महाभारतम्-08-कर्णपर्व-027
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देवानां प्रार्थनया ब्रह्मणा रुद्ररथसारथ्यकरणम्।। 1 ।। रुद्रेण त्रिपुरदहनम्।। 2 ।। दुर्योधनेन दृष्टान्तप्रदर्शनपूर्वकं शल्यम्प्रति कर्णरथसारथ्यकरणप्रार्थना।। 3 ।।
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दुर्योधन उवाच। | 8-27-1x |
तमब्रुवन्देवगणा यं भवान्सन्नियोक्ष्यते। स भविष्यति देवेश सारथिस्ते न संशयः।। | 8-27-1a 8-27-1b |
तानब्रवीन्महादेवो मत्तः श्रेष्ठतरो हि यः। तं सारथिं कुरुध्वं वै स्वयं सञ्चिन्त्य मा चिरम्।। | 8-27-2a 8-27-2b |
एतच्छ्रुत्वा वचो देवाः सर्वे गत्वा पितामहम्। प्रणिपत्योचुरेकाग्राः प्रसाद्यैनं महर्षिभिः।। | 8-27-3a 8-27-3b |
त्वया यत्कथितं देव त्रिदशारिनिबर्हणे। तथा तत्कृतमस्माभिः प्रसन्नश्च वृषध्वजः।। | 8-27-4a 8-27-4b |
रथश्च विहितोऽस्माभिर्विचित्रायुधसंवृतः। सारथिं च न जानीमः कः स्यात्तस्मिन्रथोत्तमे।। | 8-27-5a 8-27-5b |
तस्माद्विधीयतां कश्चित्सारथिर्देवसत्तम। सफलां तां गिरं देव कर्तुमर्हसि नो विभो। एवमस्मासु हि पुरा भगवन्नुक्तवानसि।। | 8-27-6a 8-27-6b 8-27-6c |
सदैव युक्तो रथसत्तमो वै दुराधर्षो द्रावणः शात्रवाणाम्। पिनाकधन्वा विहितोऽत्र योद्धा विभीषयन्दानवानुद्यतोऽसौ।। | 8-27-7a 8-27-7b 8-27-7c 8-27-7b |
तथैव वेदाश्च हया रथाग्र्य धरा सशैला च रथो महात्मनः। नक्षत्रवंशानुगतो वरूथी यस्मिन्योद्धा सारथिनाऽभिरक्ष्यः।। | 8-27-8a 8-27-8b 8-27-8c 8-27-8d |
तत्र सारथिरेष्टव्यः सर्वैरेतैर्विशेषवान्।। | 8-27-9a |
तं प्रविष्टा रथं देवा रथयोद्वारमेव च। कवचानि च शस्त्राणि कार्मुकं च पितामह।। | 8-27-10a 8-27-10b |
त्वामृते सारथिं तत्र नान्यं पश्यामहे वयम्। त्वं हि सर्वैर्गणैर्युक्तोदेवताभ्योऽधिकः प्रभो।। | 8-27-11a 8-27-11b |
त्वं देव शक्तो लोकेश नियन्तुं प्रद्रुतानिमान्। वेदांश्च सोपनिषदः सारथिर्भव नः स्वयम्।। | 8-27-12a 8-27-12b |
योद्वुं बलेन वीर्येण सत्वेन विनयेन च। अधिकःसारथिःकार्यो नास्ति चान्योऽधिको भवात्।। | 8-27-13a 8-27-13b |
स भवांस्तारयत्वस्मान्कुरु सारथ्यमव्यय। भवानभ्यधिकस्त्वत्तो नान्योस्ति भविता त्विह।। | 8-27-14a 8-27-14b |
त्वं हि देवेश सर्वैस्तु विशिष्टो वदतां वर। तं रथं त्वं समारुह्य संयच्छ परमान्हयान्।। | 8-27-15a 8-27-15b |
तव प्रसादाद्वध्येयुर्देव दैवतकण्टकाः। स नो रक्ष महाबाहो दैत्येभ्यो महतो भयात्।। | 8-27-16a 8-27-16b |
त्वं हि नो गतिरव्यग्र तवं न्त्रे गोप्ता महाव्रत। त्वत्प्रसादात्सुराः सर्वे पूज्यन्ते त्रिदिवे प्रभो।। | 8-27-17a 8-27-17b |
इति ते शिरसाऽगच्छंस्त्रिलोकेशं पितामहम्। देवाः प्रसादयामासुः सारथ्यायेति नः श्रुतम्।। | 8-27-18a 8-27-18b |
ब्रह्मोवाच। | 8-27-19x |
एवमेतत्सुरास्तथ्यं नान्यस्त्वभ्यधिको भवात्। सारथित्वं करिष्यामि शङ्करस्य महात्मनः।। | 8-27-19a 8-27-19b |
सर्वथा रथिनः श्रेयान्कर्तव्यो रथसारथिः। तस्मादेतद्यथातत्त्वं ज्ञात्वा युष्मांश्च सङ्गतान्। संयच्छामि हयानेष विबुधाय कपर्दिने।। | 8-27-20a 8-27-20b 8-27-20c |
दुर्योधन उवाच। | 8-27-21x |
एवमुक्त्वा जटाभारं संयम्य प्रपितामहः। परिधायाजिनं गाढं सन्न्यस्य च कमण्डलुम्। प्रतोदपाणिर्भगवानारुरोह रथं तदा।। | 8-27-21a 8-27-21b 8-27-21c |
सारथौ कल्पिते देवैरीशानस्य महात्मनः। तस्मिन्नारोहति रथं कल्पितं लोकसम्भृतम्। शिरोभिः पतिता भूमौ तुरगा वेदसम्भृताः।। | 8-27-22a 8-27-22b 8-27-22c |
उभाभ्यां लोकनाथाभ्यामास्थितं रथसत्तमम्। ओढुं न शक्ता वेदाश्वा जानुभ्यामपतन्महीम्।। | 8-27-23a 8-27-23b |
अभीशुभिस्तु भगवानुद्यम्य च हयान्विभुः। अस्तु वीर्यं च शौर्यं च वेदाश्वानामिति प्रभुः। रथं सञ्चोदयामास देवानां प्रभुरव्ययः।। | 8-27-24a 8-27-24b 8-27-24c |
ततोऽधिरूढे वरदे रथं पशुपतिस्तदा। साधुसाध्विति देवेशं स्मयमानोऽभ्यभाषत।। | 8-27-25a 8-27-25b |
याहि देव यतो दैत्याश्चोदयाश्वानरिन्दम। पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य निघ्नतः शात्रवान्रणे।। | 8-27-26a 8-27-26b |
ततोऽश्वांश्चोदयामास मनोमारुतरंहसः। पुराण्युद्दिश्य खस्थानि दानवानां तरस्विनाम्।। | 8-27-27a 8-27-27b |
ततस्ते सहसोत्पत्य वेदाख्या रथवाजिनः। क्षणेन तेन दैत्यानां पुराणि प्रापयन्हरम्।। | 8-27-28a 8-27-28b |
अथर्वाङ्गिरसौ चास्तां चक्ररक्षौ महात्मनः। अथाधिज्यं धनुः कृत्वा शर्वः सन्धाय तं शरम्। युक्त्वा पाशुपतास्त्रेण त्रिपुरं समचिन्तयत्।। | 8-27-29a 8-27-29b 8-27-29c |
तस्मिन्स्थिते ततो राजन्रुद्रे सज्जितकार्मुके। पुराणि तेन कालेन जग्मुरेकत्वमाशु वै।। | 8-27-30a 8-27-30b |
एकीभावं गते चैव त्रिपुरत्वमुपागते। बभूव तुमुलो हर्षो देवतानां महात्मनाम्।। | 8-27-31a 8-27-31b |
ततो देवगुणाः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः। जयेति वाचो मुमुचुः संस्तुवन्तो महेश्वरम्।। | 8-27-32a 8-27-32b |
ततोऽग्रतः प्रादुरभूत्त्रिपुरं जघ्नुषोऽसुरान्। अनिर्देश्याग्र्यवपुषो देवस्यासह्यतेजसः।। | 8-27-33a 8-27-33b |
त्रीणि दृष्ट्वैव संस्थानि पुराण्यथ पिनाकधृत्। स तद्विकृष्य भगवान्दिव्यं लोकेश्वरो धनुः। त्रैलोक्यसारं तमिषुं मुमोच त्रिपुरं प्रति।। | 8-27-34a 8-27-34b 8-27-34c |
एकबाणेन तं देवस्त्रिपुरं परमेश्वरः। निजघ्ने सासुरगणं देवदेवो महेश्वरः।। | 8-27-35a 8-27-35b |
बाणतेजोग्निदग्धं तद्विप्रकीर्णं सहस्रधा। महदार्तस्वरं कृत्वा नावशेषमुपागतम्। मद्रेश सासुरगणं प्रापतत्पश्चिमार्णवे।। | 8-27-36a 8-27-36b 8-27-36c |
एवं हि त्रिपुरं दग्धं दानवाश्चाप्यशेषतः। महेश्वरेण क्रुद्धेन त्रैलोक्यस्य हितैषिणा।। | 8-27-37a 8-27-37b |
स चात्मक्रोधजो विह्निर्दहेत्युक्तो निवारितः। त्रैलोक्यमविशेषेण पुनर्दग्धुं प्रचक्रमे।। | 8-27-38a 8-27-38b |
कालाग्निमिव निर्दग्धुमुत्थितं तं पुनः पुनः। माकार्षीर्भस्मासाल्लोकानिति त्र्यक्षोऽब्रवीद्वचः।। | 8-27-39a 8-27-39b |
ततः प्रकृतिमापन्ना देलोकास्तथर्षयः। तुष्टुवुर्वाग्भिरग्र्याभिः स्थाणुं त्रिपुरवैरिणम्।। | 8-27-40a 8-27-40b |
तेऽनुज्ञाता भगवता सर्वे जग्मुर्यथागतम्। कृतकामाः प्रसन्नेन प्रजापतिमुखाः सुराः।। | 8-27-41a 8-27-41b |
एवं रुद्रस्य कृतवान्सारथ्यं तु पितामहः। संयच्छ तुरगानस्य राधेयस्य महात्मनः।। | 8-27-42a 8-27-42b |
त्वं हि कृष्णाच्च कर्णाच्च फल्गुनाच्च गुणाधिकः। बलतो रूपतो योगादस्त्रसम्पद एव च।। | 8-27-43a 8-27-43b |
समासक्तं महीपाल कुरु मे हितमीप्सितम्। युद्वे ह्ययं रुद्रकल्पस्त्वं च ब्रह्मसमोऽनघ। तस्माच्छक्तौ युवां जेतुं मच्छत्रून्दिवि वा सुरान्।। | 8-27-44a 8-27-44b 8-27-44c |
स यथा शल्य कर्णोऽयं श्वंताश्वं कृष्णसारथिम्। प्रमथ्य हन्यात्कौन्तेयं तथा नीतिर्विधीयताम्।। | 8-27-45a 8-27-45b |
त्वयि राज्यं सुखं चैव जीवितं जयमेव च। समासक्तं महीपाल कुरु मे हितमीप्सितम्।। | 8-27-46a 8-27-46b |
संयच्छास्य हयान्त्राजन्मत्प्रियार्थं परन्तप।। | 8-27-47a |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।। |
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