महाभारतम्-09-शल्यपर्व-014

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-014
वेदव्यासः
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।

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सञ्जय उवाच। 9-14-1x
दुर्योधनो महाराज धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
चक्रतुः सुमहद्युद्धं शरशक्तिसमाकुलम्।।
9-14-1a
9-14-1b
ततो राजन्समापेतुः शरधाराः सहस्रशः।
अम्बुदानां यथा काले जलधाराः समन्ततः।।
9-14-2a
9-14-2b
राजा च पार्षतं विद्ध्वा शरैः पञ्चभिराशुगैः।
द्रोणहन्तारमुग्रेषुं पुनर्विव्याध सप्तभिः।।
9-14-3a
9-14-3b
धृष्टद्युम्नस्तु समरे बलवान्दृढविक्रमः।
सप्तत्या विशिखानां वै दुर्योधनमपीडयत्।।
9-14-4a
9-14-4b
पीडितं वीक्ष्य राजानं सोदर्या भरतर्षभ।
महत्या सेनया सार्धं परिवव्रुः स्म पार्षतम्।।
9-14-5a
9-14-5b
स तैः परिवृतः शूरः सर्वतोऽतिरथै र्भृशम्।
व्यचरत्समरे राजन्दर्शयन्नस्त्रलाघवम्।।
9-14-6a
9-14-6b
शिखण्डी कृतवर्माणं गौतमं च महारथम्।।
प्रभद्रकैः समायुक्तो योधयामास धन्विनौ।।
9-14-7a
9-14-7b
तत्रापि सुमहद्युद्धं घोररूपं विशाम्पते।
प्राणान्सन्तजतां युद्धे प्राणद्यूताभिदेवने।।
9-14-8a
9-14-8b
शल्यः सायकवर्षाणि विमुञ्जन्सर्वतोदिशम्।
पाण्डवान्पीडयामास ससात्यकिवृकोदरान्।।
9-14-9a
9-14-9b
तथा तौ तु यमौ यमतुल्यपराक्रमौ।
योधयामास राजेन्द्र वीर्येणास्त्रबलेन च।।
9-14-10a
9-14-10b
शल्यसायकनुन्नानां पाण्डवानां महामृधे।
त्रातारं नाध्यगच्छन्त केचित्तत्र महारथाः।।
9-14-11a
9-14-11b
ततस्तु नकुलः शूरो धर्मराजे प्रपीडिते।
अभिदुद्राव वेगेन मातुलं माद्रिनन्दनः।।
9-14-12a
9-14-12b
सञ्छाद्य समरे वीरं नकुलः परवीरहा।
विव्याध चैनं दशभिः स्मयमानः स्तनान्तरे।।
9-14-13a
9-14-13b
सर्वपारसवैर्बाणैः कर्मारपरिमार्जितैः।
स्वर्णपुङ्खैः शिलाधौतैर्धनुर्यन्त्रप्रचोदितैः।।
9-14-14a
9-14-14b
शल्यस्तु पीडितस्तेन स्वस्रीयेण हि मातुलः।
नकुलं पीडयामास पत्रिभिर्नतपर्वभिः।।
9-14-15a
9-14-15b
ततो युधिष्ठिरो राजा भीमसेनोऽथ सात्यकिः।
सहदेवश्च माद्रेणो मद्रराजमुपाद्रवन्।।
9-14-16a
9-14-16b
तानापतत एवाशु पूरयाणान्रथस्वनैः।
दिशश्च विदिशश्चैव कम्पयानांश्च मेदिनीम्।
प्रतिजग्राह समरे सेनापतिरमित्रजित्।।
9-14-17a
9-14-17b
9-14-17c
युधिष्ठिरं त्रिभिर्विद्ध्वा भीमसेनं च पञ्चभिः।
सात्यकिं च शतेनाजौ सहदेवं त्रिभिः शरैः।।
9-14-18a
9-14-18b
ततस्तु सशरं चापं नकुलस्य महात्मनः।
मद्रेश्वरः क्षुरप्रेण मध्ये चिच्छेद मारिष।।
9-14-19a
9-14-19b
तदपास्य धनुश्छिन्नं ततः शल्यस्य सायकैः।
अथान्यद्धनुरादाय माद्रीपुत्रो महारथः।
मद्रराजरथं तूर्णं पूरयामास पत्रिभिः।।
9-14-20a
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9-14-20c
युधिष्ठिरस्तु मद्रेशं सहदेवश्च मारिष।
दशभिर्दशभिर्बाणैरुरस्येनमविध्यताम्।।
9-14-21a
9-14-21b
भीमसेनस्तु तं षष्ट्या सात्यकिर्दशभिः शरैः।
मद्रराजमभिद्रुत्य जघ्नतुः xxङ्कपत्रिभिः।।
9-14-22a
9-14-22b
मद्रराजस्ततः क्रुद्धः सात्यकिं नवभिः शरैः।
विव्याध भूयः सप्तत्या शराणां नतपर्वणाम्।।
9-14-23a
9-14-23b
अथास्य सशरं चापं मुष्टौ चिच्छेद मारिष।
हयांश्च चतुरः सङ्ख्ये प्रेषयामास मृत्यवे।।
9-14-24a
9-14-24b
विरथं सात्यकिं कृत्वा मद्रराजो महारथः।
विशिखानां शतेनैनमाजघान समन्ततः।।
9-14-25a
9-14-25b
माद्रीपुत्रं च संरब्धो भीमसेनं च पाण्डवम्।
युधिष्ठिरं च कौरव्य विव्याध दशभिः शरैः।।
9-14-26a
9-14-26b
तत्राद्भुतमपश्याम मद्रराजस्य पौरुषम्।
यदेनं सहिताः पार्था नाभ्यवर्तन्त संयुगे।।
9-14-27a
9-14-27b
अथान्यं रथमास्थाय सात्यकिः सत्यविक्रमः।
पीडितान्पाण्डवान्दृष्ट्वा मद्रराजवशं गतान्।
अभिदुद्राव वेगेन मद्राणामधिपं बलात्।।
9-14-28a
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9-14-28c
आपतन्तं रथं तस्य शल्यः समितिशोभनः।
प्रत्युद्ययौ रथेनैव मत्तो मत्तमिव द्विपम्।।
9-14-29a
9-14-29b
स सन्निपातस्तुमुलो बभूवाद्भुतदर्शनः।
सात्यकेश्चैव शूरस्य मद्राणामधिपस्य च।
यादृशो वै पुरा वृत्तः शम्बरामरराजयोः।।
9-14-30a
9-14-30b
9-14-30c
सात्यकिः प्रेक्ष्य समरे मद्रराजमवस्थितम्।
विव्याध दशभिर्बाणैस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।।
9-14-31a
9-14-31b
मद्रराजस्तु सुभृशं विद्धस्तेन महात्मना।
सात्यकिं प्रतिविव्याध चित्रपुङ्खैः शितैः शरैः।।
9-14-32a
9-14-32b
ततः पार्था महेष्वासाः सात्वताऽभिसृतं नृपम्।
अभ्यवर्तन्रथैस्तूर्णं मातुलं वधकाङ्क्षया।।
9-14-33a
9-14-33b
तत आसीत्परामर्दस्तुमुलः शोणितोदकः।
शूराणां युध्यमानानां सिंहानामिव नर्दताम्।।
9-14-34a
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तेषामासीन्महाराज व्यधिक्षेपः परस्परम्।
सिंहानामामिषेप्सूनां कूजतामिव संयुगे।।
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9-14-35b
तेषां बाणसहस्रौघैराकीर्णा वसुधाऽभवत्।
अन्तरिक्षं च सहसा बाणभूतमभूत्तदा।।
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शरान्धकारं सहसा कृतं तेन समन्ततः।
अभ्रच्छायेव सञ्जज्ञे शरैर्मुक्तैर्महात्मभिः।।
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तत्र राजञ्शरैर्मुक्तैर्निर्मुक्तैरिव पन्नैगः।
स्वर्णपुङ्खैः प्रकाशद्भिर्व्यरोचन्त दिशस्तदा।।
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तत्राद्भुतं परं चक्रे शल्यः शत्रुनिबर्हणः।
यदेकः समरे शूरो योधयामास वै बहून्।।
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मद्रराजभुजोत्सृष्टैः कङ्कबर्हिणवाजितैः।
सम्पतद्भिः शरैर्घोरैरवाकीर्यत मेदिनी।।
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तत्र शल्यरथं राजन्विचरन्तं महाहवे।
अपश्याम यथापूर्वं शक्रस्यासुरसंक्षये।।
9-14-41a
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।। इति श्रीमन्महाभारते
शल्यपर्वणि शल्यवधपर्वणि
अष्टादशदिवसयुद्धे चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।।
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