महाभारतम्-09-शल्यपर्व-066
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द्रौणिकृतकृतवर्मभिर्दुर्योधनस्य भूपतनदर्शनेन शोचनम्।। 1 ।। द्रौणिदुर्योधनयोः संलापः।। 2 ।। द्रौणिना रात्रौ पाण्डववधप्रतिज्ञानम्।। 3 ।। दुर्योधनवचनात् कृपेण द्रौणेः सैनापत्येऽफिषेचनम्।। 4 ।।
सञ्जय उवाच। | 9-66-1x |
वादिकानां सकाशात्तु श्रुत्वा दुर्योधनं हतम्। हतशिष्टास्तदा राजन्कौरवाणां महारथाः।। | 9-66-1a 9-66-1b |
विनिर्भिन्नाः शितैर्बाणैर्णदातोमरशक्तिभिः। अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः। त्वरिता जवनैरश्वैरायोधनमुपागमन्।। | 9-66-2a 9-66-2b 9-66-2c |
तत्रापश्यन्महात्मानं धार्तराष्ट्रं निपातितम्। प्रभग्नं वायुवेगेन महासालं यथा वने।। | 9-66-3a 9-66-3b |
भूमौ विवेष्टमानं तं रुधिरेण समुक्षितम्। महागर्जामेवारण्ये व्याधेन विनिपातितम्।। | 9-66-4a 9-66-4b |
विवर्तमानं बहुशो रुधिरौघपरिप्लुतम्। यदृच्छया निपतितं चन्द्रमादित्यगोचरात्।। | 9-66-5a 9-66-5b |
युगान्तमारुतेनेव शोषितं मकरालयम्। पूर्णचन्द्रमिव व्योम्नि तुषारावृतमण्डलम्।। | 9-66-6a 9-66-6b |
रेणुध्वस्तं दीर्घभुजं मातङ्गमिव विक्रमे। वृतं भूतगणैर्घोरैः क्रव्यादैश्च समन्ततः।। | 9-66-7a 9-66-7b |
यथा धनं लिप्समानैर्भृत्यैर्नृपतिसत्तमम्। भ्रुकुटीकृतवक्त्रान्तं क्रोधादुद्वृत्तचक्षुषम्। सामर्षं तं नरव्याघ्रं भौमं निपतितं तथा।। | 9-66-8a 9-66-8b 9-66-8c |
ते तं दृष्ट्वा महेष्वासं भूतले पतितं नृपम्। मोहमभ्यागमन्सर्वे कृपप्रभृतयो रथाः।। | 9-66-9a 9-66-9b |
अवतीर्य रथेभ्यश्च प्राद्रवन्राजसन्निधौ। दुर्योधनं च सम्प्राप्य सर्वे भूमावुपाविशन्।। | 9-66-10a 9-66-10b |
ततो द्रौणिर्महाराज बाष्पपूर्णेक्षणः श्वसन्। उवाच भरतश्रेष्ठं सर्वलोकेश्वरेश्वरम्।। | 9-66-11a 9-66-11b |
न नूनं विद्यते पुण्यं मानुषे किञ्चिदेव हि। यत्र त्वं पुरुषव्याघ्र शेषे पांसुषु रूषितः।। | 9-66-12a 9-66-12b |
भूत्वा हि नृपतिः पूर्वं समाज्ञाप्य च मेदिनीम्। कथमेकोऽद्य राजेन्द्र तिष्ठसे निर्जने वने।। | 9-66-13a 9-66-13b |
दुःशासनं न पश्यामि नापि कर्णं महारथम्। नापि तान्सुहृदः सर्वान्किमिदं भरतर्षभ।। | 9-66-14a 9-66-14b |
दुःखं नूनं कृतान्तस्य गतिं ज्ञातुं कथञ्चन। लोकनाथो भवान्यत्र शेषे पांसुषु रूषितः।। | 9-66-15a 9-66-15b |
एष मूर्धाभिषिक्तानामग्रे गत्वा परन्तपः। सतृणं ग्रसते पांसुं पश्य कालस्य पर्ययम्।। | 9-66-16a 9-66-16b |
क्व ते तदमलं छत्रं व्यजनं क्व च पार्थिव। सा च ते महती सेना क्व गता पार्थिवोत्तम।। | 9-66-17a 9-66-17b |
दुर्विज्ञेया गतिर्नूनं कार्याणां कारणान्तरे। यो वै लोकगुरुर्नाथो भवानेतां दशां गताः।। | 9-66-18a 9-66-18b |
अध्रुवा सर्वमर्त्येषु ध्रुवैव श्रीर्विचिन्त्यते। भवतो व्यसनं दृष्ट्वा शक्रविस्पर्धिनो भृशम्।। | 9-66-19a 9-66-19b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दुःखितस्य विशेषतः। उवाच राजन्पुत्रस्ते प्राप्तकालमिदं वचः।। | 9-66-20a 9-66-20b |
विमृज्य नेत्रे पाणिभ्यां शोकजं बाष्पमुत्सृजन्। कृपादीन्स तदा वीरान्सर्वानेव नराधिपः।। | 9-66-21a 9-66-21b |
ईदृशो लोकधर्मोऽयं धात्रा निर्दिष्ट उच्यते। विनाशः सर्वभूतानां कालपर्यायकारितः।। | 9-66-22a 9-66-22b |
सोऽयं मां समनुप्राप्तः प्रत्यक्षो भवतां हि यः। पृथिवीं पालयित्वाऽहमेतां निष्ठामुपागतः।। | 9-66-23a 9-66-23b |
दिष्ट्या नाहं परावृत्तो युद्धे कस्यांचिदापदि। दिष्ट्याऽहं निहतः पापैश्चलेनैव विशेषतः।। | 9-66-24a 9-66-24b |
उत्साहश्च कृतो नित्यं मया दिष्ट्या युयुत्सता। दिष्ट्या चास्मिन्हतो युद्धे निहतज्ञातिबान्धवः।। | 9-66-25a 9-66-25b |
दिष्ट्या च वोऽहं पश्यामि मुक्तानस्माज्जनक्षयात्। स्वस्तियुक्तांश्च कल्याणांस्तन्मे प्रियमनुत्तमम्।। | 9-66-26a 9-66-26b |
मा भवन्तोऽत्र तप्यन्तां सौहृदान्निधनेन मे। यदि वेदाः प्रमाणं वो जिता लोका मयाऽक्षयाः।। | 9-66-27a 9-66-27b |
जानमानः प्रभावं च कृष्णस्यामिततेजसः। तेन न च्यावितश्चाहं क्षत्रधर्मात्स्वनुष्ठितात्।। | 9-66-28a 9-66-28b |
स मया समनुप्राप्तो नास्मि शोच्यः कथञ्चन। कृतं भवद्भिः सदृशमनुरूपमिवात्मनः। यतितं विजये शक्त्या दैवं तु दुरतिक्रमम्।। | 9-66-29a 9-66-29b 9-66-29c |
एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पव्याकुललोचनः। तूष्णीबभूव राजेन्द्र रुजाऽसौ विह्वलो भृशम्।। | 9-66-30a 9-66-30b |
तथा दृष्ट्वा तु राजानं बाष्पशोकसमन्वितम्। द्रौणिः क्रोधेन जज्वाल यथा वह्निर्जगत्क्षये।। | 9-66-31a 9-66-31b |
स च क्रोधसमाविष्टः पाणौ पाणिं निपीड्य च। बाष्पविह्वलया वाचा राजानमिदमब्रवीत्।। | 9-66-32a 9-66-32b |
पिता मे निहतः क्षुद्रैः सुनृशंसेन कर्मणा। न तथा तेन तप्यामि तथा राजंस्त्वयाऽद्य वै।। | 9-66-33a 9-66-33b |
शृणु चेदं वचो मह्यं सत्येन वदतः प्रभो। इष्टापूर्तेन दानेन धर्मेण सुकृतेन च।। | 9-66-34a 9-66-34b |
अद्याहं सर्वपाञ्चालान्वासुदेवस्य पश्यतः। अद्य रात्रौ महाराज निहनिष्यामि पाण्डवान्।। | 9-66-35a 9-66-35b |
अनुज्ञां तु महाराज भवान्मे दातुमर्हति।। | 9-66-36a |
तच्छ्रुत्वा वचनं द्रौणेर्धृतराष्ट्र तवात्मजः। मनसः प्रीतिजननं कृपं वचनमब्रवीत्। | 9-66-37a 9-66-37b |
दुर्योधन उवाच। | 9-66-37x |
आचार्य शीघ्रं कलशं जलपूर्णं समानय।। | 9-66-37c |
स तद्वचनमाज्ञाय राज्ञो ब्राह्मणसत्तमः। कलशं पूर्णमादाय राज्ञोऽन्तिकमुपागमत्।। | 9-66-38a 9-66-38b |
तमब्रवीन्महाराज पुत्रस्तव विशाम्पते। ममाज्ञया द्विजश्रेष्ठ द्रोणपुत्रोऽभिषिच्यताम्। सैनापत्येन भद्रं ते मम चेदिच्छसि प्रियम्।। | 9-66-39a 9-66-39b 9-66-39c |
राज्ञो नियोगाद्योद्वव्यं ब्राह्मणेन विशेषतः। वर्तता क्षत्रधर्मेण ह्येवं धर्मविदो विदुः।। | 9-66-40a 9-66-40b |
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा कृपः शारद्वतस्ततः। द्रौणिं राज्ञो नियोगेन सैनापत्येऽभ्यषेचयत्।। | 9-66-41a 9-66-41b |
सोऽभिषिक्तो महाराज परिष्वज्य नृपोत्तमम्। प्रययौ सिंहनादेन दिशः सर्वा विनादयन्।। | 9-66-42a 9-66-42b |
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र शोणितेन परिप्लुतः। तां निशां प्रतिपेदेऽथ सर्वभूतभयावहाम्।। | 9-66-43a 9-66-43b |
अपक्रम्य तु ते तूर्णं तस्मादायोधनान्नृप। शोकसंविग्नमनसश्चिन्तामापेदिरे भृशम्।। | 9-66-44a 9-66-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शल्यपर्वणि गदायुद्धपर्वणि षट्षष्टितमोऽध्यायः।। 66 ।। | |
।। समाप्तं गदायुद्धपर्व शल्यपर्व च।। 9 ।। | |
अतः परं सौप्तिकं पर्व भविष्यति। तस्यायमाद्यः श्लोकः। | 9-66-1a 9-66-1b |
सञ्जय उवाच। | 9-66-1x |
ततस्ते सहिताः सर्वे प्रयाता दक्षिणामुखाः। उपास्तमयवेलायां शिबिराभ्याशमागताः।। | 9-66-1c 9-66-1d |
9-66-5 आदित्यगोचरात्गगनात्। चक्रामादित्यगोचरमिति झ.पाठः तत्र चक्रमादित्यगोचरं सूर्यमण्डलमिवेति लुप्तोपमा।। 9-66-18 कारणान्तरे अदृष्टरूपे सति। तेन दृष्टसामग्रीवैयर्थ्यं जायत इति भावः।। 9-66-66 षट्षष्टितमोऽध्यायः।।
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