महाभारतम्-08-कर्णपर्व-030
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शल्येन सारथीभूयाधिष्ठितं रथमधिष्ठाय कर्णस्य रणाय निर्याणम्।। 1 ।।
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दुर्योधन उवाच। | 8-30-1x |
अयं ते कर्ण सारथ्यं मद्रराजः करिष्यति। कृष्णादभ्यधिको यन्ता देवेशस्येव मातलिः।। | 8-30-1a 8-30-1b |
यथा हरिहयैर्युक्तं सङ्गृह्णाति स मातलिः। शल्यस्तथा तवाद्यायं संयन्ता रथवाजिनाम्।। | 8-30-2a 8-30-2b |
योधे त्वयि रथस्थे च मद्रराजे च सारथौ। रथश्रेष्ठो ध्रुवं सङ्ख्ये पार्थानभिभविष्यति।। | 8-30-3a 8-30-3b |
सञ्जय उवाच। | 8-30-4x |
ततो दुर्योधनो भूयो मद्रराजं तरस्विनम्। उवाच राजन्सङ्ग्रामेऽध्युषिते पर्युपस्थिते।। | 8-30-4a 8-30-4b |
कर्णस्य यच्छ सङ्ग्रामे मद्रराज हयोत्तमान्। त्वयाऽभिगुप्तो राधेयो विजेष्यति धनञ्जयम्।। | 8-30-5a 8-30-5b |
इत्युक्तो रथमास्थाय तथेति प्राह भारत। शल्येऽभ्युपगते कर्णः सारथिं सुमनाऽब्रवीत्।। | 8-30-6a 8-30-6b |
त्वं सूत स्यन्दनं मह्यं कल्पयेत्यसकृत्त्वरन्।। | 8-30-7a |
ततो जैत्रं रथवरं गन्धर्वनगरोपमम्। विधिवत्कल्पितं भद्रं जयेत्युक्त्वा न्यवेदयत्।। | 8-30-8a 8-30-8b |
तं रथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णोऽभ्यर्च्य यथाविधि। सम्पादितं ब्रह्मविदा पूर्वमेव पुरोधसा।। | 8-30-9a 8-30-9b |
कृत्वा प्रदक्षिणं यत्नादुपस्थाय च भास्करम्। समीपस्थं मद्रराजमारोह त्वमथाब्रवीत्।। | 8-30-10a 8-30-10b |
ततः कर्णस्य दुर्धर्षं स्यन्दनप्रवरं महत्। आरुरोह महातेजाः शल्यः सिंह इवाचलम्।। | 8-30-11a 8-30-11b |
ततः शल्याश्रितं दृष्ट्वा कर्णः स्वं रथमुत्तमम्। अध्यतिष्ठद्यथाऽम्भोदं विद्युत्वन्तं दिवाकरः।। | 8-30-12a 8-30-12b |
तावेकरथमारूढावादित्याग्निसमत्विषौ। अभ्राजेतां यथा मेघं सूर्याग्नी सहितौ दिवि।। | 8-30-13a 8-30-13b |
संस्तूयमानौ तौ वीरौ तदास्तां द्युतिमत्तमौ। ऋत्विक्सदस्यैरिन्द्राग्नी स्तूयमानाविवाध्यरे।। | 8-30-14a 8-30-14b |
स शल्यसङ्गृहीताश्वे रथे कर्णः स्थितो बभौ। धनुर्विष्फारयन्घोरं परिवेषीव भास्करः।। | 8-30-15a 8-30-15b |
आस्थितः स रथश्रेष्ठं कर्णः शरगभस्तिमान्। प्रबभौ पुरुषव्याघ्रो मन्दरस्थ इवांशुमान्।। | 8-30-16a 8-30-16b |
तं रथस्थं महाबाहुं युद्वायामिततेजसम्। दुर्योधनस्तु राधेयमिदं वचनमब्रवीत्।। | 8-30-17a 8-30-17b |
अकृतं द्रोणभीष्माभ्यां दुष्करं कर्म संयुगे। कुरुष्वाधिरथे वीर मिषतां सर्वधन्विनाम्।। | 8-30-18a 8-30-18b |
मनोगतं मम ह्यासीद्भीष्मद्रोणौ महारथौ। अर्जुनं भीमसेनं च निहन्ताराविति ध्रुवम्।। | 8-30-19a 8-30-19b |
ताभ्यां यदकृतं वीर वीरकर्म महामृधे। तत्कर्म कुरु राधेय वज्रपाणिरिवापरः।। | 8-30-20a 8-30-20b |
गृहाण धर्मराजं वा जहि वा त्वं धनञ्जयम्। भीमसेनं च राधेय माद्रीपुत्रौ यमावपि।। | 8-30-21a 8-30-21b |
जयश्च तेऽस्तु भद्रं ते प्रयाहि पुरुषर्षभ। पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि कुरु सर्वाणि भस्मसात्।। | 8-30-22a 8-30-22b |
ततस्तूर्यसहस्राणि भेरीणामयुतानि च। वाद्यमानान्यरोचन्त मेघशब्दो यथा दिवि।। | 8-30-23a 8-30-23b |
प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं रथस्थो रथरुत्तमः। अभ्यभाषत राधेयः शल्यं युद्धविशारदम्।। | 8-30-24a 8-30-24b |
चोदयाश्वान्महाबाहो यावद्वन्मि धनञ्जयम्। भीमसेनं यमौ चोभौ राजानं च युधिष्ठिरम्।। | 8-30-25a 8-30-25b |
अद्य पश्यतु मे शल्य बाहुवीर्यं धनञ्जयः। अस्यतः कङ्कपत्राणां सहस्राणि शतानि च।। | 8-30-26a 8-30-26b |
अद्य क्षेप्स्याम्यहं शल्य शरान्परमतेजनान्। पाण्डवानां विनाशाय दुर्योधनजयाय च।। | 8-30-27a 8-30-27b |
सञ्जय उवाच। | 8-30-28x |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य शल्यः कर्णं वचोऽब्रवीत्। कथं नु तान्महावीर्यान्पाण्डवानवमन्यसे।। | 8-30-28a 8-30-28b |
सर्वास्त्रज्ञान्महेष्वासान्सर्वानेन महाबलान्। अनिवर्तिनो महाभागानजय्यान्सत्यविक्रमान्। अपि सञ्जनयेयुर्ये भयं साक्षाच्छतक्रतोः।। | 8-30-29a 8-30-29b 8-30-29c |
यदा श्रोष्यसि निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः। राधेय पार्थधनुषस्तदा नैवं वदिष्यसि।। | 8-30-30a 8-30-30b |
यदा द्रक्ष्यसि भीमेन कुञ्जरानीकमाहवे। विशीर्णदन्तं निहतं तदा नैवं वदिष्यसि।। | 8-30-31a 8-30-31b |
यदा द्रक्ष्यसि सङ्ग्रामे धर्मपुत्रं यमौ तथा। शितैः पृषत्कैः कुर्वाणानभ्रच्छायामिवाम्बरे।। | 8-30-32a 8-30-32b |
अस्यतः क्षिण्वतश्चारीँल्लघुहस्तान्दुरासदान्। पार्थिवागपि चान्यांस्त्वं तदा नैवं वदिष्यसि।। | 8-30-33a 8-30-33b |
सञ्जय उवाच। | 8-30-34x |
अनादृत्य तु तद्वाक्यं मद्रराजे भाषितम्। द्रक्ष्यस्यद्येत्यवोचत्तं शल्यं कर्णो जनेश्वर।। | 8-30-34a 8-30-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
8-30-2 हरिहयैरिन्द्रतुरगैर्युक्तं रथम्।। 8-30-4 अध्युषिते प्रातःकाले।। 8-30-30 त्रिंशोऽध्यायः।।
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