महाभारतम्-09-शल्यपर्व-041

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-041
वेदव्यासः
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आर्ष्टिषेणेन पृथूदकतीर्थे तपश्चर्यवा कृत्स्नवेदाधिगमः।। 1 ।। विश्वामित्रादीनां तत्तत्तीर्थे तपश्चर्यया ब्राह्मण्याधिगम।। बलभद्रस्य तत्र स्नानादिपूर्वकं बकाश्रमम्प्रति गमनम्।। 3 ।।

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जनमेजय उवाच। 9-41-1x
आर्ष्टिषेणस्तथा ब्रह्मन्विपुलं तप्तवांस्तपः।
सिन्धुद्वीपः कथं चापि ब्राह्मण्यं लब्धवांस्तदा।।
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देवापिश्च कथं ब्रह्मन्विश्वामित्रश्च सत्तम।
तन्ममाचक्ष्व भगवन्परं कौतूहलं हि मे।।
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वैशम्पायन उवाच। 9-41-3x
पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।
वसन्गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।
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तस्य राजन्गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।
समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशाम्पते।।
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स निर्विण्णस्ततो राजंस्तपस्तेपे महातपाः।
ततो वै तपसा तेन प्राप्य वेदाननुत्तमान्।।
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स विद्वान्वेदयुक्तश्च सिद्धश्चाप्यृषिसत्तमः।
तत्र तीर्थे वरान्प्रादात्त्रीनेव सुमहातपाः।।
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अस्मिंस्तीर्थे महानद्या अद्यप्रभृति मानवः।
आप्लुतो वाजिमेधस्य फलं प्राप्स्यति पुष्कलम्।।
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अद्यप्रभृति नैवात्र भयं व्यालाद्भविष्यति।
अपि चाल्पेन कालेन फलं प्राप्स्यति पुष्कलम्।।
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एवमुक्त्वा महातेजा जगाम त्रिदिवं मुनिः।
एवं सिद्वः स भगवानार्ष्टिषेणः प्रतापवान्।।
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तस्मिन्नेव तदा तीर्थे सिन्धुद्वीपः प्रतापवान्।
देवापिश्च महाराज ब्राह्मण्यं प्रापतुर्महत्।।
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तथाच कौशिकस्तात तपोनित्यो जितेन्द्रियः।
तपसा वै सुतप्तेन ब्राह्मणत्वमवाप्तवान्।।
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गाधिर्नाम महानासीत्क्षत्रियः प्रथितो भुवि।
तस्य पुत्रोऽभवद्राजन्विश्वामित्रः प्रतापवान्।।
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स राजा कौशिकस्तात महायोग्यभवत्किल।
स पुत्रमभिषिच्याथ विश्वामित्रं महातपाः।।
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देहन्यासे मनश्चक्रे तमूचुः प्रणताः प्रजाः।
न गन्तव्यं महाप्राज्ञ त्राहि चास्मान्महाभयात्।।
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एवमुक्तः प्रत्युवाच ततो गाधिः प्रजास्ततः।
विश्वस्य जगतो गोप्ता भविष्यति सुतो मम।।
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इत्युक्त्वा तु ततो गाधिर्विश्वामित्रं निवेश्य च।
जगाम त्रिदिवं राजन्विश्वामित्रोऽभवन्नृपः।।
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न स शक्नोति पृथिवीं यत्नवानपि रक्षितुम्।
ततः शुश्राव राजा स राक्षसेभ्यो महाभयम्।।
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निर्ययौ नगराच्चापि चतुरङ्गबलान्वितः।
स गत्वा दूरमध्वानं वसिष्ठाश्रममभ्ययात्।।
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तस्य ते सैनिका राजंश्चक्रुस्तत्रानयान्बहून्।
ततस्तु भगवान्विप्रो वसिष्ठो श्रममभ्ययात्।
ददृशेऽथ ततः सर्वं भज्यमानं महाव्रनम्।।
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तस्य क्रुद्धो महाराज वसिष्ठो मुनिसत्तमः।
सृजस्व शबरान्घोरानिति स्वां गामुवाच ह।।
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तथोक्ता साऽसृजद्धेनुः पुरुषान्घोरदर्शनान्।
ते तु तद्बलमासाद्य बभञ्जुः सर्वतोदिशम्।।
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तच्छ्रुत्वा विद्रुतं सैन्यं विश्वामित्रस्तु गाधिजः।
तपः परं मन्यमानस्तपस्येव मनो दधे।।
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सोऽस्मिंस्तीर्थवरे राजन्सरस्वत्याः समाहितः।
नियमैश्चोपवासैश्च कर्शयन्देहमात्मनः।।
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जलाहारो वायुभक्षः पर्णाहारश्च सोऽभवत्।
तथा स्थण्डिलशायी च ये चान्ये नियमाःपृथक्।।
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असकृत्तस्य देवास्तु व्रतविघ्नं प्रचक्रिरे।
न चास्य नियमाद्बुद्धिरपयाति महात्मनः।।
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ततः परेण यत्नेन तप्त्वा बहुविधं तपः।
तेजसा भास्कराकारो गाधिजः समपद्यत।।
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तपसा तु तथायुक्तं विश्वामित्रं पितामहः।
अमन्यत महातेजा वरदोऽदर्शयत्तदा।।
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स तु वव्रे वरं राजन्स्यामहं ब्राह्मणस्त्विति।
तथेति चाब्रवीद्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः।।
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स लब्ध्वा तपसोग्रेण ब्राह्मणत्वं महायशाः।
विचचार महीं कृत्स्नां कृतकामः सुरोपमः।।
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तस्मिंस्तीर्थवरे रामः प्रदाय विविधं वसु।
पयस्विनीस्तथा धेनूर्यानानि शयनानि च।।
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अथ वस्त्राण्यलङ्कारं भक्ष्यं पेयं च शोभनम्।
अददन्मुदितो राजन्पूजयित्वा द्विजोत्तमान्।।
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ययौ राजंस्ततो रामो बकस्याश्रममन्तिकात्।
यत्र तेपे तपस्तीव्रं दाल्भ्यो बक इति श्रुतिः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।।
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