महाभारतम्-09-शल्यपर्व-012
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शल्यपराक्रमवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 9-12-1x |
पीडिते धर्मराजे तु मद्रराजेन मारिष। सात्यकिर्भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। परिवार्य रथैः शल्यं पीडयामासुराहवे।। | 9-12-1a 9-12-1b 9-12-1c |
तमेकं बहुभिर्दृष्ट्वा पीड्यमानं महारथैः। साधुवादो महाञ्जज्ञे सिद्धाश्चासन्प्रहर्षिताः।। | 9-12-2a 9-12-2b |
आश्चर्यमित्यभाषन्त मुनयश्चापि सङ्गताः।। | 9-12-3a |
भीमसेनो रणे शल्यं शल्यभूतं पराक्रमे। एकेन विद्ध्वा बाणेन पुनर्विव्याध सप्तभिः।। | 9-12-4a 9-12-4b |
सात्यकिश्च शतेनैनं धर्मपुत्रपरीप्सया। मद्रेश्वरमवाकीर्य सिंहनादमथानदत्।। | 9-12-5a 9-12-5b |
नकुलः पञ्चभिश्चैनं सहदेवश्च प़ञ्चभिः। विद्ध्वा तं तु पुनस्तूर्णं ततो विव्याध सप्तभिः।। | 9-12-6a 9-12-6b |
स तु शूरो रणे यत्तः पीडितस्तैर्महारथैः। विकृष्य कार्मुकं घोरं भारघ्नं वेगवत्तरम्।। | 9-12-7a 9-12-7b |
सात्यकिं पञ्चविंशत्या शल्यो विव्याध मारिष। भीमसेनं तु सप्तत्या नकुलं सप्तभिस्तथा।। | 9-12-8a 9-12-8b |
ततः स विशिखं चापं सहदेवस्य धन्विनः। छित्त्वा भल्लेन समरे विव्याधैनं त्रिसप्तभिः।। | 9-12-9a 9-12-9b |
सहदेवस्तु समरे मातुलं भूरिवर्चसम्। सज्यमन्यद्धनुः कृत्वा पञ्चभिः समताडयत्। शरैराशीविषाकारैर्ज्वलज्ज्वलनसन्निभैः।। | 9-12-10a 9-12-10b 9-12-10c |
सारथिं चास्य समरे शरेणानतपर्वणा। विव्याध भृशसङ्क्रुद्धस्तं वै भूयस्त्रिभिः शरैः।। | 9-12-11a 9-12-11b |
भीमसेनस्तु सप्तत्या सात्यकिर्नवभिः शरैः। धर्मराजस्तथा षष्ट्या गात्रे शल्यं समार्पयत्।। | 9-12-12a 9-12-12b |
ततः शल्यो महाराज निर्विद्धस्तैर्महारथैः। सुस्राव रुधिरं गात्रैर्गैरिकं पर्वतो यथा।। | 9-12-13a 9-12-13b |
तांश्च सर्वान्महेष्वासान्पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः। विव्याध तरसा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 9-12-14a 9-12-14b |
ततोऽपरेण भल्लेन धर्मपुत्रस्य मारिष। धनुश्चिच्छेद समरे सज्जयं स सुमहारथः।। | 9-12-15a 9-12-15b |
अथान्यद्धनुरादाय धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। साश्वसूतध्वजरथं शल्यं प्राच्छादयच्छरैः।। | 9-12-16a 9-12-16b |
स च्छाद्यमानः समरे धर्मपुत्रस्य सायकैः। युधिष्ठिरमथाविध्यद्दशभिर्निशितैः शरैः।। | 9-12-17a 9-12-17b |
सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो धर्मपुत्रे शरार्दिते। मद्राणामधिपं शूरं शरैर्विव्याध पञ्चभिः।। | 9-12-18a 9-12-18b |
स सात्यकेः प्रचिच्छेद क्षुरप्रेण महद्धनुः। भीमसेनमुखांस्तांश्च त्रिभिस्त्रिभिरताडयत्।। | 9-12-19a 9-12-19b |
तस्य क्रुद्धो महाराज सात्यकिः सत्यविक्रमः। तोमरं प्रेषयामास स्वर्णदण्डं महारणे।। | 9-12-20a 9-12-20b |
भीमसेनोऽथ नाराचं ज्वलन्तमिव पन्नगम्। नकुलः समरे शक्तिं सहदेवो गदां शुभाम्। धर्मराजः शतघ्नीं च जिघांसुः शल्यमाहवे।। | 9-12-21a 9-12-21b 9-12-21c |
तानापतत एवाशु पञ्चानां वै भुजच्युतान्। वारयामास समरे शस्त्रसङ्घैः स मद्रराट्।। | 9-12-22a 9-12-22b |
सात्यकिप्रहितं शल्यो भल्लैश्चिच्छेद तोमरम्। प्रहितं भीमसेनेन शरं कनकभूषणम्।। | 9-12-23a 9-12-23b |
द्विधा चिच्छेद समरे कृतहस्तः प्रतापवान्। नकुलप्रेषितां शक्तिं हेमदण्डां भयावहाम्।। | 9-12-24a 9-12-24b |
गदां च सहदेवेन शरौघैः समवारयत्। शराभ्यां च शतघ्नीं तां राज्ञश्चिच्छेद भारत।। | 9-12-25a 9-12-25b |
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां सिंहनादं ननाद च। नामृष्यत्तत्र शैनेयः शत्रोर्विजयमाहवे।। | 9-12-26a 9-12-26b |
अथान्यद्धनुरादाय सात्यकिः क्रोधमूर्च्छितः। द्वाभ्यां मद्रेश्वरं विद्वा सारथिं च त्रिभिः शरैः।। | 9-12-27a 9-12-27b |
ततः शल्यो रणे राजन्सर्वांस्तान्दशभिः शरैः। विव्याध भृशसङ्क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपान्।। | 9-12-28a 9-12-28b |
ते वार्यमाणाः समरे मद्रराज्ञा महारथाः। न शेकुः सम्मुखे स्थातुं तस्य शत्रुनिषूदनाः।। | 9-12-29a 9-12-29b |
ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा शल्यस्य विक्रमम्। निहतान्पाण्डवान्मेने पाञ्चालानथ सृञ्जयान्। | 9-12-30a 9-12-30b |
`तथाविधं महाराज मद्रराजस्य विक्रमम्। असह्यं मानवैर्युद्धे तद्बभूव नरर्षभ।।' | 9-12-31a 9-12-31b |
ततो राजन्महाबाहुर्भीमसेनः प्रतापवान्। सन्त्यज्य मनसा प्राणान्मद्राधिपमयोधयत्।। | 9-12-32a 9-12-32b |
नकुलः सहदेवश्च सात्यकिश्च महारथः। परिवार्य तदा शल्यं समन्ताद्व्यकिरञ्शरैः।। | 9-12-33a 9-12-33b |
स चतुर्भिर्महेष्वासैः पाण्डवानां महारथः। वृतस्तान्योधयामास मद्रराजः प्रतापवान्।। | 9-12-34a 9-12-34b |
तस्य धर्मसुतो राजन्क्षुरप्रेण महाहवे। चक्ररक्षं जघानाशु मद्रराजस्य पार्थिवः।। | 9-12-35a 9-12-35b |
तस्मिंस्तु निहते शूरे चक्ररक्षे महारथे। मद्रराजोऽपि बलवान्सैनिकानावृणोच्छरैः।। | 9-12-36a 9-12-36b |
समावृतांस्ततस्तांस्तु राजन्वीक्ष्य स्वसैनिकान्। चिन्तयामास समरे धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 9-12-37a 9-12-37b |
कथं नु न भवेत्सत्यं तन्माधववचो महत्। अपि क्रुद्धो रणे राजन्क्षपयेत बलं मम।। | 9-12-38a 9-12-38b |
`अहं मद्धातरश्चैव सात्यकिश्च महारथः। पाञ्चालाः सृञ्जयाश्चैव न शक्तास्म हि मद्रपम्।। | 9-12-39a 9-12-39b |
निहनिष्यति चैवाद्य मातुलोऽस्मान्महाबलः। गोविन्दवचनं सत्यं कथं भवति किन्त्विदम्।। | 9-12-40a 9-12-40b |
ततः सरथनागाश्वा पाण्डवाः पाण्डुपूर्वज। मद्रराजं समासेदुः पीडयन्तः समन्ततः।। | 9-12-41a 9-12-41b |
नानाशस्त्रौघबहुलां शस्त्रवृष्टिं समुद्यताम्। व्यधमत्समरे राजा महाभ्राणीव मारुतः।। | 9-12-42a 9-12-42b |
ततः कनकपुङ्खां तां शल्यक्षिप्तां वियद्गताम्। शरवृष्टिमपश्याम शलभानामिवायतिम्।। | 9-12-43a 9-12-43b |
ते शरा मद्रराजेन प्रेषिता रणमूर्धनि। सम्पतन्तः स्म दृश्यन्ते शलभानां व्रजा इव।। | 9-12-44a 9-12-44b |
मद्रराजधनुर्मुक्तैः शरैः कनकभूषणैः। निरन्तरमिवाकाशं सम्बभूव जनाधिप।। | 9-12-45a 9-12-45b |
न पाण्डवानां नास्माकं तत्र किञ्चिद्व्यदृश्यत। बाणान्धकारे महति कृते तत्र महाहवे।। | 9-12-46a 9-12-46b |
मद्रराजेन बलिना लाघवाच्छरवृष्टिभिः। चाल्यमानं तु तं दृष्ट्वा पाण्डवानां बलार्णवम्। विस्मयं परमं जग्मुर्देवगन्धर्वदानवाः।। | 9-12-47a 9-12-47b 9-12-47c |
स तु तान्सर्वतो यत्ताञ्शरैः सञ्छाद्य मारिष। धर्मराजमवच्छाद्य सिंहवद्व्यनदन्मुहुः।। | 9-12-48a 9-12-48b |
ते च्छन्नाः समरे तेन पाण्डवानां महारथाः। नाशक्नुवंस्तदा युद्धे प्रत्युद्यातुं महारथम्।। | 9-12-49a 9-12-49b |
धर्मराजपुरोगास्तु भीमसेनमुखा रथाः। निजघ्नुः समरे शूरंशल्यमाहवशोभिनम्।। | 9-12-50a 9-12-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि शल्यवधपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
9-12-25 सहदेवेन प्रेषितामिति पूर्वस्मात्सम्बध्यते।। 9-12-27 सारथिं च विव्याधेत्युत्तरस्मादपकृष्यते।। 9-12-38 कथन्नु समरे शक्यं--नहि क्रुद्धो रणे इति झ.पाठः।। 9-12-12 द्वादशोऽध्यायः।।
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