महाभारतम्-09-शल्यपर्व-029

← शल्यपर्व-028 महाभारतम्
नवमपर्व
महाभारतम्-09-शल्यपर्व-029
वेदव्यासः
शल्यपर्व-030 →

पाण्डवैर्निहतसहायस्य दुर्योधनस्य गदामादाय ह्रदं प्रति प्रस्थानम्।। 1 ।।
सञ्जयसंहारायासिमुद्यच्छता सात्यकिना व्यासवचनात्तद्विमोचनम्।। 2 ।।
हास्तिनपुरं गच्छतः सञ्जयस्य मध्येमार्गं दुर्योधनदर्शनम्।। 3 ।।
तेन तस्मिन्धृतराष्ट्राय स्ववृत्तान्तनिवेदनचोदनपूर्वकं ह्रदं प्रविश्य मायया जलस्तम्भनम्।। 4 ।।
तत्रागतैर्द्रौणिकृपकृतवर्मभिः सञ्जयाद्दुर्योधनस्य ह्रदप्रवेशं विज्ञाय विलप्य पुनः शिबिरगमनम्।। 5 ।।
ततो वृद्धपरिजनैर्युयुत्सुना च राजदाराणां नगरप्रापणम्।। 6 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 005ब
  7. 006
  8. 007
  9. 008
  10. 009
  11. 010
  12. 011
  13. 012
  14. 013
  15. 014
  16. 015
  17. 016
  18. 017
  19. 018
  20. 019
  21. 020
  22. 021
  23. 022
  24. 023
  25. 024
  26. 025
  27. 026
  28. 027
  29. 028
  30. 029
  31. 030
  32. 031
  33. 032
  34. 033
  35. 034
  36. 035
  37. 036
  38. 037
  39. 038
  40. 039
  41. 040
  42. 041
  43. 042
  44. 043
  45. 044
  46. 045
  47. 046
  48. 047
  49. 048
  50. 049
  51. 050
  52. 051
  53. 052
  54. 053
  55. 054
  56. 055
  57. 056
  58. 057
  59. 058
  60. 059
  61. 060
  62. 061
  63. 062
  64. 063
  65. 064
  66. 065
  67. 066
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 005ब
  7. 006
  8. 007
  9. 008
  10. 009
  11. 010
  12. 011
  13. 012
  14. 013
  15. 014
  16. 015
  17. 016
  18. 017
  19. 018
  20. 019
  21. 020
  22. 021
  23. 022
  24. 023
  25. 024
  26. 025
  27. 026
  28. 027
  29. 028
  30. 029
  31. 030
  32. 031
  33. 032
  34. 033
  35. 034
  36. 035
  37. 036
  38. 037
  39. 038
  40. 039
  41. 040
  42. 041
  43. 042
  44. 043
  45. 044
  46. 045
  47. 046
  48. 047
  49. 048
  50. 049
  51. 050
  52. 051
  53. 052
  54. 053
  55. 054
  56. 055
  57. 056
  58. 057
  59. 058
  60. 059
  61. 060
  62. 061
  63. 062
  64. 063
  65. 064
  66. 065
  67. 066

धृतराष्ट्र उवाच।
निहते मामके सैन्ये निःशेषे शिबिरे कृते।
पाण्डवानां बले सूत किन्नु शेषमभूत्तदा।। 9-29-1

एतन्मे पृच्छतो ब्रूहि कुशलो ह्यसि सञ्जय।
यच्च दुर्योधनो मानी कृतवांस्तनयो मम।
वलक्षयं तथा दृष्ट्वा स एकः पृथिवीपतिः।। 9-29-2

सञ्जय उवाच।
रथानां द्वे सहस्रे तु सप्त नागशतानि च।
पञ्च चाश्वसहस्राणि पत्तीनामयुतानि च।। 9-29-3

एतच्छेषमभूद्राजन्पाण्डवानां मह्रद्बलम्।
परिगृह्य हि यद्युद्धे धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः।। 9-29-4

एकाकी भरतश्रेष्ठ ततो दुर्योधनो नृपः।
नापश्यत्समरे कञ्चित्सहायं रथिनां वरः।। 9-29-5

नर्दमानान्परान्दृष्ट्वा स्वबलस्य च सङ्क्षयम्।
दृष्ट्वा भरतशार्दूलः कश्मलेनाभिसंवृतः।
हतं स्वहयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रावद्भयात्।। 9-29-6


एकादशचमूभर्ता पुत्रो दुर्योधनस्तव।
गदामादाय तेजस्वी पदातिः प्रस्थितो ह्रदम्।। 9-29-7

नातिदूरं ततो गत्वा पद्भ्यामेव नराधिपः।
सस्मार वचनं क्षत्रुर्धर्मशीलस्य धीमतः।। 9-29-8

इदं नूनं महाप्राज्ञो विदुरो दृष्ट्वान्पुरा।
मह्रद्व्सनमस्माकं क्षत्रियाणां च सर्वशः।। 9-29-9

एवं विचिन्तयानस्तु प्रविविक्षुर्ह्रदं नृपः।
दुःखसन्तप्तहृदयो दृष्ट्वा राजन्बलक्षयम्।। 9-29-10

`दशैकाक्षौहिणीभर्ता तदा दुर्योधनोऽपि सन्।
प्राप्तवान्व्यसनं तीव्रं दैवं हि बलवत्तरम्'।। 9-29-11

पाण्डवास्तु महाराज धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
अभ्यद्रवन्त सङ्क्रुद्धास्तव राजन्बलं प्रति।। 9-29-12

शक्त्यृष्टिप्रासहस्तानां बलानामभिगर्जताम्।
सङ्कल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनञ्जयः।। 9-29-13

तान्हत्वा निशितैर्वाणैः सामात्यान्सह बन्धुभिः।
रथे श्वेतहये तिष्ठन्नर्जुनो बह्वशोभत।। 9-29-14

सुबलस्य हते पुत्रे सवाजिरथकुञ्जरे।
महावनमिव च्छिन्नमभवत्तावकं बलम्।। 9-29-15

अनेकशतसाहस्रे बले दुर्योधनस्य ह।
नान्यो महारथो राजञ्जीवमानो व्यदृश्यत।। 9-29-16

द्रोणपुत्रादृते वीरात्तथैव कृतवर्मणः।
कृपाच्च गौतमाद्राजन्पार्थिवाच्च तवात्मजात्।। 9-29-17

धृष्टद्युम्नस्तु मां दृष्ट्वा हसन्सात्यकिमब्रवीत्।
किमनेन गृहीतेन नानेनार्थोऽस्ति जीवता।। 9-29-18

धृष्टद्युम्नवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता महारथः।
उद्यम्य निशितं खङ्गं हन्तुं मामुद्यतस्तदा।। 9-29-19

तमागम्य महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
मुच्यतां सञ्जयो जीवन्न हन्तव्यः कथञ्चन।। 9-29-20

द्वैपायनवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता कृताञ्जलिः।
ततो मामब्रवीन्मुक्त्वा स्वस्ति सञ्जय साधय।। 9-29-21

अनुज्ञातस्त्वहं तेन न्यस्तवर्मा निरायुधः।
प्रातिष्ठं येन नगरं सायाह्ने रुधिरोक्षितः।। 9-29-22

क्रोशमात्रमपक्रान्तं गदापाणिमवस्थितम्।
एकं दुर्योधनं राजन्नपश्यं भृशविक्षतम्।। 9-29-23

स तु मामश्रुपूर्णाक्षो नाशक्नोदभिवीक्षितुम्।
उपप्रैक्षत मां दृष्ट्वा तथा दीनमवस्थितम्।। 9-29-24

तं चाहमपि शोचन्तं दृष्ट्वैकाकिनमाहवे।
मुहूर्तं नाशकं वक्तुमतिदुःखपरिप्लुतः।। 9-29-25

`यस्य मूर्धाभिषिक्तानां सहस्रमणिमौलिनाम्।
आहृत्य च करं सर्वं स्वस्य वेश्म समागतम्।। 9-29-26

चतुःसागरपर्यन्ता पृथिवी रत्नभूषिता।
कर्णेनैकेन यस्यार्थे करमाहारिता पुरा।। 9-29-27

यस्याज्ञा परराष्ट्रेषु कर्णेनैव प्रसारिता।
नाभवद्यस्य शस्त्रेषु खेदो राज्ञः प्रशासतः।। 9-29-28

आसीनो हास्तिनपुरे क्षेमं राज्यमकण्टकम्।
अन्वपालयदैश्वर्यात्कुबेरमपि नास्मरत्।। 9-29-29

भवनाद्भवनं राजन्प्रयातुं पृथिवीपते।
देवालयप्रदेशे च पन्था यस्य हिरण्मयः।। 9-29-30

पताकावृतसूर्यांशुतोरणोच्छ्रितशोभिताः।
प्रयाणे पृथिवीभर्तुर्धन्यानामभवन्गृहाः।। 9-29-31

आरुह्यैरावतप्रख्यं नागमिन्द्रसमो बली।
विभूत्या सुमहत्या यः प्रयाति पृथिवीपते।। 9-29-32

तं भृशक्षतसर्वाङ्गं पद्ध्यामेव धरातले।
तिष्ठन्तमेकं दृष्ट्वा तु ममाभूत्क्लेश उत्तमः।। 9-29-33

तस्य चैवंविधस्याद्य जगन्नाथस्य भूपते।
आपदप्रतिमैवाभूद्बलीयान्विधिरेव हि'।। 9-29-34

ततोऽस्मै तदहं सर्वमुक्तवान्ग्रहणं तदा।
द्वैपायनप्रसादाच्च जीवतो मोक्षमाहवे।। 9-29-35

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम्।
भ्रातॄंश्च सर्वसैन्यानि पर्यपृच्छत मां ततः।। 9-29-36

तस्मै तदहमाचक्षे सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
भ्रातॄश्च निहतान्सर्वान्सैन्यं च विनिपातितम्।। 9-29-37

त्रयः किल रथाः शिष्टास्तावकानां नराधिप।
इति प्रस्थानकाले मां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।। 9-29-38

स दीर्घमिव निःश्वस्य प्रत्यवेक्ष्य पुनः पुनः।
असौ मां पाणिना स्पृष्ट्वा पुत्रस्ते पर्यभाषत।। 9-29-39

त्वदन्यो नेह सङ्ग्रामे कश्चिज्जीवति सञ्जय।
द्वितीयं नेह पश्यामि ससहायाश्च पाण्‍डवाः।। 9-29-40

ब्रूयाः सञ्जय राजानं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।
दुर्योधनस्तव सुतः प्रविष्टो ह्रदमित्युत।। 9-29-41

सुहृद्भिस्तादृशैर्हीनः पुत्रैर्भ्रातृभिरेव च।
पाण्डवैश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः।। 9-29-42

आचक्षीथाः सर्वमिदं मां च मुक्तं महाहवात्।
आस्मिंस्तोयह्रदे गुप्तं जीवन्तं भृशविक्षतम्।। 9-29-43

एवमुक्त्वा महाराज प्राविशत्तं महाह्रदम्।
अस्तम्भयत तोयं च मायया मनुजाधिपः।। 9-29-44

तस्मिन्ह्रदं प्रविष्टे तु त्रीन्रथाञ्श्रान्तवाहनान्।
अपश्यं सहितानेकस्तं देशं समुपेयुषः।। 9-29-45

कृपं शारद्वतं वीरं द्रौणिं च रथिनां वरम्।
भोजं च कृतवर्माणं सहिताञ्शरविक्षतान्।। 9-29-46

ते सर्वं मामभिप्रेक्ष्य तूर्णमश्वाननोदयन्।
उपयाय तु मामूचुर्दिष्ट्या जीवसि सञ्जय।। 9-29-47

अपृच्छंश्चैव मां सर्वे पुत्रं तव जनाधिपम्।
कच्चिद्दुर्योधनो राजा स नो जीवति सञ्जय।। 9-29-48

आख्यातवानहं तेभ्यस्तदा कुशलिनं नृपम्।
तच्चैव सर्वमाचक्षं यन्मां दुर्योधनोऽब्रवीत्।। 9-29-49

ह्रदं चैवाहमाचक्षं यं प्रविष्टो नराधिपः।
अश्वत्थामा तु तद्राजन्निशम्य वचनं मम।। 9-29-50

तं ह्रदं विपुलं प्रेक्ष्य करुणं पर्यदेवयत्।
अहो धिक्स न जानाति जीवतोऽस्मान्नराधिप।
पर्याप्ता हि वयं तेन सह योधयितुं परान्।। 9-29-51

ते तु तत्र चिरं कालं विलप्य च महारथाः।
प्राद्रवन्रथिनां श्रेष्ठा दृष्ट्वा पाण्डुसुतान्रणे।। 9-29-52

ते तु मां रथमारोप्य कृपस्य सुपरिष्कृतम्।
सेनानिवेशमाजग्मुर्हतशेषास्त्रयो रथाः।। 9-29-53

तत्र गुल्माः परिक्षिप्ताः सूर्ये चास्तमिते सति।
सर्वे विचुक्रुशुः श्रुत्वा पुत्राणां तव संक्षयम्।। 9-29-54

ततो वृद्धा महाराज योषितां रक्षिणो नराः।
राजदारानुपादाय पययुर्नगरं प्रति।। 9-29-55

तत्र विक्रोशमानानां रुदतीनां च सर्वशः।
प्रादुरासीन्महाञ्शब्दः श्रुत्वा तद्बलसङ्क्षयम्।। 9-29-56

ततस्ता योषितो राजन्रुदन्त्यो वै मुहुर्मुहुः।
कुरर्य इव शब्देन नादयन्त्यो महीतलम्।। 9-29-57

आजघ्नुः करजैश्चापि पाणिभिश्च शिरांस्युत।
लुलुचुश्च तदा केशान्क्रोशन्त्यस्तत्रतत्र ह।। 9-29-58

हाहाकारविनादिन्यो विनिघ्नन्त्य उरांसि च।
शोचन्त्यस्तत्र रुरुदुः क्रन्दमाना विशाम्पते।। 9-29-59

ततो दुर्योधनामात्याः साश्रुकण्ठा भृशातुराः।
राजदारानुपामन्त्र्य प्रययुर्नगरं प्रति।। 9-29-60

वेत्रव्यासक्तहस्ताश्च द्वाराध्यक्षा विशाम्पते।
शयनीयानि शुभ्राणि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च।
समादाय ययुस्तूर्णं नगरं दाररक्षिणः।। 9-29-61


आस्थायाश्वतरीयुक्तान्स्यन्दनानपरे पुनः।
स्वान्स्वान्दारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति।। 9-29-62

अदृष्टपूर्वा या नार्यो भास्करेणापि वेश्मसु।
ददृशुस्ता महाराज जना याताः पुरं प्रति।। 9-29-63

ताः स्त्रियो भरतश्रेष्ठ सौकुमार्यसमन्विताः।
प्रययुर्नगरं तूर्णं हतस्वपतिबान्धवाः।। 9-29-64

आगोपालाविपालेभ्यो द्रवन्तो नगरं प्रति।
ययुर्मनुष्याः सम्भ्रान्ता भीमसेनभयार्दिताः।। 9-29-65

अपिचैषां भयं तीव्रं पार्थेभ्योऽभूत्सुदारुणम्।
प्रेक्षमाणास्तदाऽन्योन्यमाधावन्नगरं प्रति।। 9-29-66

तस्मिंस्तथा वर्तमाने विद्रवे भृशदारुणे।
युयुत्सुः शोकसम्मूढः प्राप्तकालमचिन्तयत्।। 9-29-67

जितो दुर्योधनः सङ्ख्ये पाण्डवैर्भीमविक्रमैः।
एकादशचमूभर्ता भ्रातरश्चास्य सूदिताः।। 9-29-68

हताश्च कुरवः सर्वे भीष्मद्रोणपुरः सराः।
अहमेको विमुक्तस्तु भाग्ययोगाद्यदृच्छया।। 9-29-69

विद्रुतानि च सर्वाणि शिबिराद्वै समन्ततः।
[इतस्ततः पलायन्ते हतनाथा हतौजसः।। 9-29-70

अदृष्टपूर्वा दुःखार्ता भयव्याकुललोचनाः।
हरिणा इव वित्रस्ता वीक्षमाणा दिशो दश]।। 9-29-71

दुर्योधनस्य सचिवा ये केचिदवशेषिताः।
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति।
प्राप्तकालमहं मन्ये प्रवेशं तैः सह प्रभो।। 9-29-72

युधिष्ठिरमनुज्ञाय वासूदेवं तथैव च।
एतमर्थं महाबाहुरुभयोः सन्न्यवेदयत्।। 9-29-73

तस्य प्रीतोऽभवद्राजा नित्यं करुणवेदिता।
परिष्वज्य महाबाहुर्वैश्यापुत्रं व्यसर्जयत्।। 9-29-74

ततः स रथमास्थाय द्रुतमश्वानचोदयत्।
संवाहयितवांश्चापि राजदारान्पुरं प्रति।। 9-29-75

तैश्चैव सहितः क्षिप्रमस्तं गच्छति भास्करे।
प्रविष्टो हास्तिनपुरं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः।। 9-29-76

अपश्यत महाप्राज्ञं विदुरं साश्रुलोचनम्।
राज्ञः समीपान्निष्क्रान्तं शोकोपहतचेतसम्।। 9-29-77

तमब्रवीत्सत्यधृतिः प्रणतं त्वग्रतः स्थितम्।। 9-29-78
विदुर उवाच।
दिष्ट्या कुरुक्षये वृत्ते अस्मिंस्त्वं पुत्र जीवसि।
विना राज्ञः पर्वेशार्द्वै किमसि त्वमिहागतः।
एतद्वै कारणं सर्वं विस्तरेण निवेदय।। 9-29-79

युयुत्सुरुवाच।
निहते शकुनौ तत्र सज्ञातिसुतबान्धवे।
हतशेषपरीवारो राजा दुर्योधनस्ततः।
स्वकं स हयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद्भयात्।। 9-29-80

अपक्रान्ते तु नृपतौ स्कन्धावारनिवेशनात्।
भयव्याकुलितं सर्वं प्राद्रावन्नगरं प्रति।। 9-29-81

ततो राज्ञः कलत्राणि भ्रातॄणां चास्य सर्वतः।
वाहनेषु समारोप्य अध्यक्षाः प्राद्रावन्भयात्।। 9-29-82

ततोऽहं समनुज्ञाप्य राजानं सहकेशवम्।
प्रविष्टो हास्तिनपुरं रक्षन्लोकस्य वाच्यताम्।। 9-29-83

सञ्जय उवाच।
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वैश्यापुत्रेण भाषितम्।
प्राप्तकालमिति ज्ञात्वा विदुरः सर्वधर्मवित्।
अपूजयदमेयात्मा युयुत्सुं वाक्यमब्रवीत्।। 9-29-84

प्राप्तकालमिदं सर्वं ब्रुवता भरतक्षये।
[रक्षितः कुलधर्मश्च सानुक्रोशतया त्वया।। 9-29-85

दिष्ठ्या त्वामिह सङ्ग्राम दस्माद्वीरक्षयात्पुरम्।
समागतमपश्याम ह्यंशुमन्तमिव प्रजाः।। 9-29-86

अन्धस्यं नृपतेर्यष्टिर्लुब्धस्यादीर्घदर्शिनः।
बहुशो याच्यमानस्य दैवोपहतचेतसः।
त्वमेको व्यसनार्तस्य ध्रियसे पुत्र सर्वथा]।। 9-29-87

अद्य त्वमिह विश्रान्तः श्वोऽभिगन्ता युधिष्ठिरम्।
एतावदुक्त्वा वचनं विदुरः साश्रुलोचनः।
युयुत्सुं समनुज्ञाप्य प्रविवेश नृपक्षयम्।। 9-29-88

[पौरजानपदैर्दुःखाद्धाहेति भृशनादितम्।
निरानन्दं गतश्रीकं हृताराममिवाशयम्।
शून्यरूपमपध्वस्तं दुःखाद्दुःखतरोऽभवत्।। 9-29-89

विदुरः सर्वधर्मज्ञो विक्लवेनान्तरात्मना।
विवेश नगरे राजन्निशश्वास शनैः शनैः।। 9-29-90

युयुत्सुरपि तां रात्रिं स्वगृहे न्यवसत्तदा।
वन्द्यमानः स्वकैश्चापि नाभ्यनन्दत्सुदुःखितः।
चिन्तयानः क्षयं तीव्रं भरतानां परस्परम्।। 9-29-91

।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे
एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।।
</spn>


9-29-38 हतो दुर्योधन इति क.पाठः।। 9-29-39 अहमेकोऽवशिष्टस्तु इति क.पाठः।। 9-29-29 एकोनत्रिंशोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-028 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-030