महाभारतम्-09-शल्यपर्व-036
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चन्द्रे स्वभार्यास्वश्विन्यादिदंक्षपुत्रीषु इतरोपेक्षणेन रोहिण्यामेवासक्ते दक्षेण रोषाच्चन्द्रे यक्ष्मप्रक्षेपः।। 1 ।।
देवै प्रसादितदक्षवचनाच्चन्द्रेण प्रभासतीर्थनिमज्जनेन क्षयरोगपरिहरणम्।। 2 ।।
बलभद्रेण तत्तीर्थे मज्जनादि।। 3 ।।
जनमेजय उवाच। | 9-36-1x |
किमर्थं भगवान्सोमो यक्ष्मणा समगृह्यत। कथं च तीर्थप्रवरे तस्मिंश्चन्द्रो न्यमज्जत।। | 9-36-1a 9-36-1b |
कथमाप्लुत्य तस्मिंस्तु पुनराप्यायितः शशी। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण महामुने।। | 9-36-2a 9-36-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-36-3x |
दक्षस्य तनयास्तात प्रादुरासन्विशाम्पते। स सप्तविंशतिं कन्या दक्ष सोमाय वै ददौ।। | 9-36-3a 9-36-3b |
नक्षत्रयोगनिरताः सङ्ख्यानार्थं च ताभवन्। पत्न्यो वै तस्य राजेन्द्र सोमस्य शुभकर्मणः।। | 9-36-4a 9-36-4b |
तास्तु सर्वा विशालाक्ष्यो रूपेणाप्रतिमाऽभवन्। अत्यरिच्यत तासां तु रोहिणी रुपसम्पदा।। | 9-36-5a 9-36-5b |
ततस्तस्यां स भगवान्प्रीतिं चक्रे निशाकरः। साऽस्य हृद्या बभूवाथ तस्मात्तां बुभुजे सदा।। | 9-36-6a 9-36-6b |
ततस्ताः कुपिताः सर्वा नक्षत्राख्या महात्मनः। ता गत्वा पितरं प्राहुः प्रजापतिमतन्द्रिताः।। | 9-36-7a 9-36-7b |
सोमो वसति नास्मासु रोहिणीं भजते सदा। ता वयं सहिताः सर्वास्त्वत्सकाशे प्रजेश्वर। वत्स्यामो नियताहारास्तपश्चरणतत्पराः।। | 9-36-8a 9-36-8b 9-36-8c |
श्रुत्वा तासां तु वचनं दक्षः सोममथाब्रवीत्। समं वर्तस्व सर्वासु मा त्वाऽधर्मो महान्स्पृशेत्।। | 9-36-9a 9-36-9b |
तास्तु सर्वाऽब्रवीद्दक्षो गच्छध्वं शशिनोन्तिकम्। समं वत्स्यति सर्वासु चन्द्रमा मम शासनात्।। | 9-36-10a 9-36-10b |
विसृष्टास्तास्तथा जग्मुः शीताशोर्भवनं शुभाः। तथाऽपि सोमो भगवान्पुनरेव महीपते। रोहिण्या सार्धमवसत्प्रीयमाणो मुहुर्मुहुः।। | 9-36-11a 9-36-11b 9-36-11c |
ततस्ताः सहिताः सर्वा भूयः पितरमब्रुवन्।। | 9-36-12a |
सोमो वसति नास्मासु नाकरोद्वचनं तव। तव शुश्रूषणे युक्ता वत्स्यामो हि तवान्तिके।। | 9-36-13a 9-36-13b |
तासां तद्वचनं श्रुत्वा दक्षः सोममथाब्रवीत्। समं वर्तस्व सर्वासु मा त्वां शप्स्ये विरोचन।। | 9-36-14a 9-36-14b |
अनादृत्य तु तद्वाक्यं दक्षस्य भगवाञ्शशी। रोहिण्या सार्धमवसत्ततस्ताः कुपिताः पुनः।। | 9-36-15a 9-36-15b |
गत्वा च पितरं प्राहुः प्रणम्य शिरसा तदा। सोमो वसति नास्मासु तस्मान्नः शरणं भव।। | 9-36-16a 9-36-16b |
रोहिण्यामेव भगवान्सदा वसति चन्द्रमाः। न त्वद्वचो गणयति नास्मासु स्नेहमिच्छति।। | 9-36-17a 9-36-17b |
तस्मान्नस्त्राहि सर्वा वै यथा नः सोम आविशेत्। तच्छ्रुत्वा भगवान्क्रुद्धो यक्ष्माणं पृथिवीपते।। | 9-36-18a 9-36-18b |
ससर्ज रोषात्सोमाय स चोडुपतिमाविशत्। स यक्ष्मणाऽभिभूतात्माक्षीयताहरहः शशी।। | 9-36-19a 9-36-19b |
यत्नं चाप्यकरोद्राजन्मोक्षार्थं तस्य यक्ष्मणः। इष्ट्वेष्टिभिर्महाराज विविधाभिर्निशाकरः।। | 9-36-20a 9-36-20b |
न चामुच्यत शापाद्वै क्षयं चैवाधिगच्छति। क्षीयमाणे ततः सोमे ओषध्यो न प्रजज्ञिरे।। | 9-36-21a 9-36-21b |
निरास्वादरसाः सर्वा हतवीर्याश्च सर्वशः। ओषधीनां क्षये जाते प्राणिनामपि सङ्क्षयः।। | 9-36-22a 9-36-22b |
कृशाश्चासन्प्रजाः सर्वाः क्षीयमाणे निशाकरे। ततो देवाः समागम्य सोममूचुर्महीपते।। | 9-36-23a 9-36-23b |
किमिदं भवतो रूपमीदृशं सम्प्रकाशते। कारणं ब्रूहि नः सर्वं येनेदं ते महद्भयम्।। | 9-36-24a 9-36-24b |
श्रुत्वा तु कारणं त्वत्तो विधास्यामस्ततो वयम्। एवमुक्तः प्रत्युवाच सर्वांस्ताञ्शशलक्षणः।। | 9-36-25a 9-36-25b |
शापस्य कारमं चैव यक्ष्माणं च तथाऽऽत्मनः। देवास्तस्य वचः श्रुत्वा गत्वा दक्षमथाऽब्रुवन्।। | 9-36-26a 9-36-26b |
प्रसीद भगवन्सोमे शापोऽयं विनिवर्त्यताम्। असौ हि चन्द्रमाः क्षीणः किञ्चिच्छेषो हि लक्ष्यते।। | 9-36-27a 9-36-27b |
क्षयाच्चैवास्य देवेश प्रजाश्चैव गताः क्षयम्। वीरुदोषधयश्चैव बीजानि विविधानि च। तथा नरा लोकगुरो प्रसादं कर्तुमर्हसि।। | 9-36-28a 9-36-28b 9-36-28c |
एवमुक्तस्ततो देवान्प्राह वाक्यं प्रजापतिः। नैतच्छक्यं मम वचो व्यावर्तयितुमञ्जसा।। | 9-36-29a 9-36-29b |
हेतुना तु महाभागा निवर्तिष्यति केनचित्। समं वर्ततु सर्वासु शशी भार्यासु नित्यशः।। | 9-36-30a 9-36-30b |
सरस्वत्या वरे तीर्थे निमज्जञ्शशलक्षणः। पुनर्वर्धिष्यते देवास्तद्वै सत्यं वचो मम।। | 9-36-31a 9-36-31b |
मासार्धं च क्षयं सोमो नित्यमेव गमिष्यति। मासार्धं तु पुनर्वृद्विं सत्यमेतद्वचो मम।। | 9-36-32a 9-36-32b |
समुद्रं पश्चिमं गत्वा सरस्वत्यब्धिसङ्गमम्। आराधयतु देवेशं ततः कान्तिमवाप्स्यति।। | 9-36-33a 9-36-33b |
सरस्वतीं ततः सोमः स जगामर्षिशासनात्। प्रभासं प्रथमं तीर्थं सरस्वत्या जगाम ह।। | 9-36-34a 9-36-34b |
अमावास्यां महातेजास्तत्रामज्जन्महाद्युतिः। लोकान्प्रभासयामास शीतांशुत्वमवाप च।। | 9-36-35a 9-36-35b |
देवास्तु सर्वे राजेन्द्र प्रसादं प्राप्य पुष्कलम्। सोमेन सहिता भूत्वा दक्षस्य प्रमुखेऽभवन्।। | 9-36-36a 9-36-36b |
ततः प्रजापतिः सर्वा विससर्जाथ देवताः। सोमं च भगवान्प्रीतो भूयो वचनमब्रवीत्।। | 9-36-37a 9-36-37b |
मावमंस्थाः स्त्रियः पुत्र मा च विप्रान्कदाचन। गच्छ युक्तः सदा भूत्वा कुरु वै शासनं मम।। | 9-36-38a 9-36-38b |
स विसृष्टो महाराज जगामाथ स्वमालयम्। प्रजाश्च मुदिता भूत्वा ईजिरे च यथा पुरा।। | 9-36-39a 9-36-39b |
एवं ते सर्वमाख्यातं यथा शप्तो निशाकरः। प्रभासं च यथा तीर्थं तीर्थानां प्रवरं महत्।। | 9-36-40a 9-36-40b |
अमावास्यां महाराज नित्यशः शशलक्षणः। स्नात्वाह्याप्यायते श्रीमान्प्रभासे तीर्थउत्तमे।। | 9-36-41a 9-36-41b |
अतश्चैतत्प्रजानन्ति प्रभासमिति भूमिप। प्रभां हि परमां लेभे तस्मिंश्चामज्ज्य चन्द्रमाः।। | 9-36-42a 9-36-42b |
`लोकान्प्रभासयामास पुपोष च वपुस्तथा। तत्र स्नात्वा हलीरामो दत्वा प्रीतोऽथ दक्षिणाः'।। | 9-36-43a 9-36-43b |
ततस्तु चमसोद्भेदमभीतस्त्वगमद्बली। चमसोद्भेद इत्येवं यं जनाः कथयन्त्युत।। | 9-36-44a 9-36-44b |
तत्र दत्त्वा च दानानि विशिष्टानि हलायुधः। उषित्वा रजनीमेकां स्नात्वा च विधिवत्तदा।। | 9-36-45a 9-36-45b |
उदपानमथागच्छत्त्वरावान्केशवाग्रजः। आद्यं स्वस्त्ययनं चैव तत्रावाप्य महाबलः।। | 9-36-46a 9-36-46b |
स्निग्धत्वादोषधीनां च भूमेश्च जनमेजय। जानन्ति सिद्धा राजेन्द्र निगूढां तां सरस्वतीम्।। | 9-36-47a 9-36-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।। |
9-36-9 त्वा त्वां अधर्मः मा स्मृशेत्।। 9-36-14 विरोचन हे विशेषेण रोचमान। त्वां माशप्स्ये। तव रोचनां शापेन न हरामि तथा यतस्वेत्यर्थः।। 9-36-38 गच्छयतः इति क.पाठः।। 9-36-36 षटत्रिंशोऽध्यायः।।
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