत्तमम्।।
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ततः परानाविशदुत्तमं भयं
समीक्ष्य भूमौ पतितं नरोत्तमम्।
अहीयमानं च बलेन कौरवं
निशाम्य भेदं सुदृढस्य वर्मणः।।
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ततो मुहूर्तादुपलभ्य चेतनां
प्रमृज्य वक्त्रं रुधिराक्तमात्मनः।
धृतिं समालम्ब्य विवृत्य लोचने
बलेन संस्तभ्य वृकोदरः स्थितः।।
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`ततो यमौ यमसदृशौ पराक्रमे
सपार्षतः शिनितनयश्च वीर्यवान्।
समाह्वयन्नहमहमित्यभित्वरं--
स्तवात्मजं समभिययुर्वधैषिणः।।
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निवर्त्य तान्पुनरपि पाण्डवो बली
तवात्मजं स्वयमभिगम्य कालवत्।
चचार चाप्यपगतखेदवेपथुः
सुरेश्वरो नमुचिमिवोत्तमं रणे'।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
गदायुद्धपर्वणि अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 58 ।।

9-58-3 जिगीषतोर्यथेति झ.पाठः।। 9-58-49 आस्थायेति। कौशिकान् कुश उन्मत्तस्तदाचरितान्मार्गानास्थाय पुनः पुनरुत्पतनेन वञ्चनेन च भीममुन्मत्तीकृत्य गदया ताडयामासेति द्वयोः सम्बन्धः।। 9-58-52 नहृष्टमनसः खिन्नचेतसः।। 9-58-61 शङ्खदेशे ललाटप्रान्त।। 9-58-69 नेदुषां नाद कृतवतीनाम्।। 9-58-58 अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-057 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-059