महाभारतम्-08-कर्णपर्व-001
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शिबिराद्धास्तिनपुरमुपगतवता सञ्जयेन धृतराष्ट्रंप्रति कर्णादिनिधनकथनम्।। 1 ।। तच्छ्रवणेन मूर्च्छामुपगतवतो धृतराष्ट्रस्य सञ्जयादिभिराश्वासनम्।। 2 ।।
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श्रीवेदव्यासाय नमः। | 8-1-1x |
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।। | 8-1-1a 8-1-1b |
`वैशम्पायन उवाच। | 8-1-1x |
शिबिराद्धास्तिनपुरं प्राप्य भारत सञ्जयः। प्रविवेश महाबाहुर्धृतराष्ट्रनिवेशनम्।। | 8-1-1c 8-1-1d |
शोकेनापहतः सूतो विलपन्भृशदुःखितः। चिन्तयन्निधनं घोरं सूतपुत्रस्य पाण्डवैः।। | 8-1-2a 8-1-2b |
अन्तःपुरं प्रविश्यैव सञ्जयो राजसत्तमम्। अश्रुपूर्णो भृशं त्रस्तो राजानमुपजग्मिवान्।। | 8-1-3a 8-1-3b |
उपस्थाय च राजानं विनिश्वस्य च सूतजः। नातिहृष्टमना राजन्निदं वचनमब्रवीत्।। | 8-1-4a 8-1-4b |
सञ्जय उवाच। | 8-1-5x |
सञ्चयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ। हतो वैकर्तनः कर्णः कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।। | 8-1-5a 8-1-5b |
चेदिकाशिकरूशानां मत्स्यानां सोमकैः सह। कृत्वाऽसौ कदनं शेते वातनुन्न इव द्रुमः।। | 8-1-6a 8-1-6b |
गोष्ठमध्येव ऋषभो गोव्रजैः परिवारितः। व्यालेन निहतो यद्वत्तथाऽसौ निहतः परैः।। | 8-1-7a 8-1-7b |
निराशान्पाण्डवान्कृत्वा दृढं राजन्ससात्यकान्। पाञ्चालानां रथांश्चैव विनिहत्य सहस्रशः।। | 8-1-8a 8-1-8b |
जित्वा शूरान्महेष्वासान्विद्राव्य च दिशोदश। हतो वैकर्तनः कर्णः पाण्डवेन किरीटिना।। | 8-1-9a 8-1-9b |
वैरस्य गत आनृण्यं दुर्गमस्य दुरात्मभिः। हत्वा कर्णं महाराज विशल्यः पाण्डवोऽभवत्।। | 8-1-10a 8-1-10b |
शोषणं सागराणां वा पतनं वा विवस्वतः। विशीर्णत्वं यथा मेरोस्तथा कर्णस्य पातनम्।। | 8-1-11a 8-1-11b |
योधाश्च बहवो राजन्हतास्तत्र जयैषिणः। राजानो राजपुत्राश्च शूराः परिघबाहवः।। | 8-1-12a 8-1-12b |
रथौघाश्च नरौघाश्च हता राजन्सहस्रशः। वारणा निहतास्तत्र वाजिनश्च महाहवे।। | 8-1-13a 8-1-13b |
क्षत्रियाश्च महाराज सेनयोरुभयोर्हताः। परस्परं वै वीक्ष्यात्र परस्परकृतागसः।। | 8-1-14a 8-1-14b |
किञ्चिच्छेषान्परान्कृत्वा तीर्त्वा पाण्डववाहिनीम्। पार्थवेलां समासाद्य हतो वैकर्तनो वृषा।। | 8-1-15a 8-1-15b |
जयाशा धार्तराष्ट्राणां वैरस्य च मुखं नृप। तीर्णं तत्पाण्डवै राजन्यत्पुरा नावबुध्यसे।। | 8-1-16a 8-1-16b |
प्रोच्यमानं महाराज बन्धुभिर्हितबुद्धिभिः। तदिदं समनुप्राप्तं व्यसनं त्वां महाभयम्।। | 8-1-17a 8-1-17b |
पुत्राणां राज्यकामेन त्वया राजन्हितैषिणा। चरितान्यहितान्येव तेषां ते फलमागतम्।। | 8-1-18a 8-1-18b |
हतो दुःशासनो राजन्यथोक्तं पाण्डवेन तु। प्रतिज्ञा भीमसेनेन निस्तीर्णा सा चमूमुखे।। | 8-1-19a 8-1-19b |
पीतं च क्षतजं तस्य धार्तराष्ट्रस्य संयुगे। पाण्डवेन महाराज कर्म कृत्वा सुदुष्करम्*'।। | 8-1-20a 8-1-20b |
वैशम्पायन उवाच। | 8-1-21x |
एतच्छ्रुत्वा महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। शोकस्यान्तमपश्यन्वै हतं मत्वा सुयोधनम्। विह्वलः पतितो भूमौ नष्टचेता इव द्विपः।। | 8-1-21a 8-1-21b 8-1-21c |
तस्मिन्निपतिते भूमौ विह्वले राजसत्तमे। आर्तनादो महानासीत्स्त्रीणां भरतसत्तम।। | 8-1-22a 8-1-22b |
श शब्दः पृथिवीं कृत्स्नां पूरयामास सर्वशः।। | 8-1-23a |
शोकार्णवे महाघोरे निमग्ना भरतस्त्रियः। रुरुदुर्दुःखशोकार्ता भृशमुद्विग्नचेतसः।। | 8-1-24a 8-1-24b |
राजानं च समासाद्य गान्धारी भरतर्षभ। निःसंज्ञा पतिता भूमौ सर्वाण्यन्तः पुराणि च।। | 8-1-25a 8-1-25b |
ततस्ताः स़ञ्जयो राजन्समाश्वासयदातुराः। मुह्यामानाः सुबहुशो मुञ्चन्तीर्वारि नेत्रजम्।। | 8-1-26a 8-1-26b |
समाश्वस्ताः स्त्रियस्तास्तु वेपमाना मुहुर्मुहुः। कदल्य इव वातेन धूयमानाः समन्ततः।। | 8-1-27a 8-1-27b |
राजानं विदुरश्चापि प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्। आश्वासयामास तदा सिञ्चंस्तोयेन कौरवम्।। | 8-1-28a 8-1-28b |
स लब्ध्वा सनकैः संज्ञां ताश्च दृष्ट्वा स्त्रियो नृपः। उन्मत्त इव राजेन्द्र स्थितस्तूष्णीं विशाम्पते।। | 8-1-29a 8-1-29b |
ततो ध्यात्वा चिरं कालं निःश्वस्य च पुनःपुनः। स्वान्पुत्रान्गर्हयामास बहुमेने च पाण्डवान्।। | 8-1-30a 8-1-30b |
गर्हयंश्चात्मनो बुद्धिं शकुनेः सौबलस्य च। ध्यात्वा तु सुचिरं कालं वेपमानो मुहुर्मुहुः।। | 8-1-31a 8-1-31b |
संस्तभ्य च मनो भूयो राजा धैर्यसमन्वितः। पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यपृच्छत सञ्जयम्।। | 8-1-32a 8-1-32b |
न त्वया कथितं वाक्यं श्रुतं सञ्जय तन्मया।। | 8-1-33a |
कच्चिद्दुर्योधनः सूत न गतो वै यमक्षयम्। जये निराशः पुत्रो मे सततं जयकामुकः। ब्रूहि सञ्जय तत्त्वेन पुनरुक्तां कथामिमाम्।। | 8-1-34a 8-1-34b 8-1-34c |
वैशम्पायन उवाच। | 8-1-35x |
एवमुक्तोऽब्रवीत्सूतो राजानं जनमेजय। हतो वैकर्तनो राजन्सहपुत्रैर्महारथः। भ्रातृभिश्च महेष्वासैः सूतपुत्रैस्तनुत्यजैः।। | 8-1-35a 8-1-35b 8-1-35c |
दुःशासनश्च निहतः पाण्डवेन यशस्विना। पीतं च रुधिरं कोपाद्भीमसेनेन संयुगे।। | 8-1-36a 8-1-36b |
`वैशम्पायन उवाच। | 8-1-37x |
एतच्छ्रुत्वा महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। दह्यमानोऽब्रवीत्सूतं मुहूर्तं तिष्ठ सञ्जय। व्याकुलं मे मनस्तात मा तावत्किंचिदुच्यताम्।। | 8-1-37a 8-1-37b 8-1-37c |
राजापि नाब्रवीत्किञ्चित्सञ्जयो विदुरस्तथा। तूष्णीम्भूतस्तदा सोऽथ बभूव जगतीपतिः'।। | 8-1-38a 8-1-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि प्रथमोऽध्यायः।। 1 ।। |
प्रथमोध्यायः || १ ||
सम्पाद्यताम्दुर्योधनादिभिः कर्णस्य सैनापत्येऽभिषेचनपूर्वकं युद्धाय निर्याणम्।। 1 ।। जनमेजयेन वैशम्पायनम्प्रति कर्णमरणश्राविणो धृतराष्ट्रस्य प्रवृत्तिप्रश्नः।। 2 ।।
श्रीकृष्णाय नमः।। | 8-1-1x |
[नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्।। | 8-1-1a 8-1-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 8-1-2x |
ततो द्रोणे हते राजन्दुर्योधनमुखा नृपाः। भृशमुद्विग्नमनसो द्रोणपुत्रमुपागमन्।। | 8-1-2a 8-1-2b |
ते द्रोणमनुशोचन्तः कश्मलाभिहतौजसः। पर्युपासन्त शोकार्तास्ततः शारद्वतीसुतम्।। | 8-1-3a 8-1-3b |
ते मुहूर्तं समाश्वस्य हेतुभिः शास्त्रसम्मितैः। रात्र्यागमे महीपालाः स्वानि वेश्मानि भेजिरे।। | 8-1-4a 8-1-4b |
ते वेश्मस्वपि कौरव्य पृथ्वीशा नाप्नुवन्सुखम्। चिन्तयन्तः क्षयं तीव्रं दुःखशोकसमन्विताः।। | 8-1-5a 8-1-5b |
विशेषतः सूतपुत्रो राजा चैव सुयोधनः। दुःशासनश्च शकुनिः सौबलश्च महाबलः।। | 8-1-6a 8-1-6b |
उषितास्ते निशां तां तु दुर्योधननिवेशने। चिन्तयन्तः परिक्लेशान्पाण्डवानां महात्मनाम्।। | 8-1-7a 8-1-7b |
यत्तद्द्यूते परिक्लिष्टा कृष्णा चानायिता सभाम्। तत्स्मरन्तोऽनुशोचन्तो भृशमुद्विग्नचतेतसः।। | 8-1-8a 8-1-8b |
तथा तु सञ्चिन्तयतां तान्क्लेशान्द्यूतकारितान्। दुःखेन क्षणदा राजञ्जगामाब्दशतोपमा।। | 8-1-9a 8-1-9b |
ततः प्रभाते विमले स्थिता दिष्टस्य शासने। चक्रुरावश्यकं सर्वे विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 8-1-10a 8-1-10b |
ते कृत्वाऽवश्यकार्याणि समाश्वस्य च भारत। योगमाज्ञापयामासुर्युद्वाय च विनिर्ययुः।। | 8-1-11a 8-1-11b |
कर्णं सेनापतिं कृत्वा कृतकौतुकमङ्गलाः। पूजयित्वा द्विजश्रेष्ठान्दधिपात्रघृताक्षतैः।। | 8-1-12a 8-1-12b |
गोभिरश्वैश्च निष्कैश्च वासोभिश्च महाधनैः। वन्द्यमाना जयाशीर्भिः सूतमागधबन्दिभिः।। | 8-1-13a 8-1-13b |
तथैव पाण्डवा राजन्कृतपूर्वाह्णिकक्रियाः। शिबिरान्निर्ययुस्तूर्णं युद्वाय कृतनिश्चयाः।। | 8-1-14a 8-1-14b |
ततः प्रववृते युद्वं तुमुलं रोमहर्षणम्। कुरूणां पाण्डवानां च परस्परजयैषिणाम्।। | 8-1-15a 8-1-15b |
तयोर्द्वौ दिवसौ युद्वं कुरुपाण्डवसेनयोः। कर्णे सेनापतौ राजन्बभूवाद्भुतदर्शनम्।। | 8-1-16a 8-1-16b |
ततः शत्रुक्षयं कृत्वा सुमहान्तं रणे वृषः। पश्यतां धार्तराष्ट्राणां फल्गुनेन निपातितः।। | 8-1-17a 8-1-17b |
ततस्तु सञ्जयः सर्वं गत्वा नागपुरं द्रुतम्। आचष्ट धृतराष्ट्राय यद्वृत्तं कुरुजाङ्गले।। | 8-1-18a 8-1-18b |
जनमयेजय उवाच। | 8-1-19x |
आपगेयं हतं श्रुत्वा द्रोणं चापि महारथम्। आजगाम परामार्तिं वृद्वो राजाऽम्बिकासुतः।। | 8-1-19a 8-1-19b |
स श्रुत्वा निहतं कर्णं दुर्योधनहितैषिणम्। कथं द्विजवर प्राणानधारयत दुःखितः।। | 8-1-20a 8-1-20b |
यस्मिञ्जयाशां पुत्राणां सममन्यत पार्थिवः। तस्मिन्हते स कौरव्यः कथं प्राणानधारयत्।। | 8-1-21a 8-1-21b |
दुर्मरं तदहं मन्ये नृणां कृच्छ्रेऽपि वर्तताम्। यत्र कर्णं हतं श्रुत्वा नात्यजज्जीवितं नृपः।। | 8-1-22a 8-1-22b |
तथा शान्तनवं वृद्वं ब्रह्मन्बाह्लीकमेव च। द्रोणं च सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च।। | 8-1-23a 8-1-23b |
तथैव चान्यान्सुहृदः पुत्रान्पौत्रांश्च पातितान्। श्रुत्वा यन्नाजहात्प्राणांस्तन्मन्ये दुष्करं द्विज।। | 8-1-24a 8-1-24b |
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण महामुने। न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्चरितं महत्।। | 8-1-25a 8-1-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षोडशदिवसयुद्धारम्भे प्रथमोऽध्यायः।। 1 ।। |
द्वितीयोध्यायः || २ ||
सम्पाद्यताम्वैशम्पायन उवाच। | 8-1-1x |
हते कर्णे महाराज निशि गावल्गणिस्तदा। दीनो ययौ नागपुरमश्वैर्वातसमैर्जवे।। | 8-1-1a 8-1-1b |
स हास्तिनपुरं गत्वा भृशमुद्विग्नचेतनः। जगाम धृतराष्ट्रस्य क्षयं प्रक्षीणबान्धवम्।। | 8-1-2a 8-1-2b |
स तमुद्वीक्ष्य राजानं कश्मलाभिहतौजसम्। ववन्दे प्राञ्जलिर्भूत्वा मूर्ध्ना पादौ नृपस्य ह।। | 8-1-3a 8-1-3b |
सम्पूज्य च यथान्यायं धृतराष्ट्रं महीपतिम्। हा कष्टमिति चोक्त्वा स ततो वचनमाददे।। | 8-1-4a 8-1-4b |
सञ्जयोऽहं क्षितिपते कच्चिदास्ते सुखं भवान्। स्वदोषैरापदं प्राप्य कच्चिन्नाद्य विमुह्यति।। | 8-1-5a 8-1-5b |
हितान्युक्तानि विदुरद्रोणगाङ्गेयकेशवैः। अगृहीतान्यनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम्।। | 8-1-6a 8-1-6b |
रामनारदकण्वाद्यैर्हितमुक्तं सभातले। न गृहीतमनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम्।। | 8-1-7a 8-1-7b |
सुहृदस्त्वद्विते युक्तान्भीष्मद्रोणमुखान्परैः। निहतान्युधि संस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम्।। | 8-1-8a 8-1-8b |
तमेवंवादिनं राजा सूतपुत्रं कृताजलिम्। सुदीर्घमथ निःश्वस्य दुःखार्त इदमब्रवीत्।। | 8-1-9a 8-1-9b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 8-1-10x |
आपगेये हते शूरे दिव्यास्त्रवति सञ्जय। द्रोणे च परमेष्वासे भृशं मे व्यथितं मनः।। | 8-1-10a 8-1-10b |
यो रथानां सहस्राणि दंशितानां दशैव तु। अहन्यहनि तेजस्वी निजघ्ने वसुसम्भवः।। | 8-1-11a 8-1-11b |
तं हतं यज्ञसेनस्य पुत्रेणेह शिखण्डिना। पाण्डवेयाभिगुप्तेन श्रुत्वा मे व्यथितं मनः।। | 8-1-12a 8-1-12b |
भार्गवः प्रददौ यस्मै परमास्त्रं महाहवे। साक्षाद्रामणे यो बाल्ये धनुर्वेद उपाकृतः।। | 8-1-13a 8-1-13b |
यस्य प्रसादात्कौन्तेया राजपुत्रा महारथाः। महारथत्वं सम्प्राप्तास्तथाऽन्ये वसुधाधिपाः।। | 8-1-14a 8-1-14b |
तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संयुगे। सत्यसन्धं महेष्वासं भृशं मे व्यथितं मनः।। | 8-1-15a 8-1-15b |
ययोर्लोके पुमानस्त्रे न समोऽस्ति चतुर्विधे। तौ द्रोणभीष्मौ श्रुत्वा तु हतौ मे व्यथितं मनः।। | 8-1-16a 8-1-16b |
त्रैलोक्ये यस्य चास्त्रेषु न पुमान्विद्यते समः। तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा किमकुर्वत मामकाः।। | 8-1-17a 8-1-17b |
संशप्तकानां च बले पाण्डवेन महात्मना। धनञ्जयेन विक्रम्य गमिते यमसादनम्।। | 8-1-18a 8-1-18b |
नारायणास्त्रे च हते द्रोणपुत्रस्य धीमतः। विप्रद्रुतानहं मन्येनिमग्नाञ्शोकसागरे। | 8-1-19a 8-1-19b |
प्लवमानान्हते द्रोणे सन्ननौकानिवार्णवे।। दुर्योधनस्य कर्णस्य भोजस्य कृतवर्मणः। | 8-1-20a 8-1-20b |
मद्रराजस्य शल्यस्य द्रौणेश्चैव कृपस्य च।। मत्पुत्रस्य च शेषस्य तथाऽन्येषां च सञ्जय। | 8-1-21a 8-1-21b |
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु मुखवर्णोऽभवत्कथम्।। एतत्सर्वं यथावृत्तं तथा गावल्गणे मम। | 8-1-22a 8-1-22b |
आचक्ष्व पाण्डवेयानां मामकानां च विक्रमम्।। | 8-1-23a |
सञ्जय उवाच। | 8-1-23x |
तवापराधाद्यद्वृत्तं कौरवेयेषु मारिष। तच्छ्रुत्वा मा व्यथां कार्षीर्दिष्टे न व्यथते बुधः।। | 8-1-24a 8-1-24b |
यस्मादभावी भावी वा भवेदर्थो नरं प्रति। अप्राप्तौ तस्य वा प्राप्तौ न कश्चिद्यथते बुधः।। | 8-1-25a 8-1-25b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 8-1-26x |
न व्यथाऽभ्यधिका काचिद्विद्यते मम सञ्जय। दिष्टमेतत्पुरा मन्ये कथयस्य यथेच्छकम्।। | 8-1-26a 8-1-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।। |
तृतीयोध्यायः || ३ ||
सम्पाद्यताम्दुर्योधनेन द्रोणमरणनिर्विण्णानां सैनिकानां कर्णगुणानुवर्णनेन प्रोत्साहनम्।। 1 ।। सञ्जयेन धृतराष्ट्रम्प्रति कर्णपराक मप्रशंसनपूर्वकं तन्निधनकथनम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-1-1x |
हते द्रोणे महेष्वासे तव पुत्रा महारथाः। बभूवुरस्वस्थमुखा विषण्णा गतचेतसः।। | 8-1-1a 8-1-1b |
अवाङ्मुखाः शस्त्रभृतः सर्व एव विशाम्पते। अवेक्षमाणाः शोकार्ता नाभ्यभाषन्परस्परम्।। | 8-1-2a 8-1-2b |
तान्दृष्ट्वा व्यथिताकारान्सैन्यानि तव भारत। ऊर्ध्वमेव निरैक्षन्त दुःखत्रस्तान्यनेकशः।। | 8-1-3a 8-1-3b |
शस्त्राण्येषां तु राजेन्द्र शोणिताक्तानि सर्वशः। प्राभ्रश्यन्त कराग्रेभ्यो दृष्ट्वा द्रोणं हतं युधि।। | 8-1-4a 8-1-4b |
तानि बद्वान्यरिष्टानि लम्बमानानि भारत। अदृश्यन्त महाराज नक्षत्राणि यथा दिवि।। | 8-1-5a 8-1-5b |
तथा तु स्तिमितं दृष्ट्वा गतसत्वमवस्थितम्। बलं तव महाराज राजा दुर्योधनोऽब्रवीत्।। | 8-1-6a 8-1-6b |
भवतां बाहुवीर्यं हि समाश्रित्य मया युधि। पाण्डवेयाः समाहूता युद्वं चेदं प्रवर्तितम्।। | 8-1-7a 8-1-7b |
तदिदं निहते द्रोणे विषण्णमिव लक्ष्यते। युध्यमानाश्च समरे योधा वध्यन्ति सर्वशः।। | 8-1-8a 8-1-8b |
जयो वाऽपि वधो वाऽपि युध्यमानस्य संयुगे। भवेत्किमत्र चित्रं वै युध्यध्वं सर्वतोमुखाः।। | 8-1-9a 8-1-9b |
पश्यध्वं च महात्मानं कर्णं वैकर्तनं युधि। प्रचरन्तं महेष्वासं दिव्यैरस्त्रैर्महाबलम्।। | 8-1-10a 8-1-10b |
यस्य वै युधि सन्त्रासात्कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। निवर्तते सदा मन्दः सिंहात्क्षुद्रमृगो यथा।। | 8-1-11a 8-1-11b |
येन नागायुतप्राणो भीमसेनो महाबलः। मानुषेणैव युद्धेन तामवस्थां प्रवेशितः।। | 8-1-12a 8-1-12b |
येन दिव्यास्त्रविच्छूरो मायावी स घटोत्कचः। अमोघया रणे शक्त्या निहतो भैरवं नदन्।। | 8-1-13a 8-1-13b |
तस्य दुर्वारवीर्यस्य सत्यसन्धस्य धीमतः। बाह्वोर्द्रविणमक्षय्यमद्य द्रक्ष्यथ संयुगे।। | 8-1-14a 8-1-14b |
द्रोणपुत्रस्य विक्रान्तं राधेयस्यैव चोभयोः। पश्यन्तु पाण्डुपुत्रास्ते विष्णुवासवयोरिव।। | 8-1-15a 8-1-15b |
सर्व एव भवन्तश्च शक्ताः प्रत्येकशोऽपि वा। पाण्डुपुत्रान्रणे हन्तुं ससैन्यान्किसु संहताः। वीर्यवन्तः कृतास्त्राश्च द्रक्ष्यथाद्य परस्परम्।। | 8-1-16a 8-1-16b 8-1-16c |
सञ्जय उवाच। | 8-1-17x |
एवमुक्त्वा ततः कर्णं चक्रे सेनापतिं तदा। तव पुत्रो महावीर्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ।। | 8-1-17a 8-1-17b |
सैनापत्यमथावाप्य कर्णो राजन्महारथः। सिंहनादं विनद्योच्चैः प्रायुध्यत रणोत्कटः।। | 8-1-18a 8-1-18b |
ससृञ्जयानां सर्वेषां पाञ्चालानां च मारिष। केकयानां विदेहानां चकार कदनं महत्।। | 8-1-19a 8-1-19b |
तस्येषुधाराः शतशः प्रादुरासञ्छरासनात्। अग्रे पुङ्खेषु संसक्ता यथा भ्रमरपङ्क्तयः।। | 8-1-20a 8-1-20b |
स पीडयित्वा पाञ्चालान्पाण्डवांश्च तरस्विनः। हत्वा सहस्रशो योधानर्जुनेन निपातितः।। | 8-1-21a 8-1-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्8-1-21 विह्वलः चलनासमर्थः काष्ठवत्पतितः।। 8-1-25 अन्तःपुराणि स्त्रियः।। 8-1-27 कदल्यइव वेपमाना आसन्निति शेषः।। 8-1-29 दृष्ट्वा मनसैवात्मप्रत्ययेन दुःखवतीर्ज्ञत्वा।। 8-1-34 इष्टवियोगमात्रेण दशरथादिर्मृतः। अस्यतु जये नैराश्यमधिकं मरणकारणमस्तीति भावः।। 8-1-1 प्रथमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-002 |