महाभारतम्-09-शल्यपर्व-030
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कृपद्गौणिकृतवर्मसु हृदमेत्य दुर्योधनेन भापमाणेषु तत्र यदृच्छोपागतैर्व्याधैस्तद्दर्शनम्।। 1 ।।
व्याधनिवेदनेन सपरिवारैः पाण्डवैर्ह्रदं प्रत्यागमनम्।। 2 ।।
तद्दर्शनेन कृपादिभिर्दुर्योधनाभ्यनुज्ञानेन दूरस्थन्यग्नोधतरुमेत्य तन्मूले उपवेशनम्।। 3 ।।
दुर्योधनेन पुनर्जलस्तम्भनेन ह्रदप्रवेशनम्।। 4 ।।
`सञ्जय उवाच। | 9-30-1x |
मुहूर्तादिव राजेन्द्र सर्वं शून्यमदृश्यत। मत्तवारणसंघुष्टं शिबिरं विद्रुते बले।। | 9-30-1a 9-30-1b |
यत्र शब्देन महता नान्वबुध्यन्महारथाः। तत्र शब्दं न शृणुमो मनुष्यस्यापि कस्यचित्'।। | 9-30-2a 9-30-2b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 9-30-3x |
हतेषु सर्वसैन्येषु पाण्डुपुत्रै रणाजिरे। मामकाश्चावशिष्टास्ते किमकुर्वत सञ्जय।। | 9-30-3a 9-30-3b |
कृतवर्मा कृपश्चैव द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान्। दुर्योधनश्च मन्दात्मा राजा किमकरोत्तदा।। | 9-30-4a 9-30-4b |
सञ्जय उवाच। | 9-30-5x |
सम्प्राद्रुवत्सु दारेषु क्षत्रियाणां महात्मनाम्। विद्रुते शिबिरे शून्ये भृशोद्विग्नास्त्रयो रथाः।। | 9-30-5a 9-30-5b |
निशम्य पाण्डुपुत्राणां तदा वैजयिनां स्वनम्। विद्रुतं शिबिरं दृष्ट्वा सायाह्ने राजगृद्विनः। स्थानं नारोचयंस्तत्र ततस्ते हदमभ्ययुः।। | 9-30-6a 9-30-6b 9-30-6c |
युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो रणे। हृष्टः पर्यपतद्राजन्दुर्योधनवधेप्सया।। | 9-30-7a 9-30-7b |
मार्गमाणास्तु सङ्क्रुद्धास्तव पुत्रं जयैषिणः। यत्नतोऽन्वेषमाणास्ते नैवापश्यञ्जनाधिपम्।। | 9-30-8a 9-30-8b |
यदा दुर्योधनो युद्धं त्यक्त्वा पद्भ्यां पराक्रममत्। तं हदं प्राविशच्चापि विष्टभ्यापः स्वमायया।। | 9-30-9a 9-30-9b |
यदा तु पाण्डवाः सर्वे सुपरिश्रान्तवाहनाः। ततः स्वशिबिरं प्राप्य व्यतिष्ठन्त ससैनिकाः।। | 9-30-10a 9-30-10b |
ततः कृपश्च द्रौणिश्च कृतवर्मा च सात्वतः। सन्निविष्टेषु पार्थेषु प्रययुस्तं हदं शनैः।। | 9-30-11a 9-30-11b |
ते तं हदं समासाद्य यत्र शेते जनाधिपः। अभ्यभाषन्त दुर्धर्षं राजानं सुप्तमम्भसि।। | 9-30-12a 9-30-12b |
राजन्नुत्तिष्ठ युध्यस्व सहास्माभिर्युधिष्ठिरम्। जित्वा वा पृथिवीं भुङ्क्ष्व हतो वा स्वर्गमाप्नुहि।। | 9-30-13a 9-30-13b |
तेषामपि बलं सर्वं हतं दुर्योधन त्वया। प्रतिविद्धाश्च भूयिष्ठं ये शिष्टास्तत्र सैनिकाः।। | 9-30-14a 9-30-14b |
न ते वेगं विषहितुं शक्तास्तव विशाम्पते। अस्माभिरपि गुप्तस्य तस्मादुत्तिष्ठ भारत।। | 9-30-15a 9-30-15b |
दुर्योधन उवाच। | 9-30-16x |
दिष्ट्या पश्यामि वो मुक्तानीदृशात्पुरुषक्षयात्। पाण्डुकौरवसम्मर्दाज्जीवमानान्नरर्षभान्।। | 9-30-16a 9-30-16b |
विजेष्यामो वयं सर्वे विश्रान्ता विगतक्लमाः। भवन्तश्च परिश्रान्ता वयं च भृशविक्षताः। उदीर्णं च बलं तेषां तेन युद्धं न रोचये।। | 9-30-17a 9-30-17b 9-30-17c |
न त्वेतदद्भुतं वीरा यद्वो महदिदं मनः। अस्मासु च परा शक्तिर्न तु कालः पराक्रमे।। | 9-30-18a 9-28-18b |
विश्रम्यैकां निशामद्य भवद्भिः सहितो रणे। प्रतियोत्स्याम्यहं शत्रूञ्श्वो न स्याच्च श्रमो मम।। | 9-28-19a 9-28-19b |
सञ्जय उवाच। | 9-28-20x |
एवमुक्तोऽब्रवीद्द्रौणी राजानं युद्धदुर्मदम्। उत्तिष्ठ राजन्भद्रं ते विजेष्यामो वयं परान्।। | 9-28-20a 9-28-20b |
इष्टापूर्तेन दानेन सत्येन च जपेन च। शपे राजन्यथा ह्यद्य निहनिष्यामि सोमकान्।। | 9-28-21a 9-28-21b |
मा स्म यज्ञकृतां प्रीतिमाप्नुयां सज्जनोचिताम्। यदीमां रजनीं व्युष्टां न हि हन्मि परान्रणे।। | 9-30-22a 9-30-22b |
नाहत्वा सर्वपाञ्चालान्विमोक्ष्ये कवचं विभो। उत्तिष्ठ त्वं ब्रवीम्येतत्तन्मे शृणु जनाधिप।। | 9-30-23a 9-30-23b |
तेषु सम्बाषमाणेषु व्याधास्तं देशमाययुः। मांसभारपरिश्रान्ताः पानीयार्थं यदृच्छया।। | 9-30-24a 9-30-24b |
ते हि नित्यं महाराज भीमसेनस्य लुब्धकाः। मांसभारानुपाजह्नुर्भक्त्या परमया विभो।। | 9-30-25a 9-30-25b |
ते तत्र धिष्ठितास्तेषां सर्वं तद्वचनं रहः। दुर्योधनवचश्चैव शुश्रुवुः सङ्गता मिथः।। | 9-30-26a 9-30-26b |
तेऽपि सर्वे महेष्वासा अयुद्धार्थिनि कौरवे। निर्बन्धं परमं चक्रुस्तदा वै युद्धकाङ्क्षिणः।। | 9-30-27a 9-30-27b |
तांस्तथा समुदीक्ष्याथ कौरवाणां महारथान्। अयुद्धमनसं चैव राजानं स्थितमम्भसि।। | 9-30-28a 9-30-28b |
तेषां श्रुत्वा च संवादं राज्ञश्च सलिले सतः। व्याधा ह्यजानन्राजेन्द्र सलिलस्थं सुयोधनम्।। | 9-30-29a 9-30-29b |
ते पूर्वं पाण्डुपुत्रेण पृष्टा ह्यासन्सुतं तव। यदृच्छोपगतास्तत्र राजानं परिमार्गता।। | 9-30-30a 9-30-30b |
ततस्ते पाण्डुपुत्रस्य स्मृत्वा तद्भाषितं तदा। अन्योन्यमब्रुवन्राजन्मृगव्याधाः शनैरिव।। | 9-30-31a 9-30-31b |
दुर्योधनं ख्यापयामो धनं दास्यति पाण्डवः। सुव्यक्तमिह नः ख्यातो हदे दुर्योधनोनृपः।। | 9-30-32a 9-30-32b |
तस्माद्गच्छामहे सर्वे यत्र राजा युधिष्ठिरः। आख्यातुं सलिले सुप्तं दुर्योधनममर्षणम्।। | 9-30-33a 9-30-33b |
धृतराष्ट्रात्मजं तस्मै भीमसेनाय धीमते। शयानं सलिले सर्वे कथयामो धनुर्भृते।। | 9-30-34a 9-30-34b |
स नो दास्यति सुप्रीतो धनानि बहुलान्युत। किं नो मांसेन शुष्केण परिक्लिष्टेन शोषिणा।। | 9-30-35a 9-30-35b |
एवमुक्त्वा तु ते व्याधाः सम्प्रहृष्टा धनार्थिनः। मांसभारानुपादाय प्रययुः शिबिरं प्रति।। | 9-30-36a 9-30-36b |
पाण्डवाश्च महाराज लब्धलक्षाः प्रहारिणः। अपश्यमानाः समरे दुर्योधनमवस्थितम्।। | 9-30-37a 9-30-37b |
निकृतिज्ञस्य पापस्य तस्याभिगमनेप्सया। चारान्सम्प्रेषयामासुः समन्तात्तद्रणाजिरे।। | 9-30-38a 9-30-38b |
आगम्य तु ततः सर्वे नष्टं दुर्योधनं नृपम्। न्यवेदयन्त सहिता धर्मराजस्य सैनिकाः।। | 9-30-39a 9-30-39b |
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा चाराणां भरतर्षभ। चिन्तामभ्यगमत्तीव्रां निशश्वास च पार्थिवः।। | 9-30-40a 9-30-40b |
`अरिशेषे जीवति तु सन्दिग्धो विजयो भवेत्। राज्यं लभे कथं तद्वि पूजितं विजयादिभिः'।। | 9-30-41a 9-30-41b |
अथ स्थितानां पाण्डूनां दीनानां भरतर्षभ। तस्माद्देशादपक्रम्य त्वरिता लुब्धका विभो।। | 9-30-42a 9-30-42b |
आजग्मुः शिबिरं हृष्टा दृष्ट्वा दुर्योधनं नृपम्। वार्यमाणाः प्रविष्टाश्च भीमसेनस्य पश्यतः।। | 9-30-43a 9-30-43b |
ते तु पाण्डवमासाद्य भीमसेनं महाबलम्। तस्मै तत्सर्वमाचख्युर्यद्वृत्तं यच्च वै श्रुतम्।। | 9-30-44a 9-30-44b |
ततो वृकोदरो राजन्दत्त्वा तेषां धनं बहु। धर्मराजाय तत्सर्वमाचचक्षे परन्तपः।। | 9-30-45a 9-30-45b |
असौ दुर्योधनो राजन्विज्ञातो मम लुब्धकैः। संस्तभ्य सलिलं शेते यस्यार्थे परितप्यसे।। | 9-30-46a 9-30-46b |
तद्वचो भीमसेनस्य प्रियं श्रुत्वा विशाम्पते। अजातशत्रुः कौन्तेयो हृष्टोऽभूत्सह सोदरैः।। | 9-30-47a 9-30-47b |
तं च श्रुत्वा महेष्वासं प्रविष्टं सलिलहदे। क्षिप्रमेव ततोऽगच्छन्पुरस्कृत्य जनार्दनम्।। | 9-30-48a 9-30-48b |
ततः किलकिलाशब्दः प्रादुरासीद्विशाम्पते। पाण्डवानां प्रहृष्टानां पाञ्चालानां च सर्वशः।। | 9-30-49a 9-30-49b |
सिंहनादांस्ततश्चक्रुः क्ष्वेडाश्च भरतर्षभ। त्वरिताः क्षत्रिया राजन्नुदक्रोशन्परस्परम्।। | 9-30-50a 9-30-50b |
ज्ञातः पापो धार्तराष्ट्रो दृष्टश्चेत्यसकृद्रणे। प्राक्रोशन्सोमकास्तत्र हृष्टरूपाः समन्ततः।। | 9-30-51a 9-30-51b |
तेषामाशु प्रयातानां रथानां तत्र वेगिनाम्। वभूव तुमुलः शब्दो दिवस्पृक् पृथिवीपते।। | 9-30-52a 9-30-52b |
दुर्योधनं परीप्सन्तस्तत्रतत्र युधिष्ठिरम्। अन्वयुस्त्वरितास्ते वै राजानं श्रान्तवाहनाः।। | 9-30-53a 9-30-53b |
अर्जुनो भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः शिखण्डी चापराजितः।। | 9-30-54a 9-30-54b |
उत्तमौजा युधामन्युः सात्यकिश्च महारथः। पाञ्चालानां च ये शिष्टा द्रौपदेयाश्च भारत। हयाश्च सर्वे नागाश्च शतशश्च पदातयः।। | 9-30-55a 9-30-55b 9-30-55c |
ततः प्राप्तो महाराज धर्मराजः प्रतापवान्। द्वैपायनहदं घोरं यत्र दुर्योधनोऽभवत्।। | 9-30-56a 9-30-56b |
शीतामलजलं हृद्यं द्वितीयमिव सागरम्। मायया सलिलं स्तभ्य यत्राभूत्ते स्थितः सुतः।। | 9-30-57a 9-30-57b |
अत्यद्भुतेन विधिना दैवयोगेन भारत। सलिलान्तर्गतः शेते दुर्दर्शः कस्यचित्प्रभो। | 9-30-58a 9-30-58b |
मानुषस्य मनुष्येन्द्र गदाहस्तो जनाधिपः।। | 9-30-59a |
ततो दुर्योधनो राजा सलिलान्तर्गतो वसन्। शुश्रुवे तुमुलं शब्दं जलदोपमनिःस्वनम्।। | 9-30-59a 9-30-59b |
युधिष्ठिरश्च राजेन्द्र तं हदं सह सोदरैः। आजगाम महाराज तव पुत्रवधाय वै।। | 9-30-60a 9-30-60b |
महता शङ्खनादेन रथनेमिस्वनेन च। ऊर्ध्वं धुन्वन्महारेणुं कम्पयंश्चापि मेदिनीम्।। | 9-30-61a 9-30-61b |
यौधिष्ठिरस्य सैन्यस्य श्रुत्वा शब्दं महारथाः। कृतवर्मा कृपो द्रौणी राजानमिदमब्रुवन्।। | 9-30-62a 9-30-62b |
इमे ह्यायान्ति संहृष्टाः पाण्डवा जितकाशिनः। अपयास्यामहे तावदनुजानातु नो भवान्।। | 9-30-63a 9-30-63b |
दुर्योधनस्तु तच्छ्रुत्वा तेषां तत्र तरस्विनाम्। तथेत्युक्त्वा हदं तं वै माययाऽस्तम्भयत्प्रभो।। | 9-30-64a 9-30-64b |
ते त्वनुज्ञाप्य राजानं भृशं शोकपरायणाः। जग्मुर्दूरे महाराज कृपप्रभृतयो रथाः।। | 9-30-65a 9-30-65b |
ते गत्वा दूरमध्वानं न्यग्रोधं प्रेक्ष्य मारिष। न्यविशन्त भृशं श्रान्ताश्चिन्तयन्तो नृपं प्रति।। | 9-30-66a 9-30-66b |
विष्टभ्य सलिलं सुप्तो धार्तराष्ट्रो महाबलः। पाण्डवाश्चापि सम्प्राप्तास्तं देशं युद्धमीप्सवः।। | 9-30-67a 9-30-67b |
कथं नु युद्धं भविता कथं राजा भविष्यति। कथं नु पाण्डवा राजन्प्रतिपत्स्यन्ति कौरवम्।। | 9-30-68a 9-30-68b |
इत्येवं चिन्तयानास्तु रथेभ्योऽश्वान्विमुच्य ते। तत्रासाञ्चक्रिरे राजन्कृपप्रभृतयो रथाः।। | 9-30-69a 9-30-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
9-30-18 अस्मासु च परा भक्तिर्दर्शिता कार्यगौरवात्। इति ङ. पाठः।। 9-30-22 यज्ञकृतां प्रीति यज्ञादिजस्य पुण्यस्य फलम्।। 9-30-39 नष्टं अदृश्यत्वं गतं लीनमित्यर्थः।। 9-30-30 त्रिंशोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-029 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-031 |