महाभारतम्-09-शल्यपर्व-040

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-040
वेदव्यासः
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बलरामस्यौशनसतीर्थगमनम्।। 1 ।।
तत्तीर्थस्य कपालमोचननामप्राप्तिहेतूक्तिः।। 2 ।।
बलस्य उशंग्वाश्रमगमनम्।। 3 ।।
उशङ्गुचरित्रकथनं बलस्य पृथूदकतीर्थे स्नानदानादि।। 4 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 9-40-1x
उषित्वा तत्र रामस्तु सम्पूज्याश्रमवासिनः।
तथा मङ्कणके प्रीतिं शुभां चक्रे हलायुधः।।
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दत्त्वा दानं द्विजातिभ्यो रजनीं तामुपोष्य च।
पूजितो मुनिसङ्खैश्च प्रातरुत्थाय लाङ्गली।।
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अनुज्ञाप्य मुनीन्सर्वान्स्पृष्ट्वा तोयं च भारत।
प्रययौ त्वरितो रामस्तीर्थहेतोर्महाबलः।।
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ततस्त्वौशनसं तीर्थमाजगाम हलायुधः।
कपालमोचनं नाम यत्र मुक्तो महामुनिः।।
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महता शिरसा राजन्ग्रस्तजङ्घो महोदरः।
राक्षसस्य महाराज रामक्षिप्तस्य वै पुरा।।
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तत्र पूर्वं तपस्तप्तं काव्येन सुमहात्मना।
यत्रास्य नीतिरखिला प्रादुर्भूता महात्मनः।
यत्रस्थश्चिन्तयामास दैत्यदानवविग्रहम्।।
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तत्प्राप्य च बलो राजंस्तीर्थप्रवरमुत्तमम्।
विधिवद्वै ददौ वित्तं ब्राह्मणानां महात्मनाम्।।
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जनमेजय उवाच। 9-40-8x
कपालमोचनं ब्रह्मन्कथं यत्र महामुनिः।
मुक्तः कथं चास्य शिरो लग्नं केन च हेतुना।।
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वैशम्पायन उवाच। 9-40-9x
पुरा वै दण्डकारण्ये राघवेण महात्मना।
वसता राजशार्दूल राक्षसाञ्शमयिष्यता।।
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जनस्थाने शिरश्छिन्नं राक्षसस्य दुरात्मनः।
क्षुरेण शितधारेण तत्पणात महावने।।
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महोदरस्य तल्लग्नं जङ्घायां वै यदृच्छया।
वने विचरतो राजन्नस्थि भित्त्वाऽस्फुरत्तदा।।
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स तेन लग्नेन तदा द्विजातिर्न शशाक ह।
अभिगन्तुं महाप्राज्ञस्तीर्थान्यायतनानि च।।
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स पूतिना विस्रवता वेदनार्तो महामुनिः।
जगाम् सर्वतीर्थानि पृथिव्यां चेति नः श्रुतम्।।
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स गत्वा सरितः सर्वाः समुद्रांश्च महातपाः।
कथयामास तत्सर्वमृषीणां भावितात्मनाम्।।
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आप्लुत्य सर्वतीर्थेषु न च मोक्षमवाप्तवान्।
स तु शुश्राव विप्रेन्द्रो मुनीनां वचनं महत्।।
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सरस्वत्यास्तीर्थवरं ख्यातमौशनसं तदा।
सर्वपापप्रशमनं सिद्धिक्षेत्रमनुत्तमम्।।
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स तु गत्वा ततस्तत्र तीर्थमौशनसं द्विजः।। 9-40-17a
तत औशनसे तीर्थे तस्योपस्पृशतस्तदा।
xxx च्छरश्चरणं मुक्त्वा पपातान्तर्जले तदा।।
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विमुक्तस्तेन शिरसा परं सुखमवाप ह।
स चाप्यन्तर्जले मूर्धा जगामादर्शनं विभो।।
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ततः स विरुजो राजन्पूतात्मा वीतकल्मषः।
आजगामाश्रमं प्रीतः कृतकृत्यो महोदरः।।
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सोऽथ गत्वाऽऽश्रमं पुण्यं विप्रमुक्तो महातपाः।
कथयामास तत्सर्वमृषीणां भावितात्मनाम्।।
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ते श्रुत्वा वचनं तस्य ततस्तीर्थस्य मानद।
कपालमोचनमिति नाम चक्रुः समागताः।।
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स चापि तीर्थप्रवरं पुनर्गत्वा महानृषिः।
पीत्वा पयःसुविपुलं सिद्धिमायात्तदा मुनिः।।
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तत्र दत्त्वा बहून्देयान्विप्रान्सम्पूज्य माधवः।
जगाम तत्र राजेन्द्र उशङ्गोराश्रमं तदा।।
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यत्र तप्तं तपो घोरमार्ष्टिषेणेन भारत।
ब्राह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रो महामुनिः।।
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सर्वकामसमृद्धं च तदाश्रमपदं महत्।
मुनिभिर्ब्राह्मणैश्चैव सेवितं सर्वदा विभो।।
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ततो हलधरः श्रीमान्ब्राह्मणैः परिवारितः।
जगाम तत्र राजेन्द्र उशङ्गुस्तनुमत्यजत्।।
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उशङ्गुर्ब्राह्मणो वृद्धस्तपोनित्यश्च भारत।
देहन्यासे कृतमना विचिन्त्य बहुधा तदा।।
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ततः सर्वानुपादाय तनयान्वै महातपाः।
उशङ्गुरब्रवीत्तत्र नयध्वं मां पृथूदकम्।।
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विज्ञायातीतवयसमुशङ्गुं ते तपोधनाः।
तं च तीर्थमपानिन्युः सरस्वत्यास्तपोधनम्।।
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स तैः पुत्रैस्तदा धीमानानीतो वै सरस्वतीम्।
पुण्यां तीर्थशतोपेतां विप्रसङ्घैर्निषेविताम्।।
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स तत्र विधिना राजन्नाप्लुत्य सुमहातपाः।
ज्ञात्वा तीर्थगुणांश्चैव प्राहेदमृषिसत्तमः।
सुप्रीतः पुरुषव्याघ्र सर्वान्पुत्रानुपासतः।।
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सरस्वत्युत्तरे तीरे यस्त्यजेदात्मनस्तनुम्।
पृथूदके जप्यपरो नैनं श्वो मरणं तपेत्।।
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`इत्युक्त्वा स्वां तनुं त्यक्त्वा प्रपेदे वैष्णवं पदम्'।
तत्राप्लुत्य स धर्मात्मा उपस्पृश्य हलायुधः।
दत्त्वा चैव बूहून्देयान्विप्राणां विप्रवत्सलः।।
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ससर्ज यत्र भगवाँल्लोकाँल्लोकपितामहः।। 9-40-35a
यत्रार्ष्टिषेणः कौरव्य ब्राह्मण्यं संशितव्रतः।
तपसा महता राजन्प्राप्तवानृषिसत्तमः।।
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सिन्धुद्वीपश्च राजर्षिर्देवापिश्च महातपाः।
ब्राह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रस्तथा मुनिः।।
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महातपस्वीं भगवानुग्रतेजा महातपाः।
तत्राजगाम बलवान्बलभद्रः प्रतापवान्।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः।। 40 ।।

9-40-17 तीर्थमुपास्पृशदिति शेषः।। 9-40-24 त्रिशङ्खोराश्रमं तदा इति क.पाठः। रुशङ्गोराश्रमं तदा इति झं. पाठः।। 9-40-33 अक्षयं स्वर्गमाप्नोतीत्यर्थः।। 9-40-36 ब्राह्मणं ब्रह्मसन्घातो वेदसमूह इति यावत्। ततः स्वार्थे ष्यञ्। ब्राह्मणं ब्रह्मसङ्घाते इति मेदिनी।। 9-40-40 चत्वारिंशोऽध्यायः।।

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