महाभारतम्-09-शल्यपर्व-048
← शल्यपर्व-047 | महाभारतम् नवमपर्व महाभारतम्-09-शल्यपर्व-048 वेदव्यासः |
शल्यपर्व-049 → |
देवैर्वरुणस्य जलाधिपत्येऽभिषेचनम्।। 1 ।। बलभद्रस्याग्नितीर्थकौबेरतीर्थगमनं तन्महिमानुवर्णनं च।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 9-16-1x |
अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मञ्श्रुतवानस्मि तत्त्वतः। अभिषेकं कुमारस्य विस्तरेण यथाविधि।। | 9-16-1a 9-16-1b |
यच्छ्रुत्वा पूतमात्मानं विजानामि तपोधन। प्रहृष्टानि च रोमाणि प्रसन्नं च मनो मम।। | 9-16-2a 9-16-2b |
अभिषेकं कुमारस्य दैत्यानां च वधं तथा। श्रुत्वा मे परमा प्रीतिर्भूयः कौतूहलं हि मे।। | 9-16-3a 9-16-3b |
अपाम्पतिः कथं ह्यस्मिन्नभिषिक्तः पुरा सुरैः। तन्मे ब्रूहि महाप्रज्ञ कुशलो ह्यसि सत्तम।। | 9-16-4a 9-16-4b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-16-5x |
शृणु राजन्निदं चित्रं पूर्वकाले यथाऽभवत्।। | 9-16-5a |
आदौ कृतयुगे राजन्वर्तमाने यथाविधि। वरुणं देवताः सर्वाः समेत्येदमथाब्रुवन्।। | 9-16-6a 9-16-6b |
यथाऽस्मान्सुरराट् शक्रो भयेभ्यः पाति सर्वदा। तथा त्वमपि सर्वासां सरितां वै पतिर्भव।। | 9-16-7a 9-16-7b |
वासश्च ते सदा देव सागरे मकरालये। समुद्रोऽयं तव वशे भविष्यति नदीपतिः।। | 9-16-8a 9-16-8b |
सोमेन सार्धं च तव हानिवृद्वी भविष्यतः। एवमस्त्विति तान्देवान्वरुणो वाक्यमब्रवीत्।। | 9-16-9a 9-16-9b |
समागम्य ततः सर्वे वरुणं सागरालयम्। अपाम्पतिं प्रचक्रुर्हि विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 9-16-10a 9-16-10b |
अभिषिच्य ततो देवा वरुणं यादसाम्पतिम्। जग्मुः स्वान्येव स्थानानि पूजयित्वा जलेश्वरम्।। | 9-16-11a 9-16-11b |
अभिषिक्तस्ततो देवैर्वरुणोऽपि महायशाः। सरितः सागरांश्चैव नदांश्चापि सरांसि च। पालयामास विधिना यथा देवाञ्शतक्रतुः।। | 9-16-12a 9-16-12b 9-16-12c |
ततस्त्रत्राप्युपस्पृश्य दत्त्वा च विविधं वसु। अग्नितीर्थं महाप्राज्ञो जगामाथ प्रलम्बहा। नष्टो न दृश्यते यत्र शमीगर्भे दुताशनः।। | 9-16-13a 9-16-13b 9-16-13c |
लोकालोकविनाशे च प्रादुर्भूते तदाऽनघ। उपतस्थुः सुरा यत्र सर्वलोकपितामहम्।। | 9-16-14a 9-16-14b |
अग्निः प्रनष्टो भगवान्कारणं च न विद्महे। सर्वभूतक्षयो राजन्सम्पादय विभोऽनलम्।। | 9-16-15a 9-16-15b |
जनमेजय उवाच। | 9-16-16x |
किमर्थं भगवानग्निः प्रनष्टो लोकभावनाः। विज्ञातश्च कथं देवैस्तन्ममाचक्ष्व तत्त्वतः।। | 9-16-16a 9-16-16b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-16-17x |
भृगोः शापाद्भृशं भीतो जातवेदाः प्रतापवान्। शमीगर्भमथासाद्य ननाश भगवांस्ततः।। | 9-16-17a 9-16-17b |
प्रनष्टे तु तदा वह्नौ देवाः सर्वे सवासवाः। अन्वैषन्त तदा नष्टं ज्वलनं भृशदुःखिताः।। | 9-16-18a 9-16-18b |
ततोऽग्नितीर्थमासाद्य शमीगर्भस्थमेव हि। ददृशुर्ज्वलनं तत्र वसमानं यथाविधि।। | 9-16-19a 9-16-19b |
देवाः सर्वे नरव्याघ्र बृहस्पतिपुरोगमाः। ज्वलनं तं समासाद्य प्रीताऽभूवन्सवासवाः।। | 9-16-20a 9-16-20b |
पुनर्यथागतं जग्मुः सर्वभक्षश्च सोऽभवत्। भृगोः शापान्महाभाग यदुक्तं ब्रह्मवादिना।। | 9-16-21a 9-16-21b |
तत्राप्याप्लुत्य मतिमान्ब्रह्मशापान्मुमोच ह।। | 9-16-22a |
तत्राप्लुत्य ततो ब्रह्मा सह देवैः प्रभुः पुरा। ससर्ज चान्नानि तथा देवतानां यथाविधि।। | 9-16-23a 9-16-23b |
तत्र स्नात्वा च दत्त्वा च वसूनि विविधानि च। कौबेरं प्रययौ तीर्थं यत्र तप्त्वा महत्तपः।। | 9-16-24a 9-16-24b |
धनाधिपत्यं सम्प्राप्तो राजन्नैलबिलः प्रभुः।। | 9-16-25a |
तत्रस्थमेव तं राजन्धनानि निधयस्तथा। उपतद्धतुर्नरश्रेष्ठ तत्तीर्थं लाङ्गली बलः।। | 9-16-26a 9-16-26b |
गत्वा स्नात्वा च विधिवद्ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ। ददृशे तत्र तत्स्थानं कौबेरे काननोत्तमे।। | 9-16-27a 9-16-27b |
पुरा यत्र तपस्तप्तं विपुलं सुमहात्मना। यक्षराज्ञा कुबेरेण वरा लब्धाश्च पुष्कलाः।। | 9-16-28a 9-16-28b |
धनाधिपत्यं सख्यं च रुद्रेणामिततेजसा। सुरत्वं लोकपालत्वं पुत्रं च नलकूबरम्।। | 9-16-29a 9-16-29b |
यत्र लेभे महाबाहो धनाधिपतिरञ्जसा। अभिषिक्तश्च तत्रैव समागम्य मरुद्गणैः।। | 9-16-30a 9-16-30b |
वाहनं चास्य तद्दत्तं हंसयुक्तं मनोजवम्। विमानं पुष्पकं दिव्यं नैर्ऋतैश्वर्यमेव च।। | 9-16-31a 9-16-31b |
तत्राप्लुत्य बलो राजन्दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान्। जगाम त्वरितो रामस्तीर्थं स्वेतानुलेपनः।। | 9-16-32a 9-16-32b |
निषेवितं सर्वसत्वैर्नाम्ना बदरपाचनम्। नानर्तुकवनोपेतं सदा पुष्पफलं शुभम्।। | 9-16-33a 9-16-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।। |
9-16-25 ऐलबिलः कुबेरः।। 9-16-48 अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-047 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-049 |