महाभारतम्-09-शल्यपर्व-065

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-065
वेदव्यासः
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सञ्जयेन धृतराष्ट्रंप्रति दुर्योधनविलापप्रकारकथनम्।। 1 ।। वादिकैरश्वत्थाम्नि दुर्योधनपातननिवेदनम्।। 2 ।।

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धृतराष्ट्र उवाच। 9-65-1x
अधिष्ठितः पदा मूर्ध्नि भग्नसक्थो महीं गतः।
शौटीर्यमानी पुत्रो मे किमभाषत सञ्जय।।
9-65-1a
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अत्यर्थं कोपनो राजा जावैरश्च पाण्डुषु।
व्यसनं परमं प्राप्तः किमाह परमाहवे।।
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सञ्जय उवाच। 9-65-3x
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तं नराधिप।
राज्ञा यदुक्तं मग्नेन तस्मिन्व्यसनसागरे।।
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9-65-3b
भग्नसक्थो नृपो राजन्पांसुना सोऽवकुण्ठितः।
यमयन्मूर्धजांस्तत्र वीक्ष्य चैव दिशो दश।।
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9-65-4b
केशान्नियस्य यत्नेन निःश्वसन्नुरगो यथा।
संरम्भाश्रुपरीताब्यां नेत्राभ्यामभिवीक्ष्य माम्।।
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9-65-5b
बाहू धरण्यां निष्पिष्य सुदुर्मत्त इव द्विपः।
प्रकीर्णान्मूर्धजान्धुन्वन्दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन्।
गर्हयन्पाण्डवं ज्येष्ठं निःश्वस्येदमथाब्रवीत्।।
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भीष्मे शान्तनवे नाथे कर्णे शस्त्रभृतां वरे।
गौतमे शकुनौ चापि द्रोणे चास्त्रभृतां वरे।।
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9-65-7b
अश्वत्थाम्नि यथा शल्ये शूरे च कृतवर्मणि।
अन्येष्वपि च शूरेषु न्यस्तभारो महात्मसु।
इमामवस्थां प्राप्तोऽस्मि कालो हि दुरतिक्रमः।।
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9-65-8c
एकादशचमूभर्ता सोऽहमेतां दशां गतः।
कालं प्राप्य महाबाहो न कश्चिदतिवर्तते।।
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9-65-9b
आख्यातव्यं मदीयानां येऽस्मिञ्जीवन्ति संयुगे।
यथाऽहं भीमसेनेन व्युत्क्रम्य समयं हतः।।
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9-65-10b
बहूनि सुनृशंसानि कृतानि खलु पाण्डवैः।
भूरिश्रवसि कर्णे च भीष्मे द्रोणे च धीमति।।
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9-65-11b
इदं च गर्हितं कर्म नृशंसैः पाण्डवैः कृतम्।
येन ते वाच्यतां सत्सु गमिष्यन्तीति मे मतिः।।
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9-65-12b
का प्रीतिः सत्वयुक्तस्य कृत्वोपाधिकृतं जयम्।
को वा समयभेत्तारं बुधः सम्मन्तुमर्हति।।
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9-65-13b
अधर्मेण जयं लब्ध्वा को नु हृष्येत पण्डितः।
यथा संहृष्यते पापः पाण्डुपुत्रो वृकोदरः।।
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9-65-14b
किन्नु चित्रमितस्त्वद्य भग्नसक्थस्य यन्मम।
क्रुद्धेन भीमसेनेन पादेन मृदितं शिरः।।
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9-65-15b
प्रतपन्तं श्रिया जुष्टं वर्तमानं च बन्धुषु।
एवं कुर्यान्नरो यो हि स वै स़ञ्जय पूरुषः।।
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9-65-16b
अभिज्ञौ युद्धधर्मस्य मम माता पिता च यौ।
तौ हि सञ्जय दुःखार्तौ विज्ञाप्यौ वचनाद्वि मे।।
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9-65-17b
इष्टं भृत्या भृताः सम्यग्भूः प्रशास्ता ससागरा।
मूर्ध्नि स्थितममित्राणां जीवतामेव स़ञ्जय।।
9-65-18a
9-65-18b
दत्ता दाया यथाशक्ति मित्राणां च प्रियं कृतम्।
अमित्रा बाधिताः सर्वे को नु स्वन्ततरो मया।।
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9-65-19b
मानिता बान्धवाः सर्वे मान्यः सम्पूजितो जनः।
त्रितयं सेवितं सर्वं को नु स्वन्ततरो मया।।
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9-65-20b
आज्ञप्तं नृपमुख्येषु मानः प्राप्तः सुदुर्लभः।
आजानेयैस्तथा यातं को नु स्वन्ततरो मया।।
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9-65-21b
यातानि परराष्ट्राणि नृपा भुक्ताश्च दासवत्।
प्रियेभ्यः प्रकृतं साधु को नु स्वन्ततरो मया।।
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9-65-22b
अधीतं विधिवद्दत्तं प्राप्तमायुर्निरामयम्।
स्वधर्मेण जिता लोकाः को नु स्वन्ततरो मया।।
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9-65-23b
दिष्ट्या नाहं जितः सङ्ख्ये परान्प्रेष्यवदाश्रितः।
दिष्ट्या मे विपुला लक्ष्मीर्मृते त्वन्यगता विभो।।
9-65-24a
9-65-24b
यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुतिष्ठताम्।
निधनं तन्मया प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।।
9-65-25a
9-65-25b
दिष्ट्या नाहं परावृत्तो वैरात्प्राकृतवञ्जितः।
दिष्ट्या न विमतिं काञ्चिद्भजित्वा तु पराजितः।।
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9-65-26b
सुप्तं वाऽथ प्रमत्तं वा यथा हन्याद्विषेण वा।
एवं व्युत्क्रान्तधर्मेण व्युत्क्रम्य समयं हतः।।
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9-65-27b
अश्चत्थामा महाभागः कृतवर्मा च सात्वतः।
कृपः शारद्वतश्चैव वक्तव्या वचनान्मम।।
9-65-28a
9-65-28b
अधर्मेण प्रवृत्तानां पाण्डवानामनेकशः।
विश्वासं समयघ्नानां न यूयं गन्तुमर्हथ।।
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9-65-29b
वार्तिकांश्चाब्रवीद्राजा पुत्रस्ते सत्यविक्रमः।
अधर्माद्भीमसेनेन निहतोऽहं यथा रणे।।
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9-65-30b
सोऽहं द्रोणं स्वर्गगतं कर्णशल्यावुभौ तथा।
वृषसेनं महावीर्यं शकुनिं चापि सौबलम्।।
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जलसन्धं महावीर्यं भगदत्तं च पार्थिवम्।
सोमदत्तं महेष्वासं सैन्धवं च जयद्रथम्।।
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9-65-32b
दुऋशासनपुरोगांश्च भ्रातॄनात्मसमांस्तथा।
दौःशासनिं च विक्रान्तं लक्ष्मणं चात्मजावुभौ।।
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एतांश्चान्यांश्च सुबहून्मदीयांश्च सहस्रशः।
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सार्थहीनो यथाऽध्वगः।।
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कथं भ्रातॄन्हताञ्श्रुत्वा भर्तारं च स्वसा मम।
रोरूयामाणा दुःखार्ता दुःशला सा भविष्यति।।
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स्नुषाभिः प्रस्नुषाभिश्च वृद्धो राजा पिता मम।
गान्धारीसहितश्चैव का गतिं प्रतिपत्स्यति।।
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नूनं लक्ष्मणमाताऽपि हतपुत्रा हतेश्वरा।
विनाशं यास्यति क्षिप्रं कल्याणी पृथुलोचना।।
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यदि जानाति चार्वाकः परिव्राद्वाग्विशारदः।
करिष्यति महाभागो ध्रुवं चापचितिं मम।।
9-65-38a
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समन्तप़ञ्चके पुण्ये त्रिषु लोकेषु विश्रुते।
अहं निधनमासाद्य लोकान्प्राप्स्यामि शाश्वतान्।।
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9-65-39b
ततो जनसहस्राणि बाष्पपूर्णानि दिशो दश।।
ससागरवना घोरा पृथिवी सचराचरा।
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चचालाथ सनिर्हादा दिशश्चैवाविलाऽभवन्।।
ते द्रोणपुत्रमासाद्य यथावृत्तं न्यवेदयन्।
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व्यवहारं गदायुद्धे पार्थिवस्य च पातनम्।।
तदाख्याय ततः सर्वे द्रोणपुत्रस्य भारत।
9-65-42a
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`वादिका दुःखसन्तप्ताः शोकोपहतचेतसः'।
ध्यात्वा च सुचिरं कालं जग्मुरार्ता यथागतम्।।
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9-65-43b
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
गदायुद्धपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65 ।।

सम्पाद्यताम्

9-65-1 शौटीरः शूरः स एव शौटीर्यमात्मानं मन्यते शौटीर्यमानी।। 9-65-16 स वै सञ्जयपूजित इति झ.पाठः।। 9-65-20 मया मत्तः।। 9-65-30 वार्तिकान्वार्ताहारिणः।। 9-65-38 चार्वाको ब्राह्मणवेषधारी राक्षसः। अपचितिं प्रतीकारम्।। 9-65-65 पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-064 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-066