महाभारतम्-09-शल्यपर्व-057
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भीमदुर्योधनयोर्वीरवादः।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 9-57-1x |
ततो वाग्युद्धमभवत्तुमुलं जनमेजय। यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम्।। | 9-57-1a 9-57-1b |
धिगस्तु खलु मानुष्यं यस्य निष्ठेयमीदृशी। एकादशचमूभर्ता यत्र पुत्रो ममानघ।। | 9-57-2a 9-57-2b |
आज्ञाप्य सर्वान्नृपतीन्भुक्त्वा चेमां वसुन्धराम्। गदामादाय चैकाकी पदातिः प्रस्थितो रणम्।। | 9-57-3a 9-57-3b |
भूत्वा हि जगतो नाथो ह्यनाथ इव मे सुतः। गदामुद्यम्य यो याति किमन्यद्भागधेयतः।। | 9-57-4a 9-57-4b |
अहो दुःखं महत्प्राप्तं पुत्रेण मम स़ञ्जय। एवमुक्त्वा स दुःखार्तो विरराम जनाधिपः।। | 9-57-5a 9-57-5b |
सञ्जय उवाच। | 9-57-6x |
स मेघनिनदो हर्षान्निनदन्निव गोवृषः। आजुहाव तदा पार्थं युद्धाय युधि वीर्यवान्।। | 9-57-6a 9-57-6b |
भीममाह्वयमाने तु कुरुराजे महात्मनि। प्रादुरासन्सुघोराणि रूपाणि विविधान्युत।। | 9-57-7a 9-57-7b |
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पांसुवर्षं पपात च। बभूवुश्च दिशः सर्वास्तिमिरेण समावृताः।। | 9-57-8a 9-57-8b |
महास्वनाः सुनिर्वातास्तुमुला रोमहर्षणाः। पेतुस्तथोल्काः शतशः स्फोटयन्त्यो नभस्तलात्।। | 9-57-9a 9-57-9b |
राहुश्चाग्रसदादित्यमपर्वणि विशाम्पते। चकम्पे च महाकम्पं पृथिवी सवनद्रुमा।। | 9-57-10a 9-57-10b |
रूक्षाश्च वाताः प्रववुर्नीचैः शर्करकर्षिणः। गिरीणां शिखराण्येव न्यपतन्त महीतले।। | 9-57-11a 9-57-11b |
मृगा बहुविधाकाराः सम्पतन्ति दीशो दश। दीप्ताः शिवाश्चाप्यनदन्घोररूपाः सुदारुणाः।। | 9-57-12a 9-57-12b |
निर्घाताश्च महाघोरा बभूवू रोमहर्षणाः। दीप्तायां दिशि राजेन्द्र मृगाश्चाशुभवादिनः।। | 9-57-13a 9-57-13b |
उदपानगताश्चापो व्यवर्धन्त समन्ततः। अशरीरा महानादाः श्रूयन्ते स्म भयानकाः।। | 9-57-14a 9-57-14b |
एवमादीनि दृष्ट्वा स निमित्तानि वृकोदरः। उवाच भ्रातरं ज्येष्ठं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।। | 9-57-15a 9-57-15b |
एष शक्यो मया जेतुं मन्दात्मा च सुयोधनः।। | 9-57-16a |
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निगूढं हृदयेशयम्। सुयोधने कौरवेन्द्रे खाण्डवेऽग्निमिवार्जुनः।। | 9-57-17a 9-57-17b |
शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम्। निहत्य गदया पापमिमं कुरुकुलान्तकम्।। | 9-57-18a 9-57-18b |
अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रतिमोक्ष्याम्यहं त्वयि। हत्वेमं पापकर्माणं गदया रणमूर्धनि।। | 9-57-19a 9-57-19b |
अद्योरुगदया राजन्भेत्ताऽस्मि समरेऽनया। नायं प्रवेष्टा नगरं पुनर्वारणसाह्वयम्।। | 9-57-20a 9-57-20b |
सर्पोत्सर्गस्य शयने विषदानस्य भोजने। प्रमाणकोट्यां पातस्य दाहस्य जतुवेश्मनि।। | 9-57-21a 9-57-21b |
सभायामवहासस्य सर्वस्वहरणस्य च। वर्षमज्ञातवासस्य वनवासस्य चानघ।। | 9-57-22a 9-57-22b |
अद्यान्तमेषां दुःखानां गन्ताऽहं भरतर्षभ। एकाह्ना विनिहत्येमं भविष्याम्यात्मनोऽनृणः।। | 9-57-23a 9-57-23b |
अद्यायुर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेरकृतात्मनः। समाप्तं भरतश्रेष्ठ मातापित्रोश्च दर्शनम्।। | 9-57-24a 9-57-24b |
अद्य सौख्यं तु राजेन्द्र कुरुराजस्य दुर्मतेः। समाप्तं च महाराज नारीणां दर्शनं पुनः।। | 9-57-25a 9-57-25b |
अद्यायं कुरुराजस्य शन्तनोः कुलपांसनः। प्राणाञ्श्रियं च राज्यं च त्यक्त्वा शेष्यति भूतले।। | 9-57-26a 9-57-26b |
राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं निपातितम्। स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम्।। | 9-57-27a 9-57-27b |
इत्युक्त्वा राजशार्दूल गदामादाय वीर्यवान्। अभ्यतिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन्।। | 9-57-28a 9-57-28b |
तमुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गिणम्। भीमसेनः पुनः क्रुद्धो दुर्योधनमुवाच ह।। | 9-57-29a 9-57-29b |
राज्ञश्च धृतराष्ट्रस्य तथा त्वमपि चात्मनः। स्मर तद्दुष्कृतं कर्म यद्वृत्तं वारणावते।। | 9-57-30a 9-57-30b |
द्रौपदी च परिक्लिष्टा सभामध्ये रजस्वला। द्यूते च वञ्चितो राजा यत्त्वया सौबलेन च।। | 9-57-31a 9-57-31b |
वने दुःखं च यत्प्राप्तमस्माभिस्त्वत्कृतं महत्। विराटनगरे चैव योन्यन्तरगतैरिव। तत्सर्वं पातयाम्यद्य दिष्ट्या दृष्टोऽसि दुर्मते।। | 9-57-32a 9-57-32b 9-57-32c |
त्वत्कृतेऽसौ हतः शेते शरतल्पे पितामहः। गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठो रथिना याज्ञसेनिना।। | 9-57-33a 9-57-33b |
हतो द्रोणश्च कर्णश्च तथा शल्यः प्रतापवान्। वैराग्नेरादिकर्तासौ शकुनिः सौबलो हतः।। | 9-57-34a 9-57-34b |
प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः। भ्रातरस्ते हताः सर्वे शूरा विक्रान्तयोधिनः।। | 9-57-35a 9-57-35b |
एते चान्ये च बहवो निहतास्त्वत्कृते नृपाः। त्वामद्य निहनिष्यामि गदया नात्र संशयः।। | 9-57-36a 9-57-36b |
इत्येवमुच्चै राजानं भाषमाणं वृकोदरम्। उवाच गतभी राजन्पुत्रस्ते सत्यविक्रमः।। | 9-57-37a 9-57-37b |
किं कत्थनेन बहुना युध्यस्वेह वृकोदर। अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां कुलाधम।। | 9-57-38a 9-57-38b |
इति दुर्यार्धेनोऽक्षुद्रस्त्वया क्षुद्रबलेन वै। शक्यस्रासयितुं वाचा न चान्यः प्राकृतो यथा।। | 9-57-39a 9-57-39b |
चिरकालेप्सितं दिष्ट्या हृदयस्थमिदं मम। त्वया सह गदायुद्धं त्रिदशैरुपपादितम्।। | 9-57-40a 9-57-40b |
किं वाचा बहुनोक्तेन कत्थितेन च दुर्मते। वाणी सङ्कोच्यतामेषा कर्मणा मा चिरं कृथाः।। | 9-57-41a 9-57-41b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्व एवाभ्यपूजयन्। राजानः सोमकाश्चैव ये तत्रासन्समागताः।। | 9-57-42a 9-57-42b |
ततः सम्पूजितः सर्वैः सम्प्रहृष्टतनूरुहः। भूयो धीरां मतिं चक्रे युद्धाय कुरुनन्दनः।। | 9-57-43a 9-57-43b |
तं मत्तमिव मातङ्गं तलशब्दैर्नराधिपाः। भूयः संहर्षयांचक्रुर्दुर्योधनममर्षणम्।। | 9-57-44a 9-57-44b |
तं महात्मा महात्मानं गदामुद्यम्य पाण्डवः। अभिदुद्राव वेगेन धार्तराष्ट्रं वृकोदरः।। | 9-57-45a 9-57-45b |
बृंहन्ति कुञ्चरास्तत्र हया हेषन्ति चासकृत्। शस्त्राणि चाप्यदीप्यन्त पाण्डवानां जयैषिणां | 9-57-46a 9-57-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि गदायुद्धपर्वणि सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 57 ।। |
9-57-16 नैष शक्तो रणे जेतुं मन्दात्मा मां सुयोधन इति झ.पाठः।। 9-57-41 वाणी सम्पद्यतामिति झ.पाठः।। 9-57-57 सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-056 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-058 |