महाभारतम्-09-शल्यपर्व-043
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वसिष्ठापवाहतीर्थस्य तन्नामप्राप्तिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 9-43-1x |
वसिष्ठापवाहो ब्रह्मन्वै भीमवेगः कथं नु सः। किमर्थं च सरिच्छ्रेष्ठा तमृषिं प्रत्यवाहयत्।। | 9-43-1a 9-43-1b |
कथमस्याभवद्वैरं कारणं किं च तत्प्रभो। शंस पृष्टो महाप्राज्ञ न हि तृप्यामि कथ्यति।। | 9-43-2a 9-43-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-43-3x |
विश्वामित्रस्य विप्रर्षेर्वसिष्ठस्य च भारत। भृशं वैरमभूद्राजंस्तपःस्पर्धाकृतं महत्।। | 9-43-3a 9-43-3b |
आश्रमो वै वसिष्ठस्य स्थाणुतीर्थेऽभवन्महान्। पूर्वतः पार्श्वतश्चासीद्विश्वामित्रस्य धीमतः।। | 9-43-4a 9-43-4b |
यत्र स्थाणुर्महाराज तप्तवान्परमं तपः। तत्रास्य कर्म तद्धोरं प्रवदन्ति मनीषिणः।। | 9-43-5a 9-43-5b |
यत्रेष्ट्वा भगवान्स्थाणुः पूजयित्वा सरस्वतीम्। स्थापयामास तत्तीर्थं स्थाणुतीर्थमिति प्रभो।। | 9-43-6a 9-43-6b |
तत्र तीर्थे सुराः स्कन्दमभ्यषिञ्चन्नराधिप। सैनापत्येन महता सुरारिविनिबर्हणम्।। | 9-43-7a 9-43-7b |
तस्मिन्सारस्वते तीर्थे विश्वामित्रो महामुनिः। वसिष्ठं चालयामास तपसोग्रेण तच्छृणु।। | 9-43-8a 9-43-8b |
विश्वामित्रवसिष्ठौ तावहन्यहनि भारत। स्पर्धां तपः कृतां तीव्रां चक्रतुस्तौ वतपोधनौ।। | 9-43-9a 9-43-9b |
तत्राप्यधिकसन्तप्तो विश्वामित्रो महामुनिः। दृष्ट्वा तेजो वसिष्ठस्य चिन्तामभिजगाम ह।। | 9-43-10a 9-43-10b |
तस्य बुद्धिरियं ह्यासीद्धर्मनित्यस्य भारत। इदं सरस्वती तूर्णं मत्समीपं तपोधनम्।। | 9-43-11a 9-43-11b |
आनयिष्यति वेगेन वसिष्ठं जपतां वरम्। इहागतं द्विजश्रेष्ठं हनिष्यामि न संशयः।। | 9-43-12a 9-43-12b |
एवं निश्चित्य भगवान्विश्वामित्रो महामुनिः। सस्मार सरितां श्रेष्ठां क्रोधसंरक्तलोचनः।। | 9-43-13a 9-43-13b |
सा ध्याता मुनिना तेन व्याकुलत्वं जगाम ह। गत्वा चैनं महावीर्यं महाकोपं च भामिनी।। | 9-43-14a 9-43-14b |
तदा तं वेपमानाङ्गी विवर्णा प्राञ्जलिर्भृशम्। उपतस्थे मुनिवरं विश्वामित्रं सरस्वती।। | 9-43-15a 9-43-15b |
हतवीरा यथा नारी साऽभवद्दुःखिता भृशम्। ब्रूहि किं करवाणीति प्रोवाच मुनिसत्तमम्।। | 9-43-16a 9-43-16b |
तामुवाच मुनिः क्रुद्धो वसिष्ठं शीघ्रमानय। यावदेनं निहन्म्यद्य तच्छ्रुत्वा व्यथिता नदी।। | 9-43-17a 9-43-17b |
साञ्जलिं तु ततः कृत्वा पुण्डरीकनिभेक्षणा। प्राकम्पत भृशं भीता वायुनेवाहता लता।। | 9-43-18a 9-43-18b |
तथारूपां तु तां दृष्ट्वा मुनिराह महानदीम्। अविचारं वसिष्ठं त्वमानयस्त्वान्तिकं मम।। | 9-43-19a 9-43-19b |
सा तस्य वचनं श्रुत्वा ज्ञात्वा पापं चिकीर्षितम्। वसिष्ठस्य प्रभावं च जानन्त्यप्रतिमं भुवि।। | 9-43-20a 9-43-20b |
साऽभिगम्य वसिष्ठं च इदमर्थमचोदयत्। यदुक्ता सरितांश्रेष्ठा विश्वामित्रेण धीमता।। | 9-43-21a 9-43-21b |
उभयोः शापयोर्भीता वेपमाना पुनःपुनः। चिन्तयित्वा महाशापमृषिविप्रासिता भृशम्।। | 9-43-22a 9-43-22b |
तां कृशां च विवर्णां च दृष्ट्वा चिन्तासमन्विताम्। उवाच राजन्धर्मात्मा वसिष्ठो द्विपदां वरः।। | 9-43-23a 9-43-23b |
पाह्यात्मानं सरिच्छेष्ठे वह मां शीघ्रगामिनी। विश्वामित्रः शपेद्वि त्वां मा कृथास्त्वं विचारणाम्।। | 9-43-24a 9-43-24b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृपाशीलस्य सा सरित्। चिन्तयामास कौरव्य किं कृत्वा सुकृतं भवेत्।। | 9-43-25a 9-43-25b |
तस्याश्चिन्ता समुत्पन्ना वसिष्ठो मय्यतीव हि। कृतवान्हि दयां नित्यं तस्या कार्यं हितं मया।। | 9-43-26a 9-43-26b |
अथ कूले स्वके राजञ्जपन्तमृषिसत्तमम्। जुह्वानं कौशिकं प्रेक्ष्य सरस्वत्यभ्यचिन्तयत्।। | 9-43-27a 9-43-27b |
इदमन्तरमित्येवं ततः सा सरितां वरा। कूलापहारमकरोत्स्वेन वेगेन सा सरित्।। | 9-43-28a 9-43-28b |
तेन कूलापहारेण मैत्रावरुणिरौह्यत। उह्यमानः स तुष्टाव तदा राजन्सरस्वतीम्।। | 9-43-29a 9-43-29b |
पितामहस्य सरसः प्रवृत्ताऽसि सरस्वति। व्याप्तं चेदं जगत्सर्वं तवैवाम्भोभिरुत्तमैः।। | 9-43-30a 9-43-30b |
त्वमेवाकाशगा देवि मेघेषु सृजसे पयः। सर्वाश्चापस्त्वमेवेति यथा वयमधीमहि।। | 9-43-31a 9-43-31b |
पुष्टिर्द्युतिस्तथा कीर्तिः सिद्धिर्बुद्धिरमा तथा। त्वमेव वाणी स्वाहा त्वं तवायत्तमिदं जगत्। त्वमेव सर्वभूतेषु वससीह चतुर्विधा।। | 9-43-32a 9-43-32b 9-43-32c |
वैशम्पायन उवाच। | 9-43-33x |
एवं सरस्वती राजन्स्तूयमाना महर्षिणा। वेगेनोवाह तं विप्रं विश्वामित्राश्रमं प्रति।। | 9-43-33a 9-43-33b |
न्यवेदयत चाक्षीक्ष्णं विश्वामित्राय तं मुनिम्।। | 9-43-34a |
तमानीतं सरस्वत्या दृष्ट्वा कोपसमन्वितः। अथान्वेषत्प्रहरणं वसिष्ठान्तकरं तदा।। | 9-43-35a 9-43-35b |
तं तु क्रुद्धमभिप्रेक्ष्य ब्रह्मवध्याभयान्नदी। अपोवाह वसिष्ठं तु प्राचीं दिशमतन्द्रिता। उभयोः कुर्वती वाक्यं वञ्चयित्वा च गाधिजम्।। | 9-43-36a 9-43-36b 9-43-36c |
ततोपवाहितं दृष्ट्वा वसिष्ठमृषिसत्तमम्। अब्रवीत्त्वथ सङ्क्रुद्धो विश्वामित्रः सरस्वतीम्।। | 9-43-37a 9-43-37b |
यस्मान्मां त्वं सरिच्छ्रेष्ठे वञ्चयित्वा पुनर्गता। शोणितं वह कल्याणि राक्षसानां च सम्मतम्।। | 9-43-38a 9-43-38b |
ततः सरस्वती शप्ता विश्वामित्रेण धीमता। अवहच्छोणितोन्मिश्रं तोयं संवत्सरं तदा।। | 9-43-39a 9-43-39b |
अथर्षयश्च देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तदा। सरस्वतीं तथा दृष्ट्वा बभूवुर्भृशदुःखिताः।। | 9-43-40a 9-43-40b |
एवं वसिष्ठापवाहो लोके ख्यातो जनाधिप। आगच्छच्च पुनर्मार्गं स्वमेव सरितां वरा।। | 9-43-41a 9-43-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।। |
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